जीवन व्यापार विश्वास के सहारे चलते हैं ..?

जीवन व्यापार विश्वास के सहारे चलते हैं। चाहे घर हो, व्यवसाय हो अथवा समाज। जीवन के अन्य कार्यकलाप, विचार इसी विश्वास को बनाए रखने के लिए होते हैं। कहीं विश्वास बनता जान पड़ता है, कहीं टूटता। कभी-कभी विश्वास को हथियार के रूप में भी काम लिया जाता है। एक ओर तो विश्वास का पर्दा होता है, पीछे से उसे तोड़ने के प्रयास भी होते हैं। विश्वास कभी-कभी भ्रम का रूप भी ले सकता है। तो कभी विश्वास अपेक्षाओं के साथ भी जुड़ा हो सकता है। विश्वास के अनेक रूप जीवन मेें सामने आते हैं, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विश्वास सदा मन में होता है। तोड़ने का माध्यम बुद्धि बनती है या फिर वे प्रमाण जहां विश्वासघात साबित होता है। टूटे हुए विश्वास को बुद्धि बल से नहीं जीता जा सकता। मन से ही मन को सींचना पड़ेगा। अगली परीक्षाओं में पास होकर भी दिखाना पड़ेगा।

विश्वास एक भाव का नाम है। आत्मीयता का भाव। शुभ चिन्तक होने का भाव। दु:ख-दर्द बांटने का भाव। इस भाव में सम्मान और मिठास दोनों रहते हैं। यह एकांगी भी हो सकता है और द्विपक्षीय भी। यह भी प्रेम की तरह है। प्रेम अन्तरतम की गतिविधि है। विश्वास उससे कुछ कम हो तो भी चल जाता है। यही विश्वास आत्मस्थ होकर प्रेम का रूप ले लेता है। जीवन का एक सहज भाव है; किन्तु सम्बन्धों की नींव इसी पर टिकी रहती है।

यूं तो विश्वास का अर्थ करने की जरूरत नहीं है; किन्तु इसको समझने के लिए हमें दो श्रेणियों में रखकर देखना चाहिए। एक है खुद पर विश्वास। दूसरा है, दूसरे पर विश्वास। वैसे देश, धर्म और संस्कृति से सम्बन्धित विश्वास भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। आस्था और विश्वास के उदाहरणों से तो हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। मीरां बाई से लेकर द्रौपदी, सीता, अहिल्या, सावित्री जैसे उदाहरण भीतर के विश्वास के प्रमाण हैं। स्वयं पर विश्वास करने के लिए न आस्तिक होना जरूरी है, न ही नास्तिक होना। सच तो यह है कि जीवन का सार ही स्वयं के प्रति विश्वास है।

विश्वास का धरातल जीवन में सुरक्षा का भाव पैदा करता है। मन को वातावरण के प्रति आश्वस्त रखता है। एक सुख की अनुभूति होती है, तभी मन से मिठास झरता है। ममता, श्रद्धा, स्नेह, आदि का मुक्त प्रवाह प्रकट होता है। एक विश्वास ही तो होता है जिसके कारण जानवर हमसे जुड़ता है। घर में बंधे रहने को तैयार हो जाता है। अपनी स्वतंत्रता खोकर भी विश्वास पाना चाहता है। उसको कोई भाषा भी नहीं आती। एक नन्हे बालक की तरह वह हमारे मन को पढ़ लेता है। मन को किसी भाषा की जरूरत होती ही नहीं है। मौन ही उसका मिठास होता है। मिठास ही उसकी अभिव्यक्ति का लक्ष्य है। विश्वास की स्वयं की अपनी पकड़ मजबूत होती है। आप पालतू जानवर को छोड़ भी देंगे तो वह कहीं जाने वाला नहीं है। अगर वह चला गया तो इस बात का प्रमाण होगा कि वह आपका नहीं रहा। घर में रहते हुए भी वह आपसे जुड़ा नहीं था। एक भ्रम था कि वह हमारा है। जो भीतर से आपका है, वह आपको छोड़कर कहीं नहीं जाएगा। कहते हैं-विश्वास से पत्थर भी ईश्वर हो जाता है। विश्वास न हो तो इन्सान भी पत्थर दिखाई पड़ता है। विश्वास जबरदस्त तो है; किन्तु जबरदस्ती नहीं किया जा सकता।

आखिर यह विश्वास कहां से उठता है? क्यों इतने रूप धारण करता है? विश्वास का मूल रूप मन के साथ होता है। क्योंकि हम मन को ही ‘स्व’ की संज्ञा देकर जीते हैं। ‘स्व’ का यह विश्वास मन से उठता है। इसी से व्यक्ति स्वयं पर विश्वास करता है। अपनी अवधारणाओं और क्षमताओं पर विश्वास करता है। अपनी जीवन-यात्रा तय करता है। इसमें व्यक्ति का निजी जीवन, स्वजन और परिजन अधिक जुड़े होते हैं। व्यक्ति का धर्म और कर्म का स्वरूप जुड़ा रहता है। समय के साथ जब विश्वास पक्का होता जाता है, तब यह आस्था की ओर मुड़ता है। जीवन के प्रति प्रेम बढ़ता है। भक्ति भी प्रेम का ही पर्याय है। विश्वास एक बन्धन है। इसके सहारे की जाने वाली भक्ति भी एक बन्धन रूप दिखाई पड़ती है। कालान्तर में यही भक्ति व्यक्ति को मन के पार ले जाती है। कामनाओं से बाहर ले जाती है। मुक्त कर देती है। अत: विश्वास भी आसक्ति का एक पड़ाव होता है। भक्ति भी आसक्ति है और भक्ति ही आसक्ति का अन्तिम पड़ाव भी है। भक्ति में मन होता है। मुक्ति मन के पार है।

दूसरों पर विश्वास करने के हरेक के अपने-अपने कारण होते हैं। सम्बन्ध भी एक कारण है। स्वार्थ भी एक कारण है। समाज, धर्म, देश आदि भी कारण होते हैं। बिना कारण विश्वास नहीं हो पाता। यह स्वार्थ का बन्धन है। हानि-लाभ का बन्धन है। इसमें मन के स्थान पर बुद्धि का गणित अधिक प्रभावी रहता है। मन भीतर के विश्वास से जुड़ा होता है। बुद्धि बाहर के विश्वास से। बुद्धि में चूंकि अहंकार भी होता है, अत: विश्वास टूट जाने पर ठेस भी जोर की लगती है। सामने वाले का पक्ष और परिस्थितियां भी दिखाई नहीं पड़तीं। व्यक्ति एकाएक प्रतिहिंसा पर उतारू होता जान पड़ता है। अपना आक्रोश प्रकट करने लगता है। यदि व्यक्ति स्वयं को कमजोर पाता है तो अपनी खीज स्वयं पर ही निकालने लग जाता है। जीवन की अनेक बुरी आदतों को हम इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं।

मेरे पास एक महिला का फोन आया कि आत्मदाह कर रही हूं। मेरे बच्चों का ध्यान रखना। कारण? जिस व्यक्ति पर भरोसा किया था, वह सारा धन लेकर चला गया किसी दूसरी महिला के साथ। तब पहला प्रश्न मेरे दिमाग में यही आया कि क्या वह आदमी इसका था भी? इसने भी स्वार्थवश उसका साथ ही दिया था। यह भी अपने पति को छोड़कर आई थी। उसके भी पत्नी और बच्चे हैं। आज भी हैं। इनको केवल भ्रम था कि दोनों को एक-दूसरे पर पूरा विश्वास है। यह भ्रम बुद्धि के द्वारा पैदा किया गया भ्रम था। एक स्वार्थ ने दोनों को बांध रखा था। जो आपका नहीं है, वह लौटकर नहीं आएगा। उसके साथ रहते हुए यह बात समझ में आ जानी चाहिए। हम किसी का भाग्य नहीं बदल सकते। किसी के कर्म का फल नहीं दे सकते। यह विश्वास भी रखना चाहिए कि अपनी ही तरह दूसरे के जीवन को भी प्रकृति चलाती है। पिछले जन्मों के फल भी कीमत मांगते हैं। प्रतिहिंसा का लाभ नहीं मिल सकता। हमारी एक ही भूल होती है कि हम दूसरे के कार्यों पर ही आंख रखते हैं। अपनी भूमिका का चिन्तन नहीं करते। व्यक्ति अपने अलावा बाकी सबके कार्यों का आकलन बन्द कर दे तो जीवन कुछ और होगा।

दूसरे के आकलन में हम विश्वास ढूंढ़ते हैं। यह ढूंढ़ने की चीज नहीं है। अनुभूति की बात है। क्या हमारे व्यवहार की अनुभूति भी दूसरे के विश्वास लायक होती है? हम बाहर ही बाहर विश्वास को तलाशते हैं। वह तो हमारे भीतर है। वहां हम देखते ही नहीं। बाहर जो दिखाई देता है, वह तो हमारे कर्म का ही प्रतिबिम्ब है। जब कोई पति-पत्नी मेरे सामने विवाह-विच्छेद की बात करते हैं तो मैं एक ही बात कहता हूं, जब तुम्हारी शादी हुई थी तब तुम एक-दूसरे के लिए विश्व में सर्वश्रेष्ठ थे। आज सर्वथा निकृष्ट हो गए। किसके साथ रहकर हुए? यदि हम मन से विश्वास करें, बुद्धि को बीच में न आने दें, तब हमारा अपना विश्वास ही बड़ा होता है। उसी के सहारे हम किसी पर विश्वास करते हैं। केवल अपने बूते पर। विश्वास यदि टूटता है, तो उसमें कहीं न कहीं हम स्वयं ही दोषी होते हैं। किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करके प्रायश्चित कर लेना चाहिए ताकि हम तो सुधर जाएं। उस की वो जाने।

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