टॉपर लड़कियों : औरतों पर शादी चलाने की जिम्मेदारी है, देश कैसे चलाएंगीं ..?
टॉपर लड़कियों की कहानी बराबरी का पैमाना नहीं
मर्दों को लगता है, औरतों पर शादी चलाने की जिम्मेदारी है, देश कैसे चलाएंगीं
भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के नतीजों का जश्न हर ओर मनाया जा रहा है। स्त्री शक्ति के जयकारों से अखबारों के पन्ने से लेकर टीवी का प्राइम टाइम तक गूंज रहा है। टीवी पर समाचार देखते हुए लड़का-लड़की में भेद करने वाले मध्यवर्गीय पितागण भावुक हुए जा रहे हैं।
सोच रहे हैं कि मौका मिले तो लड़कियां क्या नहीं कर सकतीं, लेकिन ये सोचने के बाद भी मौका देने के नाम पर उन्हें मियादी बुखार जकड़ लेता है। चाहे घर में बीवी को मौका देना हो या दफ्तर में साथ की महिला सहकर्मी को। बेटी को लेकर थोड़े उदार जरूर हैं, लेकिन बस थोड़े ही।
इतनी ही मटियामेट, गड्डमड्ड सी है भारतीय मध्यवर्ग के पुरुषों की प्रगतिशीलता। रिजल्ट के दिन से उछालें मार रही है। कुछ दिन और रहेगा इसका जलवा।
फिलहाल तो आलम ये है, ‘हमारी बेटियां क्या बेटों से कम हैं’ वाला स्लोगन मुख्यधारा मीडिया की हेडलाइन बना हुआ है। टॉप रैंकिंग में ऊपर से गिनना शुरू करें तो पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी टॉपर लड़कियां हैं।
लड़के भी हैं, लेकिन उनका नंबर बाद में आता है। इन लड़कियों की कड़ी मेहनत की कहानियों और सफलता के जश्न से टेलीविजन और इंटरनेट भरा पड़ा है। चारों ओर खुशी का ऐसा शोर है कि इस शोर के पीछे पसरा सन्नाटा न सुनाई दे रहा है, न दिखाई।
अब जो हर साल लड़कियां आईएएस समेत हर बड़ी परीक्षा में बाजी मार ले जा रही हैं, लड़कियों की इस सफलता की कहानी सिर्फ 72 साल पुरानी है। लड़कों की सफलता की कहानी 165 साल पुरानी। सच कहें तो उससे भी कहीं ज्यादा पुरानी।
72 साल पहले की बात है। साल 1951। भारत के इतिहास में पहली बार इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज में एक लड़की का चयन हुआ। 24 साल की अन्ना राजम जॉर्ज। भारत की आजादी के चार साल बाद।
जब उन्हें पोस्टिंग देने की बात आई, तो यूपीएससी बोर्ड की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे अधिकारियों ने कहा कि विदेश सेवा में चली जाओ। वो लड़कियों के लिए ज्यादा मुफीद है। ये देश चलाना औरतों के बस की बात नहीं।
अन्ना अड़ी रहीं कि वो तो आईएएस ही बनेंगी। पहली पोस्टिंग हुई मद्रास। मुख्यमंत्री थे सी. राजगोपालाचारी। उन्हें भी एक औरत के साथ काम करना बड़ा नागवार सा गुजरा। जिस महिला अधिकारी को डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर बनाना था, उसे सेक्रेटेरियट में बैठा दिया।
देश मर्द चलाते थे और मर्दों को लगता था कि शादी चलाने से ज्यादा बड़ा काम और कुछ नहीं। तो जिस औरत के कंधों पर शादी चलाने की जिम्मेदारी हो, वो देश कैसे चला पाएगी।
फिलहाल यह श्रेय भी अन्ना राजम को ही जाता है। उन्होंने शादी तो की, लेकिन आईएएस का पद नहीं छोड़ा। उनकी लड़ाई की बदौलत नियम बदले और धीरे-धीरे महिलाएं और विवाहित महिलाएं भी इस नौकरी में अपनी जगह बनाने लगीं।
कहानी यह है कि इस देश की पहली महिला आईएएस ऑफिसर की कहानी इतनी सुनहरी भी नहीं, जितनी इतिहास की किताबों में पढ़ने में और दूर से सुनने में लगती है।
जिस लड़कियों की उपलब्धियों का हम आज जश्न मना रहे हैं, उनका रास्ता पिछली पीढ़ी की तमाम स्त्रियों की लंबी लड़ाई और संघर्ष से बना है। इस लड़ाई को आसान बनाने में पुरुषों का योगदान जरा कम ही है।
संविधान और कानून का योगदान जरूर है। कानून बदला, तभी औरतों को हर कॉलेज में मर्दों के बराबर एडमिशन लेने, पढ़ने का मौका मिला। कानून बदला, तभी औरतों को प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में बैठने का मौका मिला। संविधान ने कहा कि औरत और मर्द का अधिकार बराबर है, तभी कहीं जाकर यह सारे मौके स्त्रियों के हाथ लगे।
लेकिन मौके मिल जाने का अर्थ ये नहीं कि 72 साल में इन मौकों ने हजारों साल पुराने अन्याय और गैरबराबरी के इतिहास को मिटा दिया है। चंद टॉपर लड़कियों को छोड़ दें तो कहानी अब भी काफी निराश करने वाली ही है।
ये अशोका यूनिवर्सिटी का डेटा है। 1951 से लेकर 2020 तक 71 सालों में कुल 11,569 आईएएस अधिकारी हुए। अब पूछिए कि इन साढ़े 11 हजार अधिकारियों में महिलाएं कितनी थीं? सिर्फ 1527। कुल संख्या का महज 13 फीसदी।
यहां तक कि एक बार चयन हो जाने और अधिकारी बनने के बाद भी टॉप तक पहुंचने वालों में वो लड़की भी नहीं है, जिसने पूरे देश में टॉप किया था।
आपको क्या लगता है कि एक बार आईएएस-आईपीएस बन जाने के बाद लैंगिक भेदभाव, गैरबराबरी, पूर्वाग्रह सब खत्म हो जाते हैं। दफ्तर में और घर पर महिला अधिकारियों को जिस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है, उसकी सैकड़ों कहानियां तो अभी ढंग से दर्ज भी नहीं हुई हैं।
यूपी के मुजफ्फरनगर में सिविल ड्रेस में खड़ी एक महिला पुलिस अधिकारी के साथ सड़क पर कुछ शोहदों ने छेड़छाड़ कर दी और वह महिला उन शोहदों के खिलाफ केस नहीं कर पाई।
आलाकमान को फिक्र थी कि जब एक आईपीएस के साथ छेड़छाड़ की खबर पब्लिक होगी तो पुलिस की छवि पर बट्टा लग जाएगा। महिला अधिकारी की सुरक्षा और हर स्त्री की सुरक्षा के अधिकार से ज्यादा बड़ा था पुलिस की छवि का सवाल। यह खबर आपको इंटरनेट पर ढूंढने पर नहीं मिलेगी क्योंकि खबर तो यही है कि खबर बनी ही नहीं। खबर बनने दी नहीं गई।
इसलिए सवाल लड़कियों के टॉप कर जाने भर का नहीं है। सवाल ऊपर से लेकर नीचे तक फैली हुई उस पितृसत्ता की जड़ों का है, जो कभी अपने गिरेबान में झांककर नहीं देखती। कभी अपनी नीयत पर सवाल नहीं करती। सिर्फ चंद टॉपरों के सेलिब्रेशन को ही महिलाओं की आजादी का पोस्टर बनाकर हर गली-चौराहे पर चिपका देना चाहती है।
इस साल भी टॉप चार लड़कियां हैं, लेकिन कुल पास हुए लोगों में महिलाओं की संख्या एक तिहाई भी नहीं है। हर साल चार-छह टॉपरों की कहानी को लड़कियों की आजादी और बराबरी का मुकम्मल पैरामीटर मान लेना बिल्कुल वैसा ही है, जैसे किसी देश में महिला प्रधानमंत्री होने को उस देश की औरतों के विकास का प्रमाणपत्र समझ लेना।
यह परिणाम सिर्फ एक ही बात साबित करते हैं. वो ये कि सदियों से शिक्षा और ज्ञान से वंचित रखी गई, पीछे धकेली गई, अकेले छोड़ दी गई, सताई गई, ठुकराई कई लड़की को मर्दों के आधिपत्य और एकाधिकार वाली इस दुनिया से कोई दया-ममता नहीं चाहिए।
उसे चाहिए तो सिर्फ एक मौका। एक मौका बराबरी का, एक मौका इज्जत का, एक मौका अपनी काबिलियत, अपना हुनर दिखाने का। मर्दों को हजारों सालों से हजारों-हजार मौके मिलते चले आ रहे हैं, तब कहीं जाकर वो इस जगह पर पहुंचे हैं। औरतें तो हाशिए पर रहकर एक जरा से मौके की उंगली पकड़कर यहां तक पहुंच गई हैं।
कल्पना करिए कि अगर उन्हें शुरू से उड़ने के लिए उतना बड़ा आकाश मिला होता, जितना लड़कों को मिला है तो?