असंसदीय शब्दों के बहाने दबाई जा रही है आवाज ..!
वॉट्सएप्प वीडियोज़, यूट्यूब फीड्स, इंस्टाग्राम रील्स और विजुअल ट्वीट्स (माफ करें, X) के इस दौर में जनप्रतिनिधियों के द्वारा कही गई बातें तेजी से फैलती हैं। तब सांसदों के द्वारा सदन में कहे गए शब्दों को रिकॉर्ड्स से हटाने पर वे आंदोलित क्यों होते हैं? इसका कारण यह है कि इसके बाद वे संसदीय-कार्यवाहियों का हिस्सा नहीं रह जाते और यह एक बड़ा मसला है।
राज्यसभा और लोकसभा के नियम 261 और 380 यह अनुमति देते हैं कि असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड्स से हटा दिया जाए। लेकिन पिछले कुछ सालों में इन नियमों का इस्तेमाल उन कथनों को हटाने के लिए किया गया है, जो सत्तातंत्र के लिए असुविधाजनक हों।
विपक्ष की आवाज को दबाने की यह नीति मुझे एक पुराने गीत की याद दिलाती है- ‘परदे में रहने दो, परदा न उठाओ। परदा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा!’ 20 जुलाई को इस स्तम्भकार ने प्रधानमंत्री से पूछा था कि वे मणिपुर की परिस्थितियों पर कुछ बोलें। इस प्रश्न को संसद के रिकॉर्ड्स से हटा दिया गया।
अब पाठक स्वयं ही तय करें इसमें क्या असंसदीय था? संसद की कार्यवाहियों की अंदरूनी जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति आपको बता देगा कि अगर रिकॉर्ड से दस कथन हटाए जाते हैं तो उनमें से नौ विपक्षी सदस्यों के होते हैं।
मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, जयराम रमेश, महुआ मोइत्रा, शांतनु सेन, भगवंत मान, संजय सिंह, जॉन ब्रिटस, एमबी राजेश, बिनोय विश्वम्, वाइको, संजय राउत : अलग-अलग दलों के इन सब नेताओं में क्या समानता है? यह कि इन सभी के भाषणों के हिस्सों को संसद के रिकॉर्ड्स से हटा दिया गया है!
कुछ कथनों को अदाणी समूह पर हिंडनबर्ग रिसर्च से सम्बंधित होने के चलते हटाया गया। कुछ को सेंसरशिप और आपातकाल जैसे शब्दों का उपयोग करने पर। कुछ को प्रधानमंत्री की टिप्पणियों की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाने पर। कुछ को तो इसी के लिए हटा दिया गया, क्योंकि उनमें यह आपत्ति दर्ज कराई गई थी कि विपक्षी नेताओं को बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा है!
विदेश मंत्री की श्रीलंका यात्रा पर टिप्पणियों, स्वाधीनता संग्राम में संघ की भूमिका पर प्रश्न, आपराधिक प्रणाली बिल में पुलिस को अत्यधिक शक्तियां देने पर आपत्ति, दिल्ली दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका पर सवाल, किसानों को सब्सिडी देने और बजट में समायोजन के सुझावों : इन सब को रिकॉर्ड्स से हटा दिया गया है!
कई मामले तो ऐसे भी हैं, जिनमें संसद-सदस्यों को नोटिस तक नहीं दिया गया और उन्हें उस पर प्रतिक्रिया करने का अवसर नहीं मिला। सीताराम येचुरी ने इस पर आपत्ति लेते हुए कहा था कि मेरे भाषण के महत्वपूर्ण अंश को क्यों हटा दिया गया है? क्या केवल इसलिए, क्योंकि मैंने सत्तारूढ़ पार्टी की आलोचना की थी?
असंसदीय शब्दों की सूची वर्ष 1952 में ही जारी कर दी गई थी, जिसमें 163 शब्द थे। चूंकि इन शब्दों का संयोजन अल्फाबेटिकली किया गया था, इसलिए पहला शब्द था- एम्यूज़मेंट। इस शब्द में क्या असंसदीय है, मुझे नहीं पता। पिछले साल लोकसभा सचिवालय ने असंसदीय शब्दों की एक पुस्तिका जारी की थी, जो 50 पृष्ठों की थी।
इसमें अशेम्ड, एब्यूज्ड, बिट्रेड, करप्ट, ड्रामा, हिपोक्रेसी, इन्कम्पीटेंट जैसे शब्द शामिल थे। लॉलीपॉप को भी असंसदीय मानकर प्रतिबंधित किया गया है! सूची में हाल में जो शब्द जोड़े गए हैं, वो ऐसे हैं जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में प्रचुरता से उपयोग किया जाता है।
वास्तव में भाषणों से शब्दों को हटाने की गुंजाइशें बहुत हैं और इनका अनुचित इस्तेमाल सरकार की वैध आलोचना को चुप कराने के लिए किया जा रहा है। पिछले साल राज्यसभा सचिवालय ने सदन और विपक्ष के नेता की भूमिकाओं और व्हिप को प्रकाशित किया था।
इसमें 1969 की किताब ‘कैबिनेट गवर्नमेंट’ को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि ‘सरकार और मंत्रियों पर प्रहार विपक्ष का दायित्व है। इससे भ्रष्टाचार और कुप्रशासन पर अंकुश लगाया जाता है और अन्याय को टाला जाता है। यह सरकार की भूमिका से कम महत्वपूर्ण नहीं है।’ यहां हमें डॉ. आम्बेडकर के इन शब्दों को भी याद करना चाहिए कि संसद विपक्ष के लिए होती है।
पुनश्च : 1956 से संसद में गोडसे शब्द प्रतिबंधित था। 2015 में इसे बहाल कर दिया गया। कारण? क्योंकि हेमंत तुकाराम गोडसे नामक सांसद ने शिकायत की थी कि संसद के रिकॉर्ड्स से उनके सरनेम को हटा दिया जा रहा है। तब लोकसभा में सभापति द्वारा आदेश जारी किया गया कि गोडसे शब्द को केवल नाथूराम गोडसे के संदर्भ में ही असंसदीय माना जाए, अन्यथा नहीं!
अगर संसद के रिकॉर्ड्स से दस कथन हटाए जाते हैं तो उनमें से नौ विपक्षी सदस्यों के होते हैं। कई मामले तो ऐसे भी हैं, जिनमें सांसदों को नोटिस तक नहीं दिया गया और उन्हें उस पर प्रतिक्रिया करने का अवसर तक नहीं मिला।