बगावती सुर:चुनाव प्रत्याशियों के विरोध बगावती अब भाजपा में भी …
बगावती सुर:चुनाव प्रत्याशियों के विरोध की कांग्रेसी शैली अब भाजपा में भी …
कोई भी राजनीतिक दल जब बड़ा हो जाता है तो कांग्रेस शैली अपना लेता है। पहले चुनाव के टिकट बंटते थे तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बग़ावती सुर ज़्यादा सामने आते थे। अब भाजपा में भी यह दौर चल पड़ा है। मध्यप्रदेश में चुनाव के तीन महीने पहले भाजपा ने अपने 39 प्रत्याशी हाल में घोषित किए थे। अब टिकट बँटवारे को लेकर विरोध जताने वाले खड़े हो गए हैं। कोई घोषित प्रत्याशी का विरोध कर रहा है। कोई अपने लिए टिकट माँग रहा है। बाक़ायदा विरोध में रैली निकाली जा रही है। प्रदर्शन किए जा रहे हैं।
पार्टी को इसका कोई ख़ास नुक़सान होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि चुनाव को अभी तीन महीने बाक़ी हैं। इन तीन महीनों में रूठों को मनाने का काम बड़ी होशियारी से कर लिया जाएगा। जल्दी टिकट घोषित करने का यही फ़ायदा है। राजनीतिक दलों को भी और आम मतदाता को भी। मतदाता को इसलिए क्योंकि समय रहते वे अपने प्रत्याशी को अच्छी तरह परख सकते हैं। केवल एक पार्टी का मामला नहीं है ये। भाजपा ने जल्दी प्रत्याशी घोषित किए हैं तो अब कांग्रेस भी समय से पहले उम्मीदवार मैदान में उतार देगी। लोगों को दोनों दलों के प्रत्याशियों की तुलना करने का भी ठीक वक्त मिल जाएगा। तुलना ठीक कर ली तो अपने सही प्रतिनिधि का चयन करना आसान हो जाता है।
अगर यह परम्परा सभी दल अपना लें और केवल 39 नहीं बल्कि कम से कम पचास प्रतिशत प्रत्याशियों की घोषणा इतनी जल्दी कर दी जाए तो चुनाव प्रणाली में काफ़ी सुधार आ सकता है। एक तरह से विकल्पहीनता की जो समस्या ज़्यादातर चुनाव क्षेत्रों रहती है, वह दूर हो जाएगी। नामांकन की आख़िरी तारीख़ को प्रत्याशी घोषित करने से मतदाता को भी नुक़सान होता है। वह ठीक ढंग से अपने प्रतिनिधि को जान नहीं पाता और वोट फिर बिना सोचे- समझे देना पड़ता है।
बहरहाल, कांग्रेस की तरह भाजपा का यह स्वभाव तो नहीं ही है कि वह दबाव में आकर प्रत्याशियों को बदल दे। अक्सर, ऐसे मामलों में भाजपा के फ़ैसले अटल होते हैं। भले ही इसका नुक़सान ही पार्टी को क्यों न उठाना पड़े। ख़ैर, सबकी अपनी- अपनी नीति होती है। तमाम पार्टियाँ अपनी जगह इस मामले में सही भी होती हैं। विरोध करने से कुछ नहीं होता। कोई भी राजनीतिक दल उसी को टिकट देना चाहता है या देता है जो जीतने की ताक़त रखता हो। आख़िर सरकार के रहने या बनने का सवाल होता है। कोई कमजोर पर दांव क्यों लगाएगा भला!