पंजाब के लोग विदेश क्यों चले जाना चाहते हैं?

पंजाब के लोग विदेश क्यों चले जाना चाहते हैं?

इन दिनों नेटफ्लिक्स पर छह एपिसोड की एक सीरीज़ ‘कोहरा’ दिखाई जा रही है, जिसका मुख्य किरदार एक ऐसा वाक्य बोलता है, जो पंजाब के बारे में गहरी समझ और पूर्वाभास का परिचय देता है। ‘कोहरा’ का नायक पुलिस दारोगा बलबीर सिंह है, जिसका किरदार सुविंदर विकी ने निभाया है।

बलबीर सिंह हमेशा अपने साथ रहने वाले सहायक हवलदार अमरपाल गरुंडी से कहता है- ‘तेन्नु पता पंजाब दी ट्रेजेडी की ए? साड्डा मिट्टी पाओ अटीट्यूड। असी केस सोल्व नैयों करना। बस बंद करना ऐ!’ बेशक इसका संदर्भ भावनाओं, कई रंग की कामुकता, प्रवासी मसले आदि के जाल में बुरी तरह फंसे चार पंजाबी सिख परिवारों में हुई हत्याओं की गहरी जांच का है। बलबीर अपने बॉस की ओर से दिए जा रहे दबाव से परेशान है, जो चाहते हैं कि किसी कम संदिग्ध शख्स पर आरोप लगाकर मामले को निबटा दिया जाए, जबकि बलबीर का मानना है असली दोषी कहीं ऊपर के लोग हैं।

यह पंजाब के ‘पॉपुलर कल्चर’ का मौसम है। इस पर हाल में कई फिल्में और सीरीज़ आ चुकी हैं। ‘कोहरा’ इस लिहाज से ज्यादा पैनी है कि मैंने हाल में ऐसी शायद ही कोई किताब पढ़ी या फिल्म देखी है, जिसमें इस अहम सीमावर्ती राज्य के पिछले दो दशकों में हुए पतन के परिणामों पर इतनी समझदारी से नजर डाली गई हो।

‘कोहरा’ इस विषय पर इतने रचनात्मक रूप से नजर डालती है कि आप सोचने लगेंगे कि कुछ अहम फिल्मकारों ने ‘उड़ता पंजाब’ जैसी बकवास फिल्म क्यों बनाई। ‘कोहरा’ में भी ड्रग्स, हार्मोन्स, ऊंचे तबके, पितृसत्ता, स्त्री-द्वेष, अपराध की वही खिचड़ी है, लेकिन उसकी अति नहीं की गई है और न उतना शोर-शराबा है।

यह वास्तविकता के काफी करीब है और आपको सोचने पर मजबूर करती है- खासतौर से ऐसे समय में जब कि हम देख रहे हैं कि पंजाब में एक नई सरकार नए विचारों को आजमा रही है और प्रधानमंत्री अपने हर अहम भाषण में सिखों की ओर हाथ बढ़ा रहे हैं।

पंजाब के लिए चिंता की जा रही है, यह अच्छी बात है, लेकिन केवल हमदर्दी जताने, समर्थन जाहिर करने, 20 हजार और रोजगार देने, मुफ्त बिजली देने, सिख धर्म का गुणगान करने, लोगों को तीर्थ यात्राएं कराने के वादे करने आदि से ही बात नहीं बनने वाली है। इन सबका हश्र वही होगा, जिसे दारोगा बलबीर ने ‘मिट्टी पाओ…’ कहा है।

‘कोहरा’ की कहानी जिन तमाम त्रासदियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है, उनकी जड़ें पिछले करीब 25 साल में इस गौरवशाली राज्य के ठहराव और पतन में धंसी हैं। पंजाबियों को संकट से जूझना आता है। देश के बंटवारे के बाद और फिर 1993 में समाप्त हुए आतंक और उग्रवाद के दौर में उन्होंने यह साबित किया है। लेकिन इसके बाद यह प्रदेश रास्ता भटक गया।

1991 के बाद की औद्योगिक क्रांति का लाभ इसने नहीं उठाया। 1999-2000 तक प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से कभी भारत का नंबर वन, सबसे अमीर प्रदेश था। आज यह नंबर 13 या नंबर 12 पर आ गया है, अगर हम केवल उन राज्यों से इसकी तुलना करें, जिनका प्रादेशिक जीडीपी (जीएसडीपी) 1 ट्रिलियन रुपए से ज्यादा है।

तब गोवा छंट जाएगा, जो कि एक छोटा-सा राज्य है। प्रति व्यक्ति 1.69 लाख रुपए की वार्षिक आय के साथ पंजाब अपने दो सहोदरों हरियाणा (2.65 लाख रुपए) और हिमाचल प्रदेश (2.0 लाख रुपए) से काफी पीछे रह गया है। वैसे तेलंगाना 2.7 लाख रुपए के आंकड़े के साथ सबसे ऊपर है और इसके बाद कर्नाटक, हरियाणा, तमिलनाडु और गुजरात का नंबर आता है। इनमें से हरेक राज्य का न केवल शहरीकरण हुआ है बल्कि उन्होंने ऐसे बड़े शहरी केंद्र बनाए हैं, जो नई अर्थव्यवस्था के उद्योगों को आकर्षित करते हैं।

यही कहानी 2011-12 से 2021-22 के बीच जीडीपी वृद्धि दरों की है। एक ट्रिलियन से ज्यादा की अर्थव्यवस्था वाले 21 बड़े राज्यों में पंजाब 5 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर के साथ नीचे से छठे नंबर पर है। इसी दशक में गुजरात 8.4 फीसदी के आंकड़े के साथ सबसे ऊपर था, जबकि कर्नाटक (7.3 फीसदी) दूसरे नंबर पर और हरियाणा (6.7 फीसदी) तीसरे नंबर पर थे।

यही नहीं, ‘बीमारू’ के ठप्पे वाला मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर आ गया था और सांसें थाम लीजिए, पंजाब वृद्धि दर के चार्ट में उसी स्तर पर था, जिस स्तर पर बिहार था! पंजाब कृषि में ही अटका रहा है। यह मूलतः ग्रामीण प्रदेश है। यश चोपड़ा की फिल्मों में दिखाए जाने वाले सरसों के पीले फूलों से गुलजार रोमैंटिक खेतों, संगीत और ‘अपने पास है तो क्यों न दिखाएं’ वाले बेबाक अंदाज के ‘पॉप कल्चर’ के बावजूद यह हकीकत नहीं बदलती कि पंजाब अपनी पुरानी शान को ही जी रहा और तेजी से पतनशील प्रदेश बन गया है।

और कुछ नहीं, तो वह अपने जिस गौरव और आत्मसम्मान का अक्सर बड़ी गहराई से और बढ़-चढ़ कर बखान करता रहा है उन्हें वास्तविकता की क्रूर मार झेलनी पड़ रही है। यही वजह है कि एक ओर राज्य ड्रग्स के जाल में फंस गया है, तो दूसरी ओर विदेश में बसने के पागलपन में उलझ गया है।

मैनुफैक्चरिंग हो या सर्विसेज सेक्टर, यहां तक कि ज्यादा रोजगार देने वाले सिले-सिलाए कपड़ों और होजयरी जैसे उद्योग या तो आगे नहीं आए या उनमें गिरावट आई। पंजाब की जीडीपी में अब कृषि का हिस्सा 30 फीसदी हो गया है, जो कि राजस्थान के इस आंकड़े के बराबर है और मध्य प्रदेश (44 फीसदी) और आंध्र प्रदेश (36 फीसदी) के आंकड़ों से नीचे है। पंजाब और इन सभी राज्यों में एक समानता है। इन सबने भी निवेश, प्रतिभा और ग्रोथ को आकर्षित करने के नए शहरी केंद्र नहीं बनाए।कृषि सुधारों की सबसे ज्यादा जरूरत पंजाब को थी…

पंजाब हरित क्रांति का अगुआ था और उसे कृषि सुधारों की जितनी जरूरत है, उतनी दूसरे किसी राज्य को नहीं। फिर भी उसने नए कानूनों का विरोध किया। यह विभाजित सियासत, हताशा और पूरा जोर परदेश-गमन पर देने का नतीजा था।

कृषि सुधारों की सबसे ज्यादा जरूरत पंजाब को थी…
पंजाब हरित क्रांति का अगुआ था और उसे कृषि सुधारों की जितनी जरूरत है, उतनी दूसरे किसी राज्य को नहीं। फिर भी उसने नए कानूनों का विरोध किया। यह विभाजित सियासत, हताशा और पूरा जोर परदेश-गमन पर देने का नतीजा था।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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