पर्यावरण के मामले में अदालतों का रुख अच्छी पहल है !

पर्यावरण के मामले में अदालतों का रुख अच्छी पहल है …

हम सबने अपने स्वार्थ के लिए तमाम संसाधन-सुविधाएं जुटाईं, इसलिए यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हम सब कहीं ना कहीं प्रकृति और पर्यावरण के दोषी हैं। अब समस्या तो आ चुकी पर समाधान के रास्ते निकालने पड़ेंगे।कुछ समय से दुनियाभर में लगातार एक पहल हुई है।

वो इस रूप में कि लोगों ने अंततः सरकारों से बहस और बातचीत के अलावा पर्यावरण के मुद्दे पर अदालतों का भी रुख किया है। एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि पिछले वर्ष पर्यावरण से जुड़े करीब 2180 मुकदमे दुनिया की अदालतों में पहुंचे हैं। वर्ष 2017 में पर्यावरण मामलों में अदालत में पहुंची अपीलों की संख्या मात्र 1884 थी।

सबसे अद्भुत बात यह है कि इनमें 34 मुकदमे बच्चों या 25 साल से कम उम्र के लोगों द्वारा किए गए हैं। भारत में भी बच्चों ने पर्यावरण चिंताओं के प्रति अदालत का रुख किया है। अब विकासशील देश और छोटे-छोटे द्वीपों से भी मुकदमे दुनिया की सर्वोच्च अदालतों में भी जाने लगे हैं।

इससे दुनिया में एक अपील भी जगह बना रही है कि बदलते पर्यावरण से पृथ्वी संकट में है और उसको बचाने का रास्ता अदालतें भी हो सकती हैं। इससे लगता है कि लोगों ने यह सब कुछ गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के अनुसार 2018 में नीदरलैंड, आयरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, भारत, कोलंबिया और नेपाल की अदालतों ने भी किसी न किसी रूप में सरकारों को चेताने की कोशिश की है।

उदाहरण के लिए हिमालय की ओर से तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हमेशा ग्रीन ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया है। इतना ही नहीं उत्तराखंड हाई कोर्ट में पर्यावरण प्रकृति और हिमालय के संरक्षण को लेकर लगातार लोगों ने अदालत से अनुरोध किया है कि वह इन पर हस्तक्षेप करें ताकि हिमालय को बचाया जा सके।

भारत में यह बात ज्यादा गंभीरता से ली जाती है। चाहे नदियों के संरक्षण से जुड़े मुद्दे हों, खनिजों से संबंधित हों या फिर वनों की कटाई को लेकर। अदालतों में इस तरह के मुद्दों पर बहस के बाद कई विकल्प और समाधान भी सामने आए हैं।

वो चाहे सड़क बनने की बात हो या बांधों से जुड़े मुद्दे हो या कोई अन्य कार्य जिनसे सीधे प्रकृति प्रभावित होती हो। अन्य अदालत के अलावा देश में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसके प्रति बहुत ज्यादा गंभीरता दिखाई है। इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण दिल्ली है, जिसके वायु प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसले देकर सरकारों को चेताया।

अब असल में बहस यहां पर आकर थम जाती है कि अदालतों के फैसलों को सरकारें कितना लागू करती हैं या ऐसे फैसले सरकारों को अपनी सहूलियत के अनुसार कितने प्रभावी लगते हैं। यह भी देखने में आया है कि अदालतों के कई फैसले अनदेखे किए गए हैं या नकार दिए गए हैं।

ऐसे में अदालतों की भूमिका जहां महत्वपूर्ण तो है ही, लेकिन अदालतों के साथ आम आदमी को भी जुड़ना होगा। क्योंकि अंततः सवाल वहीं पर आकर अटक जाता है कि जब तक ये मुद्दे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीति का हिस्सा नहीं बनेंगे, तब तक शायद हम प्रभावी कदम उठा नहीं पाएंगे।

उदाहरण के लिए चुनाव में कभी भी पर्यावरण-प्रकृति मुद्दा बना ही नहीं है। इसलिए जरूरी हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस पर ज्यादा बहस हो और दुनिया का हर व्यक्ति इन मुद्दों की तरफ उन्मुख हो। यह तभी होगा जब हम प्रकृति की आवाज बनें वरना मूक प्रकृति के अदालती फैसले आखिरी सुनवाई भी नहीं होने देंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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