हिजड़ों को पैदा कौन करता है? गौरी सावंत की रियल लाइफ …
हिजड़ों को पैदा कौन करता है? भाई ने मांगी फांसी, रील से कहीं अधिक दर्दनाक है गौरी सावंत की रियल लाइफ स्टोरी
ट्रांसजेंडर सोशल वर्कर गौरी सावंत की जिंदगी पर बनी वेब सीरीज ताली हाल ही में ओटीटी पर रिलीज हुई है। यहां पढ़िए ट्रांसजेंडर के अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ने वाली गौरी की जिंदगी की पूरी कहानी…
”मैं गौरी… श्री गौरी सावंत! वही जिसे कोई हिजड़ा कहता है तो कोई सोशल वर्कर। कोई नौटंकी बुलाता है तो कोई गेम चेंजर, पर इस दुनिया में ऐसा भी कोई है, जो मुझे मां बुलाता है। ये कहानी मेरे इसी सफर की है… गाली से ताली तक की। आइए, आपको भी सुनाती हूं, क्योंकि ये गौरी भी कभी गणेश था और लाइफ में क्या बनना है, इसका एक ही जवाब था उसके पास- मां…”,
हाल ही में रिलीज हुई वेब सीरीज ‘ताली:बजाऊंगी नहीं, बजवाऊंगी’ ट्रांसजेंडर सोशल वर्कर श्री गौरी सावंत की जिंदगी का इंट्रो है।
‘ताली’ सीरीज रिलीज होने के बाद क्या बदला? इसके जवाब में गौरी सावंत कहती हैं, सुष्मिता सेन ने जिस तरह मेरे किरदार को जिया और लोगों ने जिस तरीके से मुझे सराहा है, इससे बिल्कुल वैसी ही राहत मिली है जैसे- तपते पैरों को ठंडा रेत मिला हो।
पहले दिन भर में अगर 50 कॉल आते थे तो अब 150 आने लगे हैं। लोग ट्रांसजेंडर्स को समझने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे- पहले लोगों को पता ही नहीं था कि हिजड़ों को पैदा कौन करता है।
गौरी कहती हैं कि सीरीज में जो देखा आपने, वो मेरी कहानी का सिर्फ ट्रेलर है, जबकि वास्तविकता में इससे कई गुना ज्यादा जिल्लत-नफरत और धोखे मिले हैं। अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। बस उम्मीद करती हूं- इस सीरीज से लोग समझेंगे कि ट्रांसजेंडर्स की वास्तविक जिंदगी कैसी होती है।
लोगों को हमारे समुदाय को देखने का नजरिया बदले। सकारात्मक बदलाव आएगा। हम भी नॉर्मल घर में पैदा होते हैं, किसी दूसरे ग्रह से नहीं आते हैं। एलियन नहीं हैं। ट्रांसजेंडर को बराबरी का मान-सम्मान और काम मिलना चाहिए।
यहां, पढ़िए एक बेटी की मां और बहुत सारे बच्चों की आजी गौरी सावंत की कहानी, उन्हीं की जुबानी…
पुणे के एक मराठी परिवार में 2 जुलाई, 1979 को मेरा जन्म हुआ। पापा पुलिस में थे और मां हाउसवाइफ। मेरे जन्म के समय डॉक्टर ने कहा था- ‘सावंत सर बधाई हो, बेटा हुआ है।’ एक बेटी के बाद बेटा पैदा हुआ था, इसलिए मां-पापा बहुत खुश थे।
पापा ने पूरे अस्पताल में मिठाइयां बंटवाईं, बिल्कुल वैसे जैसे किसी राजा को खुशखबरी सुनाई जाती है तो वो खुशी में अपने गहने-तलवार खुशखबरी सुनाने वाले को दे देता है। बाकी बच्चों की तरह मेरे जन्म पर उत्सव मना। सौहर गाई गईं। मां-पापा ने खूब सोच-विचार कर बड़े प्यार से मेरा नाम- गणेश नंदन रखा था।
घर में बहुत लाड-प्यार मिलता। मेरी हर एक फरमाइश पूरी की जाती। मेरी छोटी-छोटी खुशियों, पसंद और नापसंद का पूरा ख्याल रखा जाता। पापा बाइक पर बिठाकर घुमाने ले जाते, लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई, वैसे-वैसे मैं उनके लिए शर्मिंदगी का कारण बनती गई। मां बहुत प्यार करती थी, लेकिन जब मैं सात साल की थी, तभी मां दुनिया छोड़कर चली गईं।
उम्र बढ़ रही थी, अपनापन घट रहा था…
मां के बाद नानी (आजी) ने पाला। मुझे नानी की साड़ियां पहनना, सजना-संवरना अच्छा लगता था। सात-आठ साल की उम्र में मैं लड़कियों संग खेलती। उनके संग ही बातें करती। स्कूल में बच्चे मेरा मजाक बनाते। मुझ पर भद्दे-भद्दे ताने कसते। जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही थी, पापा ने भी सख्ती बरतनी शुरू कर दी थी। मैंने पापा को अपनी फीलिंग्स समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उन्होंने डांटा-पीटा और बात करना छोड़ दिया।
जब कॉलेज में पहुंची तो मैं लड़कों के प्रति आकर्षित होने लगी। मैंने अपने परिवार को हर तरह से अपनी सेक्शुअलिटी के बारे में समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी भी स्वीकार नहीं किया।
मैं परिवार और पिता के लिए शर्मिंदगी का कारण बनना नहीं चाहती थी, इसलिए महज 16 साल की उम्र में 60 रुपए लेकर घर से निकल गई। उसके बाद पापा को कभी नहीं देखा। आजी से कभी नहीं मिली।
पुणे से मुंबई आ गई। उस वक्त यहां न खाने को खाना, न रहने को घर और न ही कहने को कोई अपना था। भूख से जान जा रही थी। सिद्धिविनायक मंदिर पहुंची तो वहां लड्डू बंट रहे थे। लाइन में लग लड्डू लिया और खाने लगी, उस वक्त मैं सारी तकलीफ भूल गई थी। दूसरी बार लड्डू लिया, लेकिन तीसरी लेने गई तो उन्होंने भी भगा दिया। स्टेशन पर ही सो गई।
पांच रुपये के नोट ने दिखाई राह
अगले दिन मैले से कपड़ों में एक सिग्नल के पास भीख मांगने के लिए खड़ी थी, तभी किसी ने पांच रुपये का फटा नोट मेरी हथेली पर रख दिया। वो चला गया और मैं उस नोट को देर तक उलट-पुलट कर देखती रही।
फिर फैसला किया- हां, मुझे लड़की बनकर ही जीना है। साड़ी पहननी है, गहने भी पहनने हैं, मेकअप कर सजना-संवरना है, लेकिन भीख नहीं मांगनी है और न ही गंदा काम करूंगी। मुझे मेहनत की कमाई खानी है और सम्मान की जिंदगी जीनी है। इसके बाद, मुंबई के दादर में ही ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के साथ रहने लगी।
हमेशा के लिए बन गई गणेश से गौरी…
हर दिन पेट भरने के लिए चार पैसा कमाने के लिए जुगत भिड़ाती। गुरु से बात की तो उन्होंने मुझे काम करने की इजाजत दे दी। ग्रेजुएशन तक पढ़ी-लिखी थी, इसलिए ‘हमसफर’ ट्रस्ट के साथ जुड़कर किन्नरों और देह व्यापार से जुड़ी महिलाओं के हित में काम करने लगी। यहां से जो पैसे मिलते, उससे आगे की पढ़ाई पूरी की।
इसी ट्रस्ट की मदद से खुद की वेजिनोप्लास्टी सर्जरी करवाई और हमेशा के लिए गणेश नंदन से गौरी सावंत बन गई। साल 2000 में ‘सखी चार चौघी’ नाम से एक संस्था बनाई, जिसके जरिये किन्नरों के हित के लिए काम करना शुरू कर दियाा।
‘उस दिन समझ आया- मैं कितनी मशीनी इंसान बन गई’
साल 2006 की बात है। मेरा एक चेला दौड़ता हुआ आया और बोला- अम्मा, तुमको याद है, पांच साल पहले एक महिला तुमसे अचार मांगने आई थी, उसकी HIV से मौत हो गई। दरअसल, पांच साल पहले एक बंगाली महिला मुझसे अचार मांगने आई थी, मैंने उसे नींबू का अचार दिया और उसने बदले में स्माइल। वो चली गई और मैं भूल गई।
परिवार और समाज के लोग गले नहीं लगाते। बीमार होने पर भी डॉक्टर हाथ नहीं लगाता। रेस्टोरेंट वाले अंदर बैठकर खाना नहीं खाने देते। समाज से मिली दुत्कार और अपनों के धोखे ने मुझे इस कदर मशीनी इंसान बना दिया कि मैंने जवाब में कहा- ठीक है, यहां हर दिन कोई न कोई मरता ही है।
यह सुनते ही मैं दौड़कर उस महिला के घर पहुंची। छोटा-सा कमरा, जिसमें अस्त-व्यस्त सामान और बिस्तर पर पड़ी लाश। सीलन की बदबू से दम घुट रहा था। वहीं पास में डरी सहमी एक मासूम जान खड़ी थी।
पास में ही दो-तीन दबंग से आदमी खड़े थे, चिल्ला रहे थे। उनका कहना था कि इस महिला ने उनसे दो लाख रुपये लिए थे, जिन्हें लौटाया नहीं है। वे बच्ची को ले जाएंगे और सोनागाछी में बेचकर पैसे वसूल करेंगे।
इस घटना ने बदला जीवन
उनकी बात सुनकर मेरे अंदर की औरत अंदर से हिल गई। मैं मन ही मन गालियां देते हुए बुदबुदाई- नहीं! बच्ची ने क्या गुनाह किया है, जो इसे नरक में धकेला जाएगा। मैंने तुरंत बच्ची का हाथ पकड़ा और उसे अपने पास खींच लिया।
फिर उन लोगों से कहा- इस महिला ने मुझसे भी पांच लाख रुपए लिए थे, जो नहीं लौटाए हैं। इसलिए इस बच्ची पर पहला अधिकार मेरा है। मैं तुम्हें तुम्हारे दो लाख रुपए दे दूंगी।
बच्ची को गोद में उठाया और अपने घर ले आई। देखते ही मेरे गुरु ने कहा- काहे गौरी, कभी कुत्ता लाती है तो कभी बिल्ली और आज इंसान का बच्चा ले आई। सुनकर लगा जैसे किसी ने तमाचा जड़ दिया हो। इंसान का बच्चा, क्या हम इंसान नहीं हैं! खैर, जहां मैं रहती थी, वहां मेरा गुरु भाई शराब पी रहा था। कुछ लोग सो रहे थे। समझ नहीं आया कि बच्ची को कहां सुलाऊं।
उस रात मुझमें मातृत्व का जन्म हुआ
बच्ची को अपने ही पलंग पर सुला लिया। मुझे किसी के साथ सोने की आदत नहीं थी। इसलिए बहुत देर तक नींद नहीं आई। कभी बच्ची कंबल खींचती तो कभी मैं कंबल खींचती। उस वक्त मैं बुरी तरह झुंझला रही थी कि मैंने क्या मुसीबत अपने सिर ले ली।
रात के ढाई बजे होंगे, बच्ची ने मेरे पेट पर हाथ रखा और मुझसे चिपक गई। उस वक्त मुझमें मां वाला अहसास जागा। लगा जैसे- अभी-अभी मुझमें मातृत्व की डिलीवरी हुई। मैं मां बनी हूं।
उसके बाद से वह हर रात मुझसे चिपक कर सोती। हर दिन जागते ही गले से झूल जाती। मेरा हाथ पकड़कर सड़क पार करती। मैंने अपनी बेटी का नाम गायत्री रखा, उसे अपना नाम देने के लिए भी मुझे जंग लड़नी पड़ी, क्योंकि ट्रांसजेंडर्स को बच्चा अडॉप्ट करने का अधिकार नहीं था।
आज मैं गायत्री की आधिकारिक मां हूं। 25 साल की गायत्री अभी अमेरिका में डेंटिस्ट बनने के लिए पढ़ाई कर रही है।
अधिकारों की लड़ाई का ख्याल कैसे आया?
जवाब में गौरी कहती हैं- मेरी एक ट्रांसजेंडर दोस्त ने खुदकुशी कर ली तो उसकी लाश वॉशरूम के बाहर जमीन पर फेंक दी। न कोई सुविधा मिलती और न सरकारी योजनाओं का लाभ।
तब लगा कि संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है- ‘हम भारत के लोग’…उसमें कहीं भी महिला या पुरुष नहीं लिखा है तो फिर ट्रांसजेंडर्स से इतना दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों, हम लोगों को कोई अधिकार क्यों नहीं?
जब आपको कृष्ण का मोहिनी अवतार भाता है। अर्जुन का शिखंडी भी जमता है, स्वामी समर्थ के अन्नपूर्णा रूप से भी कोई दिक्कत नहीं है तो फिर मुझे स्वीकार क्यों नहीं किया जा रहा है… बस यही बात हर वक्त मुझे कचोटने लगी। इसके बाद, साल 2009 में मैंने किन्नरों को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए अदालत में एक याचिका लगाई थी।
ट्रांसजेंडर्स को कब मिले अधिकार?
‘नाज फाउंडेशन’ ने मेरी अधिकार देने की लड़ाई को आगे बढ़ाया। फिर नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ने इसे जनहित याचिका का रूप दिया। अदालत में पांच साल तक बहस हुई।
तारीख पर तारीख मिलती रही… और फिर साल 2014 में वो दिन आया, जब सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर को कानूनी मान्यता दी। हमको भी वोट डालने का अधिकार मिला। हमारा भी आधार कार्ड बना। मृत्यु प्रमाण पत्र बनने की अनुमति मिली।
‘आजी का घर’ बनाने का कब सोचा?
गौरी लंबी गहरी सांस लेती हैं और फिर कहती हैं कि इसके पीछे भी एक कहानी है। बात उन दिनों की है, जब मैं संयुक्त राष्ट्र और भारत सरकार के लिए काम करने वाली एक संस्था से जुड़कर HIV रोकथाम जागरूक अभियान पर काम कर रही थी। काम के सिलसिले में एक रोज मेरा मुंबई के कमाठीपुरा जाना हुआ।
वहां माचिसनुमा कमरों में मैंने महिलाओं को जिस्म का सौदा करते देखा। 24 साल की महिला को चार महीने की बच्ची को पास लिटाकर धंधा करते देखा। उस घटना ने मुझे झकझोर दिया। रात भर सो नहीं पाई, तब समझ आया कि अगर कामकाजी महिला काम पर जाती है तो उसके बच्चे को परिवार के सदस्य संभालते हैं, लेकिन इनके बच्चों को कौन संभालेगा, इनका अपना है ही कौन!
आज हूं कई बच्चों की नानी
बस तभी सोच लिया कि अब इनका परिवार मैं बनूंगी। इसके बाद मैंने ‘आजी का घर’ नाम से एक ट्रस्ट बनाया। बाद में इसका नाम बदलकर बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन ने ‘नानी का घर’ कर दिया। यहां मैं देह व्यापार से जुड़ी महिलाओं के बच्चों को रखती हूं। उन्हें नहलाती हूं, खिलाती-पिलाती हूं। स्कूल भेजती हूं ताकि किसी भी देह व्यापार से जुड़ी महिला के बच्चे को मजबूरन गंदा काम न करना पड़े।
मेरे इस काम को पहचान मिली। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ सीजन-9 में मुझे बुलाया गया था, जहां मैंने 25 लाख रुपये जीते थे। कुछ लोगों के समर्थन और केबीसी में मिली धनराशि से मैं इन बच्चों के सिर पर छत देने में कामयाब हुई। हाल ही में बतौर रॉयल्टी, मुझे मेकर्स ने सीरीज के लिए कुछ पैसे दिए हैं, जिसका इस्तेमाल मैंने अपनी संस्था के डोनेशन के लिए किया है।
असल जिंदगी में अभी संघर्ष बाकी है…
मेरी जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव आए। पहचान भी मिली, लेकिन मेरे अपनों ने कभी मेरा हाल जानने की कोशिश नहीं की। पिता नहीं रहे तो भाई-बहनों ने खबर तक नहीं दी। पिता ने जीते जी अंतिम संस्कार कर दिया था।
जब मैंने अपनों बच्चों की खातिर पैतृक संपत्ति में हिस्सा मांगा तो मेरे भाई दिनेश सावंत ने मुंबई के फैमिली कोर्ट में याचिका दायर कर मुझे फांसी देने की मांग की। भाई ने मुझ पर नकली ट्रांसजेंडर होने और परिवार को बदनाम करने का आरोप लगाया।
अगर वो मांगता तो खुशी-खुशी सब छोड़ देती, लेकिन यहां बात सिर्फ प्रॉपर्टी की नहीं, बल्कि हक की है। उसने मेरे वजूद को ही खारिज कर दिया। आप ही बताइए, अब कितनी और लड़ाई लड़ना बाकी है। 28 जुलाई को मैंने अपने बड़े भाई के खिलाफ केस किया है।
मैंने सारे सबूत दे दिए, डीएनए टेस्ट की मांग कर रही हूं, इससे ज्यादा क्या करूं? ऐसा लग रहा है कि मेरे संघर्ष खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैंं।
क्या कभी किसी से प्यार नहीं हुआ?
गौरी सावंत बड़े ही सपाट लहजे में जवाब देती हैं- बारिश में जिनके पास छाता नहीं होता है, वे भीगने से बचने के लिए दीवार के सहारे खड़े जरूर हो जाते हैं, लेकिन उस दीवार को ही अपना बसेरा नहीं बनाते हैं। बस ऐसी ही है हमारी जिंदगी।