पुरुषों को भी ‘पैटर्निटी लीव’ क्यों नहीं मिल सकती?
अपने मां-पिता के समर्थन, मदद के लिए तैयार अनुभवी दोस्तों और पैरेंटिंग या मदरहुड पर पढ़ी तमाम किताबों और तैयारियों के बावजूद मुझे ऐसा महसूस हुआ था, जैसे मैं अकेली पड़ गई हूं। मेरा शरीर बहुत कमजोर हो गया था और मेरा मनोबल पस्त था। तब मैं अकसर रो पड़ती थी।
इस अवस्था को ‘पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन’ कहते हैं, जब संतान के जन्म के कई हफ्तों तक अनेक मांएं शारीरिक और मानसिक रूप से निष्कवच अवस्था में रहती हैं। उस समय मुझे अपनी बेटी के पिता के साथ की सख्त जरूरत थी। और कुछ नहीं तो कम से कम भावनात्मक सहयोग के लिए ही सही।
मैं आपसे पूछती हूं, एक संतान की उत्पत्ति के लिए कितने लोगों की जरूरत होती है? दो, है ना? मां और पिता। लेकिन बच्चे को बड़ा करने के लिए कितने लोगों की जरूरत होती है? केवल एक, यानी उसकी मां? ऐसा नहीं है, लेकिन बहुत सारे लोगों को यही लगता है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर स्त्रियां समान वेतन की मांग कर सकती हैं तो पुरुष क्यों नहीं पैटर्निटी लीव ले सकते?
फिर क्या कारण है कि जब जसप्रीत बुमराह अपने बच्चे के जन्म पर घर चले गए तो उस पर बखेड़ा खड़ा किया गया? क्या एक खेल परिवार से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है? क्या क्रिकेटरों का क्रिकेट के बाहर कोई जीवन नहीं होता? क्या पुरुष इक्वल-पैरेंट नहीं हो सकते?
मुझे याद है जब एक फर्स्ट-टाइम मदर के रूप में लगभग विचलित मनोदशा में मैंने अपनी बेटी के पीडियाट्रिशियन को फोन लगाया था तो उन्होंने बहुत सीधी-सी समझाइश दी थी : ‘सुपर मॉम के लिए कोई पुरस्कार नहीं दिया जाता है, इसके बावजूद अपना सर्वश्रेष्ठ दो और बाकी की बातें भूल जाओ!’ उनकी बात सही थी।
प्रेग्नेंसी की चुनौतियां कम नहीं थीं- जैसे अत्यंत तीव्र नॉसिया (मितली या उबकाई) के कारण दस दिनों तक मेरी आवाज चली जाना या हेमोरॉइड्स की सघन पीड़ा। फिर लेबर पेन- जिसके दौरान मुझे महसूस हुआ जैसे मेरे शरीर को बीच में से चीर दिया गया हो। उसके बाद मातृत्व की वो दशा जिसमें अनिद्रा इतनी थी कि कुछ देर को आंखें मूंद लेना भी एक छोटी-सी झपकी लेने जैसा लगने लगा था।
अंतत: बच्चे को दूध पिलाना- जिसे मैं अपने जीवन का ‘अडर फ़ेज़’ कहती हूं। पहली बार मां बनना आसान नहीं है। ऐसे में जब बच्चे के पिता यानी संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया के बुनियादी साझेदार को ही आपसे दूर कर दिया जाए और मां अकेली छूट जाए तो चीजें और जटिल व कष्टप्रद हो जाती हैं। यह बच्चे के लिए भी आदर्श स्थिति नहीं।
इसके बावजूद सदियों से औरतें इस तरह से जी रही हैं, मानो उन्हें न केवल मां बल्कि परफेक्ट-मॉम बनने के लिए ही प्रोग्राम्ड किया गया हो। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे इस सबको अकेले ही मैनेज करेंगी। हमारी सांस्कृतिक कंडीशनिंग कुछ इस प्रकार की है कि उसमें स्त्री होने को मां बनने से जोड़ दिया गया है और महिलाओं को चलते-फिरते गर्भ की तरह परिभाषित किया जाता है। कोई मां अच्छी साबित हो तो वह उससे अपेक्षित समझा जाता है, लेकिन बुरी साबित हो तो उसे दुष्ट करार दे दिया जाता है।
लेकिन अच्छे पिता बनने के आकांक्षी पुरुषों के बारे में क्या? उनके लिए यहां पर कहां स्पेस है? हमें इस स्पेक्ट्रम के दोनों छोर को जोड़ना होगा। जैसे स्त्री केवल बच्चे पैदा करने के लिए नहीं होती, उसी तरह पुरुषों की भूमिका भी केवल चेक-बुक होने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। वास्तव में आज के समय में पुरुष होने की परिभाषा ही यही है कि वह इस जेंडर के आसपास निर्मित किए गए तमाम स्टीरियोटाइप्स को ताक पर रख सके।
जब महिलाओं के लिए पैरेंटल सपोर्ट पॉलिसी अस्तित्व में आ सकती है तो पुरुषों के लिए क्यों नहीं? पुरुषों को भी चाइल्डबर्थ और पैरेंटिंग की प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा बनना चाहिए। तभी हम खुश और स्वस्थ परिवार बना सकेंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)