सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नया अंतरजातीय संघर्ष शुरू होगा..!
सब कोटा: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नया अंतरजातीय संघर्ष शुरू होगा..!
दूसरे शब्दों में कहें तो आरक्षण का लाभ उठाकर आर्थिक व सामाजिक बेहतरी हासिल करने वाला एक नए किस्म का ‘ब्राह्मणवाद’ इन जाति वर्गों में भी आकार लेने लगा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सामाजिक न्याय के इसी आलोक में देखा जाना चाहिए, क्योंकि आरक्षित वर्ग के भीतर ही हितों के इस टकराव को लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद राज्य अपने यहां आरक्षित श्रेणियों में अधिक लाभान्वित और कम लाभान्वित जातियों का वर्गीकरण कर सकेंगे। हालांकि यह काम बहुत सावधानी और पारदर्शिता से करना होगा। इसके लिए सही आंकड़े जुटाने होंगे। केवल वोटों की गोलबंदी के बजाए आरक्षण के समान वितरण की समुचित प्रक्रिया अपनानी होगी।
इस फैसले का विरोध जिन हल्कों से हो रहा है अथवा होगा, वे मुख्यत: वो जातियां हैं, जिन्हें आरक्षण का तुलनात्मक रूप से ज्यादा लाभ मिला है। कई जगह तो यह अब पीढ़ीगत रूप में भी बदल गया है।
दरअसल ‘ब्राह्मणवाद’ का सबसे बड़ा दोष भी उसका जन्मगत् होना ही है। पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण ने भी इसी प्रवृत्ति को आरक्षित वर्ग में पनपाया है। आरक्षण की सुविधा ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ में बदलने लगी है। हालांकि, इस मान्यता के विरोधी यह कमजोर तर्क जरूर देते हैं कि पैसे और पद भर से वो सामाजिक प्रतिष्ठा और समानता नहीं मिलती, जिसकी कि दलित और आदिवासियों को पहली दरकार है।
मन से सामाजिक समता को स्वीकार करना और उसका आदर करना एक लंबी और दीर्घकालीन प्रक्रिया का हिस्सा है, जो जातिवाद की जो बुराई सैंकड़ों सालों में हिंदू समाज में गहरे तक घर कर गई है, उसका उच्चाटन होने में समय लगेगा। उसके लिए कानून के साथ-साथ मानसिकता बदलने की जरूरत है। धीरे- धीरे वह बदल भी रही है। लेकिन एक जातिविहीन अथवा समतामूलक समाज ‘काल्पनिक आदर्श’ स्थिति ज्यादा है।
इस बात का कोई ठोस पैमाना नहीं है कि वह कौन सी स्थिति होगी जिसे सौ फीसदी समता कहा जाएगा। क्योंकि सामाजिक समता के कई कारक है और समता अपने आप में परिस्थिति, अवसर और संसाधन सापेक्ष शब्द है। दूसरे, तथाकथित ऊंची और नीची जातियों के बरक्स खुद आरक्षित जातियों के भीतर भी आंतरजातीय भेदभाव और छुआछूत कम नहीं है। इसे खत्म करना भी उतना ही जरूरी है।
आरक्षित जातियों में अवसरों का समान वितरण कैसे हो, इसके राजनीतिक रूप से प्रयास तो पहले से ही शुरू हो गए थे। मसलन दलितों में अति दलित अथवा महादलित, पिछड़ों में अति पिछड़ों को श्रेणियों में बांटकर उन्हें आरक्षण के लाभ देने की कोशिशें कुछ राज्यों ने पहले से शुरू कर दी थीं। लेकिन इसे सामाजिक न्याय के बजाए वोटों की गोलबंदी की पुनर्रचना के प्रयत्न के रूप में ज्यादा देखा गया। खासकर नीतीश कुमार ने बिहार में इसकी पहल तेजी की थी।
दुर्भाग्य से यह सच्चाई है कि आप किसी को कितना भी आरक्षण दें, लेकिन उसके वास्तविक लाभार्थी कुछ लोग अथवा जातियां ही होती हैं। अगर दलित या अनुसूचित जाति की ही बात करें तो देश में उनकी 16.6 फीसदी आबादी के आधार पर सरकारी नौकरियों में व शिक्षण संस्थानों में मोटे तौर पर 15 प्रतिशत और आदिवासियों को 8.6 प्रतिशत आबादी के हिसाब से 7.5 फीसदी आरक्षण दिया गया है।
अनुसूचित जाति वर्ग में यह आरक्षण कुल 1108 जातियों में बंटना होता है, लेकिन व्यवहार में वैसा होता नहीं है, क्योंकि सभी की सामाजिक आर्थिक परिस्थिति व चेतना अलग- अलग है। यही कारण है कि जिन आरक्षित जातियों में अपने हितों और स्वाभिमान को लेकर ज्यादा चेतना है, वो आरक्षण का लाभ उतना ही ज्यादा उठा पाते हैं।
मोटे पर एससी श्रेणी में आरक्षण का फायदा करीब एक दर्जन जातियों ने ज्यादा उठाया है, जैसी कि जाटव, महार, मेहरा और अहिरवार आदि। लेकिन उन्हीं की एक हजार से आरक्षित बंधु जातियां इस मामले में बहुत पीछे छूट गई हैं।
अगर इस श्रेणी में सब कोटा होगा तो आरक्षण सुविधा का लाभ ज्यादा बेहतर और न्यायसंगत तरीके से वितरित हो सकता है। यही बात अनुसूचित जनजाति ( आदिवासी) वर्ग के लिए भी लागू होती है। वहां भी 744 जनजातियां हैं, लेकिन रिजर्वेशन का लाभ मुख्य रूप से गोंड, भील, संथाल आदि आदिवासियों ने ही उठाया है। इसका एक प्रमुख कारण शिक्षा और जागरूकता का अभाव भी है।
काफी कुछ यही स्थिति अति पिछड़ा वर्ग में भी हैं, जहां 5013 जातियां हैं, लेकिन लाभान्वित होने वाली प्रमुख जातियां यादव, कुणबी, कुर्मी, कलार, सोनी आदि ही हैं। हालांकि ओबीसी में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की शर्त लगा रखी है। जिसके मुताबिक वर्तमान में 8 लाख रू. वार्षिक आय से ज्यादा वाले परिवार ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं ले सकते। जस्टिस रोहिणी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में अोबीसी में सब कोटा बनाने की सिफारिश की है, जिस पर सरकार अभी खामोश है।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में जिन चार जजो ने क्रीमी लेयर की शर्त को एससी/ एसटी में भी लागू करने का सुझाव दिया है, उनमें जस्टिस बी. आर. गवई भी शामिल हैं। इसके पीछे भाव यह है कि जिन लोगों को आरक्षण की वजह आर्थिक सामाजिक उत्थान हो जाए, वो आरक्षित सीट अपने दूसरे समाज व जाति बंधुअोंके लिए खाली करें। खास बात यह है कि जस्टिस गवई स्वयं अनुसूचित जाति से हैं और योग्यता के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के जज बने हैं।