संसद के विशेष-सत्र के एजेंडे पर कयासों का दौर !
संसद के विशेष-सत्र के एजेंडे पर कयासों का दौर
जी-20 कहलाने वाले संगठन में असल में लगभग 101 देश शामिल हैं। भारत के शेरपा (प्रमुख वार्ताकार) अमिताभ कांत के अनुसार कई देशों से 200 बार बातचीत के दौर के बाद साझा घोषणा-पत्र पर सहमति बन सकी। देश के भीतर भी विपक्ष के साथ सरकार ऐसे ही पारदर्शी संवाद करे तो नई संसद में लोकतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा हो सकती है। संसद के विशेष सत्र का एजेंडा सार्वजनिक होने के बावजूद विपक्ष के अनुसार पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा है। सत्र के एजेंडे और कयासों के चार पहलुओं की समझ जरूरी है।
1. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति : जिन संभावित कानूनों की एजेंडे में चर्चा है, उनमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का विधेयक सर्वोपरि है। सीवीसी, सीबीआई और ईडी के मुखिया की नियुक्ति के लिए समिति के सिस्टम का कानून है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी समिति बनाने का फैसला दिया था।
फैसले के अनुसार नियुक्ति-समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को शामिल होना था। लेकिन सरकार जो कानून ला रही है, उसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बजाय एक केंद्रीय मंत्री को रखने का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा था कि संसद के कानून बनाने तक उसका फैसला लागू रहेगा।
इसलिए नए कानून में अगर जज के बजाय केंद्रीय मंत्री को शामिल किया गया है तो उसे अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता। नए कानून को न्यायिक चुनौती मिलना लाजिमी है। पर प्राथमिक सुनवाई के बाद मामला अगर संविधान पीठ में चला गया तो आम चुनावों तक मामले में फैसला मुश्किल होगा।
2. क्रिमिनल लॉ में सुधार: आपराधिक कानूनों में बदलाव के लिए पेश तीन विधेयकों पर संसदीय समिति में परामर्श चल रहा है। इन्हें औपनिवेशिक काल से ही मुक्ति का बड़ा अध्याय बताया जा रहा है। एक रिसर्च के अनुसार नए विधेयकों में पुराने कानून के 83 फीसदी प्रावधान शामिल हैं। सिर्फ कानूनों का नाम और क्रम बदलने के कॉस्मेटिक प्रयासों से फायदे से ज्यादा नुकसान होगा।
इससे प्रशासन में आपाधापी और न्यायिक जगत में अराजकता बढ़ेगी, जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना होगा। वैसे भी सिर्फ कानूनी सुधार से नेताओं को चुनावी वोट हासिल नहीं होते। सनद रहे कि संसद के दोनों सदनों में सैकड़ों सरकारी और निजी विधेयक लम्बित हैं।
राज्यसभा के विधेयक जब तक सरकार वापस नहीं ले, लम्बित रहते हैं। लेकिन लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद लम्बित विधेयक निरस्त हो जाते हैं। इसलिए तीन क्रिमिनल कानूनों को लोकसभा भंग होने के पहले पारित नहीं किया तो वे रद्द हो जाएंगे।
3. समान नागरिक संहिता और आरक्षण : बड़ी चर्चा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की है। यूसीसी पर विधि आयोग की रिपोर्ट के बाद सरकार को नया सिविल कोड या फिर पुराने कई कानूनों में संशोधन का विधेयक पेश करना होगा। राज्यों के साथ परामर्श बिना पेश ऐसे किसी विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजना होगा, जिसे लोकसभा भंग होने के पहले कानून में पारित कराना मुश्किल होगा।
वहीं महिला और ओबीसी आरक्षण इन सभी मामलों में संवैधानिक चुनौतियों से ज्यादा सियासी पेंच हैं। अगर पांच राज्यों के चुनाव समय से हुए तो आचार-संहिता लग जाएगी। इसलिए संसद के इस विशेष-सत्र में ही अनेक लोकलुभावन कानूनों और योजनाओं का शंखनाद हो सकता है। कहा जा रहा है कि विशेष-सत्र के बाद शीत-सत्र नहीं होगा। फरवरी में संसद का बजट सत्र बुलाना तो सरकार की संवैधानिक मजबूरी रहेगी।
4. ‘एक देश एक चुनाव’: पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति बनने के बाद ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे पर देश में बहस और अफवाहों का माहौल वायरल है। कोविंद समिति की बैठकों का दौर अभी जारी है, इसलिए विशेष सत्र में इस बारे में संविधान संशोधन की उम्मीद नहीं है। लेकिन इस मुद्दे के बहाने सरकार पांच राज्यों के चुनावों को आगे बढ़ाकर लोकसभा चुनावों में सम्मिलित बेड़ा पार कराने का यत्न कर सकती है।
कश्मीर में अनुच्छेद-370 के निरस्तीकरण के लिए सरकार ने जो संवैधानिक जुगाड़ किया था, उसी तर्ज पर पांच राज्यों की विधानसभा चुनावों को कुछ महीने टालने के लिए विशेष सत्र में कानूनी बदलावों का विधेयक या सत्र के बाद अध्यादेश पेश किया जा सकता है। लेकिन अल्पकालिक चुनावी हित साधने के बाद ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे को फिर से ठंडे बस्ते में ठेला गया तो यह संसद के नए भवन यानी लोकतंत्र के नए मंदिर के साथ सियासी छल ही होगा।
विशेष सत्र में चुनावों को कुछ माह टालने के लिए विधेयक या सत्र के बाद अध्यादेश पेश किया जा सकता है। पर चुनावी हित साधने के बाद ‘एक देश एक चुनाव’ को ठंडे बस्ते में ठेल दिया गया तो यह लोकतंत्र के साथ छल होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)