जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण भाजपा के लिए नुकसानदेह ?

जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण भाजपा के लिए नुकसानदेह

एमपी विधानसभा चुनाव की मुहिम में पीएम की रैली ने इस प्रश्न का विचित्र-सा उत्तर दिया था। रैली में एक गीत के जरिए नारा दिया गया- मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी। भाजपा के सबसे वरिष्ठ सीएम बगल में खड़े रहे, लेकिन उनका नाम भी नहीं लिया गया।

आलाकमान की इस मोदी-प्रधान रणनीति की तरफदारी करने वालों का कहना है कि पीएम की निजी लोकप्रियता को दांव पर लगाना सोचा-समझा कदम है। ठीक बात है, लेकिन इस प्रकरण को भाजपा के भीतर लगातार जारी वैचारिक और सांगठनिक अतिकेंद्रीकरण के रूपक की तरह भी देखा जा सकता है।

इसमें शक नहीं कि अतिकेंद्रीकरण ने मोदी के नेतृत्व में भाजपा को काफी लाभान्वित किया है। सब कुछ आलाकमान के कब्जे में रहता है। एक-एक गतिविधि केंद्र से नियंत्रित करके चलाई जाती है। अभी तक इस तरीके को भाजपा और मोदी के नेतृत्व की ताकत माना जाता रहा है, लेकिन अब इसके नुकसान भी दिखने लगे हैं।

अतिकेंद्रीकरण का यह मॉडल राज्यों की क्षेत्रीय राजनीति में कभी कामयाब होता है, तो कभी नाकाम। पिछले पांच साल में यह यूपी, गुजरात और त्रिपुरा में सफल रहा। लेकिन हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, बिहार, दिल्ली में यह पार्टी को बहुमत दिलाने में विफल रहा।

एमपी में जिस तरह केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय महासचिव को विधायकी के चुनाव में उतारा गया है, उससे राज्य की इकाई भौंचक रह गई है। उन सीटों पर बगावत की तकरीबन वैसी ही स्थिति पैदा होती दिख रही है, जैसी हिमाचल में थी। राजस्थान और छत्तीसगढ़ की इकाइयां भी अनिश्चितता में हैं।

चुनाव वाले राज्यों के कई केंद्रीय नेता मन ही मन माला जप रहे हैं कि विधायक का चुनाव लड़ने का निर्देश कहीं उनके लिए भी न आ जाए। कहना न होगा कि राज्य की इकाइयों का महत्व भाजपा आलाकमान की केंद्रीकृत डिजाइन में नाममात्र का रह गया है। इसका विपरीत असर लाजिमी तौर पर स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की पहलकदमी पर पड़ना स्वाभाविक है। चुनावों के अलावा इस मॉडल के कुछ और भी नुकसान समझ में आने लगे हैं।

स्टालिन के सनातन विरोधी वक्तव्य की प्रतिक्रिया में विपक्ष पर कड़ा आक्रमण करने का निर्देश स्वयं पीएम ने दिया था। सारे देश में प्रवक्ताओं और नेताओं द्वारा अतिउत्साह से इसका पालन हुआ। नतीजा यह निकला कि द्रमुक के नेताओं को अपनी प्रमुख विरोधी अन्नाद्रमुक को दबाव में लाने का अवसर मिल गया, और अन्नाद्रमुक को भाजपा का साथ छोड़ना पड़ा।

अब भाजपा के पास तमिलनाडु में कोई पार्टनर नहीं है। क्या पीएम ने यह निर्देश देते समय इस बारे में सोचा था? 2013 में पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही मोदी ने साफ कर दिया था कि वे आडवाणी की ‘एनडीए-प्लसप्लस’ की थीसिस से सहमत नहीं थे। मोदी ‘भाजपा-प्लसप्लस’ के हामी थे। यानी भाजपा मजबूत होगी तो एनडीए अपने-आप सध जाएगा।

इस नीति के कारण भाजपा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। लेकिन अत्यधिक केंद्रीकृत फोकस ने पिछले नौ वर्षों में धीरे-धीरे एनडीए का वजूद तकरीबन औपचारिक जैसा बना दिया। बड़ी और मजबूत पार्टियां छोड़कर चली गईं। देवगौड़ा का ताजा बयान बताता है कि उनका एक पैर नीतीश की नाव में रखा है। अगर भाजपा की सीटें 272 से कम रह गईं तो क्या एनडीए के छुटभैए पार्टनर जरूरत के मुताबिक सीटों की भरपाई कर पाएंगे?

भाजपा के पास न आत्मविश्वास का अभाव है, न ही मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है। हो सकता है अतिकेंद्रीकरण के दुष्परिणामों को उसने पहचान लिया हो। यह भी हो सकता है कि भाजपा इसे गलत साबित कर दे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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