वोट उसी को देंगे जो सच्चा होगा ! पांच साल तक किसी को शक्ल नहीं दिखाई थी…

इस बार हम सब भी चतुर हैं, सुजान हैं, वोट उसी को देंगे जो सच्चा होगा

…और भी बहुत कुछ। उनकी इच्छाएं अपने दांत पैने कर रही हैं। वे कहते हैं- हमारे देश में ऊपर से नीचे तक सबकुछ बदलना चाहिए। मगर कुर्सी- जिस पर वे बैठे हैं और उसके नीचे की जमीन जिस पर उनकी कुर्सी डटी हुई है- वो वैसी ही रहनी चाहिए। इसी आस में, इसी तड़प में वे तरह-तरह के वादे करते फिरते हैं।

कहते हैं- हम सड़क पर डोलती परछाइयों को जिंदगी दे देंगे! बिजली के आने-जाने की कभी कोई चिंता मत करना, तुम्हारे खेतों, यहां तक कि बीहड़ों में भी चांद लटका देंगे। और तो और, तुम्हारे घर की खिड़कियों से जो छोटे-छोटे आकाश के टुकड़े दिखते हैं, अलग-अलग साइज, अलग-अलग शक्लों के- इनको भी सीकर एक पूरा आकाश बना देंगे। तुम हमें जमीन बख्शो, हम तुम्हें आसमान देंगे। पूरा आसमान!

हम जब घर पर नहीं होते, तब भी वे चले आते हैं बिन बुलाए मेहमान की तरह। कभी न पूरे होने वाले वादों की थाली हमारे दरवाजे की चौखट पर रख जाते हैं, जैसे पहले के वक्त के कुछ खादिम, मुंह अंधेरे आकर चाय और बिस्कुट रख जाते थे।

हद तो तब हो जाती है जब इस चुनावी मौसम में समानता दिखाने की गरज से वे किसी के भी घर भोजन करने पहुंच जाते हैं। मन करता है कह दें वो सब कुछ, जो हमने भोगा है, इनके सत्ता में रहते हुए। …कि वे दिन कहां गए, जब हम तुम्हें देखकर जबरन मुस्कराते थे, लेकिन तुम नाक-भवें सिकोड़ लेते थे। हमें हिकारत भरी निगाह से घूरने की हद तक देखते थे। अफसोस, हम मजबूरन नमस्कार करने झुकते थे, तुमको और तुम्हारे आकाओं को, लेकिन तुम हम पर तब तक ही रहम करते थे, जब तक हम झुके होते थे।

आज हमारे घर की पूड़ियां चखने आए हो! प्यार जताने आए हो! पता है, तुम्हारी जात अलग है हमसे। फिर भी? तुम्हें मालूम है क्या? बड़े-पुरखे हमारे, एक ही जगह मुर्दे जलाने की इजाजत भी नहीं देते थे। ये कौन-सा जमाना है? ये कैसा चुनाव है? ये कैसा लालच है? वोट का! खोट का! चोट का!

लेकिन ये नेता हमेशा से मोटी चमड़ी के होते हैं। वे इन तमाम बातों को लगभग दरकिनार करते हुए हमारे कंधे पर हाथ रखते हैं। हमें अपने कंधों पर उनका हाथ भारी लगता है। निगाहें उनकी लालच भरी होती हैं, लेकिन लगता है भीतर से उनके कोई गुर्रा रहा हो! …कि चिंघाड़ रहा हो! बब्बर शेर की तरह! लेकिन ऊपर से कितने लिजलिजे!

जहां पब्लिक खामोश हो, वे खिलखिलाकर हंसते हैं। जहां वे ताली बजाते हैं, बड़ी बेवजह लगती है। उतनी ही बेवजह और कर्कश जितनी मरघट की हंसी। लाख लोग समझाते हैं उन्हें लेकिन वे समझने को तैयार नहीं हैं। हमें ही यह सोचकर चुप होना पड़ता है कि एक अंधे, बुजुर्ग को यह समझाने में पूरा दिन और पूरी रात क्यों खर्च की जाए कि आखिर अंधेरा दिखता कैसा है?

दरअसल, इन नेताओं को तो सुबह और शाम और रात का कुछ पता ही नहीं है। वे अपनी आंखें तो खोल लेते हैं। सुबह की किरणें भी उनसे होकर गुजरने लगती हैं, लेकिन उन्हें खबर ही नहीं होती कि सुबह हो चुकी है। उन्हें आदत है अपने आकाओं के हुक्म की! वे कहें तो ही सुबह! वे जब कहें तभी शाम या रात!

जहां तक हमारी हालत है, उसे तो हम सब जानते ही हैं। अच्छी तरह। पूरे पांच साल इन नेताओं की राह तकने में गुजार देते हैं और दूसरी बार फिर उन्हीं नेताओं को उन्हीं कंधों पर बैठाकर ढोने को तैयार हो जाते हैं। चुनाव के वक्त वे हमें जात-पात और धर्म-कर्म में उलझाए जाते हैं और हम बाकायदा उलझते भी जाते हैं। क्यों? हमें ही नहीं पता होता!

बहरहाल, शहर, कस्बों और गांवों में इन दिनों यही हालात हैं। वे नेता बड़ी फुर्ती और चुस्ती से आ-जा रहे हैं, जिन्होंने पांच साल तक किसी को अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई थी। …और हम उनके पहली बार आने पर ही इतने और ऐसे खुश हो रहे हैं जैसे किसी देवता का अवतरण हुआ हो!

उन्हें भरोसा है- हमारा वोट उन्हीं को मिलेगा। मिलकर रहेगा। लेकिन इस बार हम सब भी चतुर हैं। सुजान हैं। वोट उसी को देंगे जो सच्चा होगा। जीतेगा भी वही जो ईमानदार होगा। आखिर लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। यही असल लोकतंत्र है। साफ-सुथरा और खुलेपन का पर्याय लोकतंत्र।

जिन्होंने पांच साल तक किसी को शक्ल नहीं दिखाई थी…
शहर, कस्बों, गांवों में यही हालात हैं। वे नेता बड़ी फुर्ती से आ-जा रहे हैं, जिन्होंने पांच साल तक किसी को शक्ल तक नहीं दिखाई थी। …और हम उनके पहली बार आने पर ही ऐसे खुश हो रहे हैं जैसे किसी देवता का अवतरण हुआ हो!

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