प्रशासन की राह पर मीडिया !
प्रशासन की राह पर मीडिया …
सत्ताधीश अज्ञानी-अनभिज्ञ-अपराधी-भ्रष्ट कुछ भी हो सकता है। आज तो विधायिका ही प्रशासन एवं न्यायपालिका पर भारी पड़ रही है। अपने-अपने कारणों से दोनों ने ही अपनी स्वतंत्रता खो दी। यहीं से लोकतंत्र के ह्रास की कहानी शुरू हो जाती है। लोक भी ओझल और प्रहरी भी मौन! लेकिन किस सीमा तक? पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश के इंदौर-तीन क्षेत्र में लगभग 14 हजार मतदाताओं के नाम गायब थे। निश्चित है कि प्रत्याशी को इसका लाभ मिलना ही था। यह जानकारी चुनाव आयुक्त कार्यालय को भी थी, किन्तु मरघट-सा सन्नाटा। जानकारी मिलने पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह सूचना दी, कि उनको इस सूचना की तथ्यात्मक पड़ताल तो करानी ही चाहिए। कुछ समय बाद उनका फोन आया कि मेरी सूचना सही थी और उन्होंने वे सारे नाम पुन: जुड़वा दिए। क्या मतलब?
मतलब यह कि घटना आई-गई हो गई। किसी प्रकार की कोई कार्रवाई हुई ही नहीं। परिणाम कुछ और आना था कुछ और आ गया। मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को भी इनाम मिल गया होगा। लोकतंत्र तार-तार हो गया, कोई शर्मसार नहीं हुआ। न चुनाव रद्द हुआ, न ही किसी को सजा मिली। सोचो, मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने घुटने क्यों टेके? इसी अनुभव के आधार पर इस बार भी पत्रिका ने भोपाल मध्य क्षेत्र में मतदाता सूचियों की पड़ताल शुरू की। छह हजार से अधिक नाम कटे हुए मिले। तब एक-एक नाम पर काम करना शुरू किया। आश्चर्य की बात यह कि ये सभी नाम फार्म नम्बर-7 भरकर मतदाता द्वारा स्वयं कटवाए गए थे। तह में गए तो उनके मोबाइल नंबर फर्जी पाए गए। ये तमिलनाडु-केरल-बिहार आदि राज्यों के थे। पत्रिका ने यह मुद्दा उजागर किया तब जाकर निर्वाचन विभाग ने नाम पुन: जोड़ दिए। बात यहां रुकी नहीं, खोज जारी रही। पत्रिका में प्रकाशित अंतिम खबर में नाम कटने का यह आंकड़ा 22 हजार के आगे पहुंच चुका था।