अच्छे कानून बनाने वाले नेताओं की जरूरत ज्यादा ?

अच्छे कानून बनाने वाले नेताओं की जरूरत ज्यादा

हाल में हुए चुनावों ने एक बार फिर इस प्रश्न को चर्चाओं के केंद्र में ला दिया है कि क्या जीवन-स्तर की बेहतरी के लिए नीतियां बनाना और उन्हें लागू करना ही राजनीति का मंतव्य है? ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों से मतदान का उच्च प्रतिशत बताता है कि वे लोग नियमित और अतिरिक्त आमदनी के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों के समर्थन की चाह रखते हैं।

ऐसे में यह सवाल उभरकर सामने आता है कि क्या हमें संसद में ऐसे अधिक लोगों की आवश्यकता नहीं है, जिन्होंने अच्छे कानूनों और उनके कार्यान्वयन के माध्यम से अपने निर्वाचन क्षेत्र और राज्यों को बदला हो? राजनीति में सर्वोच्च प्राथमिकता तो निचले तबके के लोगों पर ध्यान केंद्रित करना और उनके जीवन को बेहतर बनाना ही है।

गरीबी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है और सरकार की विफलता निर्धनता के आंकड़े से मापी जा सकती है। गरीबी की परिभाषा जरूर बहस का विषय हो सकती है, लेकिन तब भी चिंता और जरूरत इस बात की होनी चाहिए कि सबसे कमजोर घरों की पहचान करके न केवल उनकी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति की जा सके, बल्कि आय के बढ़ते स्तर के लिए उन्हें फोकस्ड कौशल भी प्रदान किया जाए।

इसे वेलफेयर नहीं कह सकते, बल्कि ये यह सुनिश्चित करना है कि ऐसे परिवार अस्मिता से जीवन बिता सकें और उन्हें आगे बढ़ने के अवसर भी मिलते रहें। यदि कोई गरीबी और भुखमरी के समग्र स्तरों की तुलना उन राज्यों से करता है, जिनका इसमें प्रमुख योगदान है, तो संसद में उनका प्रतिनिधित्व भी अधिकतम ही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि संसद में सीटों की संख्या तय करने के लिए क्या सिर्फ जनसंख्या का फॉर्मूला सही माना जाना चाहिए या उन क्षेत्रों से अधिक प्रतिनिधियों को शामिल करने की जरूरत है, जिन्होंने समावेशी विकास के लिए सफलतापूर्वक कानून बनाए और क्रियान्वित किए हैं? यानी संसद में सीटों की संख्या तय करने में विकास सूचकांक को जोड़ा जाना चाहिए या नहीं?

यह बहुत साफ है कि लगभग 7% आबादी को बेहतर लक्ष्यीकरण की आवश्यकता है और लगभग 80% आबादी के लिए ऐसी नीतियां जरूरी हैं, जो मध्यम वर्ग के विस्तार को गति देते हुए गुणवत्तापूर्ण रोजगार पैदा करें। विकास दर दो अंकों में होगी तो समावेशी विकास होगा।

किसानों के लिए बेहतर रिटर्न सुनिश्चित करके, एमएसएमई को बढ़ावा देकर और रोजगार और नवाचार के नए अवसर निर्मित करके भारत को मैन्युफैक्चरिंग और सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी बनाया जा सकता है। सत्ता में किसी भी पार्टी की सर्वोच्च प्राथमिकता गरीबों के लिए स्थायी आय स्तर को बढ़ाना ही होनी चाहिए।

बढ़ती जनसंख्या के साथ क्या भारत अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड को उलटे अपने सिर का बोझ बनाकर गरीबी के जाल में फंस गया है? यही वह प्रश्न है, जिस पर प्राथमिकता से सोचने की जरूरत है। सुस्त आर्थिक विकास, एमएसएमई पर असर के कारण बेरोजगारी में वृद्धि, संसाधनों का कम उपयोग और धन का असमान वितरण पिछले कुछ वर्षों में एक पैटर्न-सा बन गया है। इसके अलावा, आय के स्तर के कारण एफएमसीजी (फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स) उत्पादों की कम मांग होती है, जो अतिरिक्त धन की कमी से अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने का एक मजबूत इंडिकेटर है।

80% आबादी को खाद्यान्न वितरण जैसी कल्याणकारी योजनाएं तो इन परिवारों को केवल जीवन-निर्वाह के स्तर पर ही बनाए रखेंगी। यदि भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहता है तो सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि पहले अपनी इकोनॉमी को टिकाऊ बनाए और फिर धीरे-धीरे सरप्लस की ओर बढ़े। अर्थव्यवस्था का आकार ही नहीं, बल्कि सम्पदा के बेहतर वितरण के साथ अर्थव्यवस्था का सहभागिता-स्तर भी बड़ा होना चाहिए। हम आज दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा जरूर करते हैं, लेकिन हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी नाइजीरिया से थोड़ी ही ऊपर है।

अर्थव्यवस्था का आकार ही नहीं, उसका सहभागिता-स्तर भी बड़ा होना चाहिए। हम आज दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा जरूर करते हैं, लेकिन हमारी प्रति व्यक्ति जीडीपी नाइजीरिया से थोड़ी ही ऊपर है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *