बहुत कठिन है डगर संसद की !
बहुत कठिन है डगर संसद की
पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने नए साल में विपक्ष के लिए संसद की डगर को बहुत कठिन बना दिया है। ‘ अर्बन नक्सलियों ‘ के प्रचंड विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू चल गया और खानदानी जादूगर हार गए। हालाँकि चुनावों के सभी नतीजे अप्रत्याशित और अविश्वसनीय हैं ,लेकिन उन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता । जनादेश तो होता ही शिरोधार्य करने के लिए है। देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए जहा ये नतीजे आत्मपरीक्षण के लिए एक बड़ा अवसर हैं वहीं लोकसभा चुनाव के लिए बनाये गए आईएनडीआईए [इण्डिया ] गठबंधन के लिए एक अग्निपरीक्षा।
इस समय देश विचारधाराओं के बजाय ऐसे मुद्दों पर विभाजित होता दिखाई दे रहा है जो नए नहीं है। नया सिर्फ इतना है कि देश, आजादी से पहले जहाँ खड़ा था ,आज भी वहीं खड़ा नजर आ रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि आजादी के पहले राजनीति ‘प्रोडक्ट’ नहीं थी और उसके साथ किसी तरह की कोई गारंटी बाबस्ता नहीं थी । जो कुछ था वो एक संघर्ष से हासिल आजादी और एक संविधान था। मुझे हैरानी होती है कि जो राजनीति आजादी की लड़ाई के फौरन बाद देश में औंधे मुंह गिरी थी वही राजनीति आजादी के 75 साल बाद शीर्ष पर है। और इसकी वजह शायद विचारशून्यता ही हो सकती है।
मैंने कल ही कहा था कि अब त्रेता नहीं कलियुग है । अब हानि,लाभ,जीवन,मरण,जस,अपजस सब ‘ विधि ‘ के नहीं ‘ नृप ‘ के हाथ में हैं ,और ये आम चुनाव से पहले हुए सेमीफाइनल में साबित भी हो गया। अब जनता विधि के बजाय नृप पर ज्यादा भरोसा कर रही है। राजा की गारंटियां अपना असर दिखा रहीं हैं। कोई इसे स्वीकार करे या न करे ,इससे इन गारंटियों और नयी राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है तो देश के उस मूल चरित्र पर पड़ता है जिसके लिए देश ,दुनिया में जाना -पहचाना जाता रहा है।
चुनावों में कौन ,किस वजह से हारा ,किस वजह से जीता इसका विश्लेषण राजनीतिक दल करें,ये काम हमारा नहीं है। क्योंकि राजनीति में हमारा कोई दखल नहीं है । यदि होता तो हम भी चुनाव लड़ रहे होते। हम तो जन्मजात ‘ वाच डॉग ‘ हैं हिंदी पट्टी में कांग्रेस के पास अब केवल हिमाचल प्रदेश है। ये प्रदेश इतना बड़ा है जितने हमारे सूबे के अनेक शहर हैं। हिमाचल की सत्ता में रहकर कांग्रेस पूरे देश से अपने लिए ताकत नहीं बटोर सकती । कांग्रेस के लिए दक्षिण की चार मीनार के दो दरवाजे बेशक खुल गए हैं लेकिन इनसे मिलने वाली ऊर्जा भी शेष भारत में कांग्रेस के मुरझाये पौधे को संजीवनी नहीं दे सकते।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद भाजपा के लिए संसद का रास्ता जितना आसान हो सकता है कांग्रेस और शेष विपक्ष के लिए उतना ही कठिन । क्योंकि भाजपा के लिए अब स्पर्द्धा कम हो गयी है जबकि कांग्रेस के लिए इंडिया गठबंधन को एकजुट बनाये रखना आसान नहीं रहा। कांग्रेस यदि तेलंगाना के बजाय मध्य प्रदेश या राजस्थान जीतती तो मुमकिन है कि परिदृश्य कुछ और होता,लेकिन ऐसा हो नहीं सका। कांग्रेस मध्य प्रदेश तो तीन साल पहले ही गंवा चुकी थी ,अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी उसके हाथ से निकल गया। इसके लिए भाजपा ने कौन सा अनाम ऑपरेशन चलाया ,कोई नहीं जानता। मुमकिन है कि भविष्य में इण्डिया गठबंधन का नेतृत्व भी उसे छोड़ना पड़ जाये। क्योंकि अब गठबंधन के तमाम सदस्य कांग्रेस नेतृत्व को आँखें दिखने की स्थिति में आ गए हैं।
कांग्रेस के पास एक विरासत जरूर है लेकिन उसकी संगठनात्मक शक्ति लगभग समाप्त हो चुकी है। कांग्रेस के पास अब कोई ऐसा संगठनकर्ता नजर नहीं आता जो पार्टी के लिए नए सिरे से एक मजबूत संगठन खड़ा कर सके। सांगठन बनाना एक पूर्णकालिक काम है। संगठन के लिए ऐसे लोग होना चाहिए जो सत्ता लोलुप न हों। इस देश में कैडर पर आधारित वामपंथ का साम्राज्य समाप्त होते देखा है। देश अब कांग्रेस को संकुचित होते हुए देख रहा है ,और यदि कांग्रेस अब भी न सम्हली तो देश कांग्रेस को भी हासिये पर खड़ा होते देख सकता है। कांग्रेस का वजूद अब तक उस विचारधारा की वजह से बचा है जो उसे गाँधी-नेहरू से विरासत में मिली थी। कांग्रेसका नेतृत्व इस विरासत को नयी पीढ़ी को हस्तांतरित करने में नाकाम दिखाई दे रहा है।
आप अन्यथा ले सकते हैं किन्तु मेरा मानना है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस को अपने पांवों पर खड़ा करने की अनथक कोशिश की है। राहुल की कोशिशें यदि रंग नहीं ला पा रहीं तो उसकी एकमात्र वजह कांग्रेस की पुरानी पीढ़ी का सत्तालोलुप और सामंती होना है । कांग्रेस में अब कोई कामराज योजना की कल्पना नहीं कर सकता । तमाम बड़े राज्यों में कांग्रेस के पास जय और वीरू की जो जोड़ियां हैं वे उम्रदराज हो चुकीं हैं ,लेकिन नया नेतृत्व पनपने ही नहीं दे रहीं। कांग्रेस ये स्वीकार करने के लिए शायद तैयार नहीं है कि वो अब देश की सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी है। कांग्रेस जिस संघर्ष के रस्ते से देशवासियों के दिल में उत्तरी थी ,वो संघर्ष करने का माद्दा कांग्रेस के पास नहीं है।
क्या आप नहीं मानते कि आज देश में भाजपा को छोड़ जितने भी राजनीतिक दल हैं उनमें से अधिकांश कांग्रेस के गर्भ से उसके दम्भ की वजह से नहीं जन्मे ? देश में आज कांग्रेस की जितनी औरस संताने हैं उतनी जनसंघ या भाजपा की नही। देश में जितने भी समाजवादी राजनीतिक दल हैं उनके डीएनए में भी कहीं न कहीं,थोड़ी-बहुत कांग्रेस है। यहां तक की बहुजन समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस का ही एक सह उत्पाद है। कांग्रेस में यदि कोई प्रभावी दलित नेता होता तो शायद बसपा जन्म ही न लेती। अब कांग्रेस खुद को सम्हालने के साथ ही यदि देश में बिखरे हुए विपक्ष को सम्हालने के लिए काम करे तो ही उसका वजूद बच सकता है। अन्यथा भाजपा और संघ की रणनीति के सामने कांग्रेस को ढेर होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। कांग्रेस विहीन भारत भाजपा और आरएसएस का ख्वाब हो सकता है ,लेकिन पूरे देश का नहीं। कांग्रेस विहीन भारत कैसा होगा इसका अनुमान आज लगना आसान नहीं है।
विजय पथ पर बढ़ती भाजपा को बधाई देने के साथ ही लगातार पराजित होती कांग्रेस के प्रति भी सहानुभूति है। राहुल गांधी के प्रति सहानुभूति है । राहुल ने पिछले दस साल में कांग्रेस को शक्तिशाली बनाने के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन उस गरीब के पीछे जो लोग खड़े हैं वे ही उसके हितैषी नहीं हैं। राहुल विधानसभा चुनावों के नतीजों की समीक्षा करने हिमालय की किसी गुफा में जाएँ या विदेश के किसी रमणीक स्थल पर ये उनका निर्णय है। हम और आप तो फ़िलहाल अब सत्तारूढ़ भाजपा के नए प्रहसनों से मनोरंजन करें तो बेहतर है ।भाजपा के पास एक से बढ़कर एक मनोरंजक कार्यक्रम हैं।