समस्याएं हल करने वाले युवा भारतीयों के ग्रुप में शामिल हों
समस्याएं हल करने वाले युवा भारतीयों के ग्रुप में शामिल हों
मिसाल के तौर पर आप किसी भी साल दिसंबर-जनवरी का महीना देखें, तो पूरा आकाश धुंध से भरा दिखेगा, कम से कम सिन्धु-गंगा पट्टी में ये बहुत कॉमन है। इसका एक प्रमुख कारण पराली जलाना है, जो दिल्ली के वायु प्रदूषण में 26% तक का योगदान देता है।
जब इस तरह की समस्याएं शुरू हुईं तो शोधकर्ता-वैज्ञानिक जुट गए और लुधियाना में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी ने धान और गेहूं के डंठल का उपयोग करके एक ‘बायो-थर्माकोल’ विकसित किया।
उनका मानना है कि इससे उस क्षेत्र में पराली जलाने की समस्या को कम करने में मदद मिलेगी। इस संस्थान ने बायो-थर्माकोल का व्यावसायिक उत्पादन शुरू करने के लिए एक स्थानीय औद्योगिक इकाई के साथ एमओयू साइन किया है।
इससे दो समस्याएं सुलझेंगी। एक तो अकेले भारत में हर साल 50 लाख टन थर्माकोल का उत्पादन होता है। गौरतलब है कि कांच के बर्तनों के एक सेट को पैक करने में प्रयुक्त थर्माकोल की मात्रा 5,000 लीटर हवा को प्रदूषित कर सकती है। इसके अलावा, पंजाब-हरियाणा में 20 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेत में लगे धान की पराली भी जलाई जाती है।
एक आइडिया से दो समस्याओं के समाधान ने आईआईटी-दिल्ली में बायोटेक के छात्र अर्पित धूपर जैसे युवाओं को ध्यान खींचा। उन्होंने पराली से बना बायोडिग्रेडेबल थर्माकोल जैसा मटेरियल तैयार किया। एनसीआर स्थित उनकी फर्म, धाराक्षा इकोसिस्टम्स को उम्मीद है कि इससे दोनों समस्याएं हल होगी- पराली संकट और कूड़े के ढेर व नालों तक जाने वाले पॉलीस्टाइनिन, क्योंकि उनका थर्माकोल किसी भी आकार में ढल जाता है और 14 दिनों में डीकंपोज भी हो सकता है। 2021 में उन्होंने 180 इलाकों से पराली खरीदी और धीरे-धीरे खरीद 1,400 एकड़ से अधिक बढ़ा दी।
वैसे खरीदारों को पैकेजिंग मटेरियल अंततः कूड़े में ही फेंकना पड़ता है। श्रिती पांडे के मन में ख्याल आया कि ये पराली स्थाई संरचना बन जाए तो। उन्होंने न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से निर्माण प्रबंधन में एमएस किया और एसबीआई के यूथ फॉर इंडिया की ग्रामीण विकास फेलोशिप के लिए अमेरिका में टिकाऊ नौकरी छोड़ दी।
न्यूयॉर्क की चकाचौंध से सीधे वह मप्र के खंडवा के पास पंधाना गांव में चली आईं। उन्होंने भी पराली जलते हुए देखी और 2018 में इस पर शोध किया कि कैसे पराली ईंटों की जगह ले सकती है। अमेरिका में अपनी बचत व परिवार की मदद से उन्होंने उत्पाद बनाया और छोटे उद्यमों के साथ काम किया, जिन्हें ये आइडिया व इसकी गुणवत्ता पसंद आई।
हालांकि भवन निर्माण की सामग्री ऐसी चीजें नहीं, जिनके साथ रीयल एस्टेट डेवलपर जोखिम उठाएं, क्योंकि एक गलती पूरी इमारत और लोगों को खतरे में डाल सकती है। उनका उत्पाद (ईंट) पहले दिन से ही सभी तय मानकों पर खरा उतरा और उन्होंने ‘स्ट्रॉक्चर इको’ की स्थापना की, जिसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। जनवरी 2019 में कंपनी को पहला भुगतान करने वाला ग्राहक मिला और आज उनके उत्पाद 200 से अधिक आर्किटेक्ट व बिल्डर इस्तेमाल करते हैं। अब मेरा सवाल है कि आप पराली से कितना मुनाफा कमाना चाहते हैं? सोचिए।
अच्छा उद्यमी हमेशा अपने आसपास की या फिर देश की बड़ी समस्याओं को पहचानता है और फिर इसका समाधान सोचता है। यह ना सिर्फ दो समस्याएं हल करता है, खुद के जीवनयापन के साथ-साथ कई और लोगों के लिए भी बिजनेस बन जाता है, जो कि उस आइडिया को एक उत्पाद में बदलने में लग जाते हैं।