‘महिला नेतृत्व’ बढ़ाने की आड़ में ‘कॉरपोरेट नेतृत्व’ वाला विकास बढ़ रहा है !

‘महिला नेतृत्व’ बढ़ाने की आड़ में ‘कॉरपोरेट नेतृत्व’ वाला विकास बढ़ रहा है,

लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को देखते हुए, यह एक अच्छा कदम है। कार्य समूह पहले में भी बनाए गए हैं लेकिन इनका बहुत लाभ नहीं हुआ है।

जैसे कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल में लिंग आधारित भेदभाव को कम करने के लिए निश्चित लक्ष्य रखे गए हैं। हालांकि, इस घोषणा में माना गया है कि 2030 तक का आधा समय हम गवां चुके हैं, सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल पर दुनिया भर में प्रगति निराशाजनक है। तय लक्ष्य का केवल 12% ही हासिल किया जा सका है।

जेंडर इक्वलिटी से जुड़े हिस्से में कहा गया है कि हम महिलाओं के नेतृत्व में विकास को बढ़ाना चाहते हैं। दुनिया के तमाम मुद्दों पर महिलाओं की पूर्ण, समान, असरदार और सार्थक भागीदारी होनी चाहिए।

समाज के हर हिस्से और अर्थव्यवस्था के सभी स्तर पर महिलाओं का योगदान होना चाहिए। महिलाओं के नेतृत्व में विकास एक लुभाने वाला नारा है जो भारत सरकार ने दिया है। लेकिन इसका स्पष्ट अर्थ क्या है, कोई नहीं जानता है ।

‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ के अनुसार जब समाज का एक वर्ग अमीर होता है, तो उनके खर्च करने से पैसा निचले वर्गों तक भी पहुंचता है। हालांकि, इस धारणा को नकारा जा चुका है, लेकिन इसके नाम पर बड़े व्यवसाय टैक्स में छूट, बैंक कर्ज की माफी, जमीन के आवंटन में सब्सिडी और अन्य देशों के साथ व्यापार करने के लिए पैसे की मुक्त आवाजाही का सरकार से लाभ लेते हैं।

वे सरकार को इसके बदले में अधिक निवेश करने और रोजगार पैदा करने का वादा करते हैं। शासन का न होना अच्छा शासन है, ऐसी धारणा ने सरकारी नियंत्रण को खत्म कर दिया है।

सरकारी संपत्ति या तो नष्ट की जा रही है या इसे निजी उद्योगों को बेचा जा रहा है। यह सब आर्थिक सुधार के नाम पर किया जा रहा है।

G20 घोषणापत्र में इसी बात को दोहराया गया है, हम विकास को गति देने के लिए और स्थाई आर्थिक सुधारों के लिए निजी क्षेत्र के योगदान की तारीफ करते हैं । यदि विकास के मुख्य मॉडल ये हैं, तो इनमें महिलाओं के नेतृत्व में किया विकास कहां दिखता है।

जेंडर बजट 2005-2006 में शुरू किया गया था। इस योजना का लक्ष्य निवेश के जरिए लिंग आधारित भेदभाव को करना था, लेकिन यह केवल लिखा-पढ़ी बन कर रह गया है।

इस बजट के दो भाग हैं, पहला भाग A, जिसमें वे योजनाएं शामिल हैं, जो 100% महिलाओं के फायदे के लिए हैं और दूसरा भाग B, जिसमें सरकारी खर्च का कम से कम एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के हितों को ध्यान में रखते हुए खर्चा करना है। महिला-नेतृत्व आधारित विकास को सफल बनाने के लिए जेंडर बजट में बढ़ोतरी करनी होगी।

2023-2024 के लिए कुल जेंडर बजट पर खर्च पिछले साल 5.2% से घटाकर 5% रह गया। शुरुआत से ही इस बजट में कोई खास बढ़ोतरी नहीं की गई है, और औसतन यह 4% से 6% के बीच बना हुआ है।

इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि 2023-24 में, जिस साल ‘महिला-नेतृत्व में विकास’ का नारा दिया गया, उसी साल भाग A में, सबसे कम खर्च (लगभग 39%) किया गया, जबकि भाग B में, जेंडर बजट का 61% खर्च किया गया। दूसरे शब्दों में कहें /समझाएं तो, महिलाओं के लिए चलाई गई यह योजनाएं पहले से ही अपर्याप्त आर्थिक मदद का सिर्फ 40% हैं।

आर्थिक स्वतंत्रता

महिलाओं के विकास के लिए यह जरूरी है कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों।

हालांकि, भारत में पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) के अनुसार 2018-2019 में 21.9% से घटकर नियमित आय वाले काम में महिलाओं की भागीदारी 2022-2023 में 15.9% रह गई है। 95% से अधिक महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती ,जिनके पास नौकरी या आय की कोई सुरक्षा नहीं है।

अधिकांश महिलाएं केंद्र सरकार की प्रमुख योजनाओं में काम करती हैं, और इन प्रमुख योजनाओं, जिसमें आंगनवाड़ी, आशा कार्यकर्ता और मिड-डे मील शामिल हैं, जिसमें लगभग एक करोड़ महिलाएं मध्यस्थ के रूप में काम करती हैं।

हालांकि, उनका सबसे अधिक आर्थिक शोषण होता है। उन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम ‘भत्ते’ दिए जाते हैं और उन्हें सरकारी कर्मचारी के रूप में भी नहीं देखा जाता है।

PLFS के सर्वे के अनुसार, खेती से जुड़ी महिलाओं का अनुपात 2018-19 में 55.3% था, जो अब 2022-23 में 64.3% तक बढ़ गया है।

खेती से जुड़ी महिलाएं अपने पारिवारिक जमीन पर काम करती हैं जिसका उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता है।

MGNREGA के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में परियोजनाओं में हुए काम का भुगतान केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन इसमें भी काफी कटौती कर दी गयी है। इसका सबसे अधिक बुरा असर महिलाओं पर पड़ता है, कई राज्यों में मजदूरों की संख्या में 50% से 80% हिस्सेदारी महिलाओं की होती है।

सच्चाई ये है कि महिलाओं और खास तौर पर दलित और आदिवासी महिलाओं पर केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों का सबसे बुरा असर पड़ रहा है।

केंद्र सरकार राष्ट्रीय संसाधनों को सबसे अमीर वर्ग (1% )को सौंप रही है, जिनके पास देश का 40% से अधिक धन पर कब्जा है। यह निश्चित रूप से महिलाओं के नेतृत्व वाला विकास नहीं है, बल्कि कॉरपोरेट के नेतृत्व वाला विकास है।

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