स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार को बेहतर फैसलों को आगे बढ़ाने की जरूरत है

स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार को बेहतर फैसलों को आगे बढ़ाने की जरूरत है

भारत के हलचल से भरे शहरों और शांत गांवों में, सार्वजनिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर एक शांत लेकिन महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी जा रही है।

यह दवाइयों के इस्तेमाल से बीमारियों पर बड़ी जीत नहीं, बल्कि बेहतर सफाई और टीकों के जरिए चेचक (जिसे समाप्त किया जा चुका है, लेकिन इसपर निगरानी रखी जाती है), पोलियो, बच्चों में टेटनस और खसरे जैसी बीमारियों को रोकने की कहानी है।

यह ऐसी सफलताएं हैं जिनकी शायद ही कोई चर्चा होती है, लेकिन इन बीमारियों की गैर-मौजूदगी बहुत कुछ कह देती है।

हालांकि, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेता ऐसी उपलब्धियों के पीछे भागते हैं, जिसके फायदे वो जनता के सामने आसानी से रख सकें। इस वजह से अनजाने में या जानबूझकर इन बीमारियों की रोकथाम की जरूरी कोशिशों पर उतना ध्यान नहीं जाता।

खास तौर पर, हर क्षेत्र के राजनेताओं का झुकाव उन कदमों की तरफ है जिनके नतीजे जल्दी सामने दिखने लगे, जैसे कि नए अस्पताल, निजी अस्पतालों में सस्ता इलाज, आपातकालीन प्रतिक्रिया और लोकप्रिय स्वास्थ्य नीतियां।

सार्वजनिक घोषणाओं के बाद उन पर कार्रवाई न होने से कई उपायों का ज्यादा असर नहीं होता है। बजट की कमी इसके पीछे महत्वपूर्ण कारण है।

लेकिन, इन योजनाओं के लागू होने से पहले ही हमारे नेताओं का ध्यान स्वच्छता, रोग निगरानी और सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से हट जाता है, जो जनसंख्या स्वास्थ्य को बनाए रखने और बीमारी के फैलाव को रोकने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

डेंगू बीमारी के विषय में

डेंगू जैसी बीमारी की ही बात करें, तो यह एक ऐसी बीमारी है जिसका केवल लक्षणों के आधार पर ही इलाज संभव है और इसका कोई निश्चित इलाज नहीं है।

जब इस बीमारी के मामलें बढ़ते हैं, तो राजनीतिक नेता अक्सर वेक्टर बायोनॉमिक्स को समझने या प्रभावी टीके विकसित करने जैसी लम्बी चलने वाली रणनीतियों की कीमत पर तत्काल राहत शिविरों को लगाने के लिए राज्य मशीनरी को जुटाते हैं।

हालांकि, हमें दोनों की जरूरत है, फिर भी, डेंगू जैसी बीमारी के स्थाई रोकथाम पर तुरंत दी गयी प्रतिक्रिया को प्राथमिकता/ महत्व देने का एक बेहतरीन उदाहरण सामने आता है।

इसी के साथ, तुरंत राहत पहुंचाने को प्राथमिकता देने के कारण, जनता का ध्यान डेंगू के मूल कारणों और उससे लम्बे समय तक बचे रहने, मच्छर नियंत्रण, वैक्सीन विकसित करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में सुधार करने से हट जाता है। इसका नतीजा यह है कि, हम भविष्य में इस बीमारी को दोबारा फैलने से रोक नहीं पाते और स्वास्थ्य-सेवा व्यवस्था पर इसका दबाव पड़ता है।

इसी के साथ, इन क्षेत्रों में शोध और विकास बहुत महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, मौजूदा डेंगू वैक्सीन अपनी सीमाओं और प्रतिबंधों के बावजूद और ज्यादा शोध की जरूरत को रेखांकित करती है।

साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी मच्छरों के प्रजनन और उनकी गतिविधियों पर असर डाल रहा है। इसी के चलते, सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीतियों को परिवर्तन के हिसाब से बदलने की जरूरत है।

स्वास्थ्य सेवाओं को फायदा हो सके इसके लिए हमें इन सेवाओं को राजनीतिक प्रक्रियाओं से अलग रखना होगा। साथ ही, इन सेवाओं की बेहतरी के लिए भारत के न्यायिक व्यवस्था और अंतरिक्ष कार्यक्रम के ढांचे से किसी विचार को लेना होगा।

सार्वजनिक स्वास्थ्य के फैसले कम समय के राजनीतिक हितों के बजाय वैज्ञानिक प्रमाणों और लम्बे समय के लक्ष्यों पर आधारित होने चाहिए। यह अलगाव तय करेगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियां डेटा और विशेषज्ञता से संचालित हों न कि चुनावी हवाओं से तय हो।

1946 में, सिविल सेवक जोसेफ भोरे द्वारा दिया गया निरीक्षण, निवारक स्वास्थ्य उपायों की अनदेखी आर्थिक और मानवीय लागत पर अभी भी सच है। हालांकि, पोषण कार्यक्रमों में निवेश तुरंत दिखाई नहीं देता है, लेकिन स्वास्थ्य और उत्पादकता (productivity) पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है।

नीतियों द्वारा तय लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच यह अंतर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयासों में बड़ी कमी को सामने लाता है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य में फार्मास्यूटिकल उद्योग के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। जबकि, क्यूरेटिव चिकित्सा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, इसकी लाभ-संचालित प्रकृति (profit-driven nature) अक्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को दरकिनार कर देती है।

जैसे कि, TB से लड़ने के लिए समान दवाइयां होने के बावजूद 2021 में, भारत ने 21.4 लाख TB के मामले दर्ज किये। 2020 की तुलना में, यह 18% की बढ़त थी, यानि हर 1,00,000 लोगों में 210 लोग इस बीमारी से पीड़ित थे।

2022 में, भारत की तुलना में यूनाइटेड स्टेट्स में TB के केवल 8,331 मामले सामने आए, यानि हर 1,00,000 लोगों में सिर्फ 2.5 लोग इस रोग से पीड़ित थे। यह असमानता केवल चिकित्सा उपचार की उपलब्धता का मामला नहीं है, बल्कि भारत में गरीबी, स्वच्छता और ज्यादा भीड़-भाड़ जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों से जुड़ा हुआ है।

कुछ कमियां भी

सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौतियों के प्रबंधन के लिए लोगों के व्यवहार में बदलाव लाना जरूरी है। फिर भी, यदि लोकप्रियता राजनीतिक वातावरण पर गहरा असर करती है, तो यह काम चुनौतीपूर्ण हो जाता है। भारत के शिक्षा संस्थानों में पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग जैसे विशेष पाठ्यक्रम/ कोर्स की गैर-मौजूदगी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन में जरूरी बहु-विषयक दृष्टिकोण (multidisciplinary approach) में कमी की ओर इशारा करती हैं।

समाज का स्वास्थ्य सिर्फ बीमारियों के इलाज करने तक सीमित नहीं है। बीमारी से बचाव ज्यादा जरूरी है, जिसके लिए पर्यावरण विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्बन प्लानिंग और अर्थशास्त्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों की अच्छी जानकारी होनी चाहिए। भारत की मौजूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था डॉक्टर पर केंद्रित है, जिसकी वजह से समस्या के इस व्यापक व्यवहार को समझने में चूक हो जाती है।

फैसले लेने की कुछ आजादी जरूरी

असरदार सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन में बीमारी से बचाव के उपाय, नीति बनाने, सामुदायिक स्वास्थ्य और पर्यावरण के स्वास्थ्य जैसे कई क्षेत्र शामिल होने चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ्य में, शक्तियों का उचित बंटवारा जरूरी है। एक निष्पक्ष और कार्य असरदार व्यवस्था को राजनीतिक दबाव से आजाद होना चाहिए।

नीति बनाने और उसे लागू करने के लिए वैज्ञानिक आधार और लम्बे समय के लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। हालांकि, वैज्ञानिक और व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य लक्ष्यों के आधार पर स्वास्थ्य से जुड़े फैसले लेना जरूरी है, आम जनता की मौजूदा स्वास्थ्य समस्याओं को अनदेखा करना भी खतरनाक है।

इस समस्या को हल करने के लिए, बेहतर होगा कि अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा विभागों की तरह स्वास्थ्य मंत्रालय का प्रबंधन भी चुने हुए अधिकारियों को सौंप दिया जाए, जैसे कि मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री।

इस ढांचे को अपनाने से न सिर्फ कुछ हद तक फैसले लेने की आजादी मिलेगी, बल्कि स्वास्थ्य नीतियां लोगों के मौजूदा और व्यावहारिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बनाई जाएंगी। इस तरह विशेषज्ञों द्वारा लिए फैसलों और जनता की इच्छाओं के बीच संतुलन हासिल किया जा सकेगा।

कुल मिलकर, लोकतंत्र सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए स्वाभाविक रूप से हानिकारक नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में जिस तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य का प्रबंधन होता है, उससे अक्सर महत्वपूर्ण कमियां बची रह जाती हैं।

संक्रमण से फैलने और न फैलने वाले रोग, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच, मानसिक स्वास्थ्य और गलत जानकारियां ऐसी चुनौतियां हैं जिनके लिए एक व्यापक और लम्बे समय के नजरिये की जरूरत है।

इसी के साथ, टिकाऊ स्वास्थ्य रणनीतियों को विकसित करने के लिए, स्वास्थ्य सेवा से जुड़े फैसलों को निकट भविष्य के राजनीतिक लाभ की चिंता से अलग करना होगा। इसी से मौजूदा और दूर भविष्य की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा।

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