स्वास्थ्य, भोजन व रोजगार के क्षेत्र में असलियत क्या है?

स्वास्थ्य, भोजन व रोजगार के क्षेत्र में असलियत क्या है?
डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं।

संसद का अंतरिम बजट सत्र हाल ही में समाप्त हुआ। इसके नौ दिनों में सरकार ने आत्म-प्रशंसात्मक विशेषणों की बाढ़ ला दी थी। लेकिन इस स्तम्भकार ने आंकड़ों के पीछे की हकीकतों पर प्रकाश डाला है, जो बताती हैं कि वास्तव में देश में लोग कैसे रह रहे हैं।

1. स्वास्थ्य : ‘आयुष्मान भारत योजना से गरीबों को काफी मदद मिली है।’
परिदृश्य अ : रेखा सरकारी अस्पताल जाती हैं और कतार में इंतजार करती हैं। उन्हें इलाज की सख्त जरूरत है। वे जानती हैं यहां उन्हें मिलने वाली चिकित्सा-सेवा स्तरहीन है, लेकिन उनकी जेब इतने भर की ही इजाजत देती है। इलाज तक पहुंचने की प्रक्रिया भी कठिन है।

आयुष्मान भारत योजना के तहत सरकारी अस्पतालों में संग्रहीत डेटा त्रुटियों से भरा है। संख्याएं या तो मृतकों की गलत पहचान करती हैं, सर्जरी के विवरण गलत दर्ज करती हैं या लाभार्थियों को सूची से बाहर कर देती हैं। यदि रेखा लालफीताशाही के चंगुल में नहीं फंसती हैं तो उनका इलाज सरकारी केंद्र में किया जाएगा, जहां संसाधन सीमित हैं और सुविधाएं निम्न स्तर की होती हैं। सरकार हेल्थकेयर में जीडीपी का मात्र 2.1% निवेश करती है। अपर्याप्त सरकारी सहायता के साथ-साथ जेब पर पड़ने वाला भारी बोझ हर साल 5.5 करोड़ भारतीयों को गरीब बना देता है।

परिदृश्य ब : रेखा पैसे बचाने के लिए मन से दवा ले लेती हैं। इससे उनके स्वास्थ्य को और खतरा उत्पन्न हो जाता है। हालिया एनएफएचएस रिपोर्ट के अनुसार, 2019 और 2021 के बीच सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग करने से बचने वाले परिवारों का अनुपात आश्चर्यजनक रूप से 49.9% था।

इसका मतलब यह है कि आधा देश जरूरत के समय सरकारी सुविधाओं की ओर रुख नहीं करता है। सामान्य वर्ग की 10 में से 6 महिलाओं और आदिवासी समुदाय की 10 में से 7 महिलाओं ने हेल्थकेयर तक पहुंच में कम से कम एक समस्या का सामना होने की सूचना दी है।

पुनश्च : इस वर्ष के एनएफएचएस डेटा के लिए जिम्मेदार इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज के निदेशक केएस जेम्स को रिपोर्ट जारी होने के तुरंत बाद सरकार द्वारा निलंबित कर दिया गया था!

2. खाद्य सुरक्षा : ‘भारत की खाद्य विविधता वैश्विक निवेशकों के लिए भी लाभकारी है।’
परिदृश्य अ : कविता ने सरकारी सब्सिडी वाली दुकान से राशन खरीदने का फैसला किया। कीमतें कम हैं तो पोषक-तत्व भी कम हैं। कविता की हकीकत का बयान अनेक स्वतंत्र सर्वेक्षण करते हैं, जैसे ग्लोबल हंगर इंडेक्स जिसमें भारत 125 में 111वें स्थान पर है।

परिदृश्य ब : कविता सुपरमार्केट से सामान खरीदने का विकल्प चुनती हैं। यह उन्हें अधिक विकल्प और बेहतर गुणवत्ता देता है, भले कीमतें अधिक हों। गुणवत्ता के लिए कविता अपने भोजन की संख्या कम कर देती है। उनकी दुर्दशा हाल ही में एफएओ, आईएफएडी, यूनिसेफ, डब्ल्यूएफपी और डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुरूप है, जिसमें पाया गया है कि चार में से तीन भारतीय (यानी एक अरब लोग) पोषक आहार का खर्च वहन नहीं कर पाते हैं।

3. रोजगार : ‘आज हर युवा का मानना है कि वह कड़ी मेहनत और कौशल के साथ नौकरी में अपनी स्थिति को मजबूत कर सकता है।’
परिदृश्य अ : मोहन ने एक भर्ती अभियान में भाग लेने का फैसला किया। अपने राज्य के पांच हजार अन्य लोगों की तरह वह युद्धग्रस्त इजराइल में नौकरी के लिए कतार में लग जाता है। जान का खतरा है लेकिन प्रतिमाह एक लाख रु. से अधिक कमाने का प्रलोभन भी है। यह उसकी अभी की कमाई से दस गुना ज्यादा है।

परिदृश्य ब : मोहन एक खाद्य सेवा कंपनी में डिलीवरी एजेंट के रूप में नौकरी करने पर विचार कर रहा है। उसके पास अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री है। लेकिन 25 साल से कम उम्र के अन्य 42% स्नातकों की तरह उसे भी रोजगार नहीं मिला है।

हर सुबह वह खुद को उन दस प्रतिशत लोगों में से एक पाता है, जिनके बारे में अखबार दो साल के रिकॉर्ड उच्चतम स्तर पर बेरोजगार होने की रिपोर्ट देते हैं। मोहन को बूढ़े माता-पिता का भरण-पोषण करना है। वह समझता है कि गिग वर्कर के रूप में कोई भी कानून उसे अपनी नौकरी खोने या अनिश्चित घंटों तक काम करने से नहीं बचाता है। वह कहता है, ‘मुझे इजराइल जाने दो।’ लेकिन संसद में प्रधानमंत्री के वक्तव्य में कविता, रेखा और मोहन की आवाजों को कोई जगह नहीं मिल पाई थी!

मोहन के पास स्नातक डिग्री है। पर 25 साल से कम उम्र के अन्य 42% स्नातकों की तरह उसे भी रोजगार नहीं मिला है। हर सुबह वह खुद को उन दस प्रतिशत लोगों में से एक पाता है, जिनके बारे में अखबार बेरोजगारी की रिपोर्ट देते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख की सहायक शोधकर्ता चाहत मंगतानी और वर्णिका मिश्रा हैं।)

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