विपक्ष को स्मार्ट होने की जरूरत !
विपक्ष को स्मार्ट होने की जरूरत, तार्किक आलोचना के साथ विकल्प भी जरूरी
चुनावों से पहले का वह मौसम है, जब राजनेता अंतिम क्षण की लामबंदी के अनुसार अर्थव्यवस्था को आगे रख दावों एवं विवादों पर तीखी बयानबाजी शुरू करते हैं। जहां तक अर्थव्यवस्था की बात है, तो वास्तविकता का रंग न तो श्वेत, न काला, बल्कि भूरा ज्यादा दिखता है। इस हफ्ते की शुरुआत तीन दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा केंद्र द्वारा धन हस्तांतरण में भेदभाव किए जाने के विरोध में एकजुट होने से हुई, जो पहले ही केंद्रीय उपकरों एवं बढ़ते अधिभारों से त्रस्त हैं, जिन्हें राज्यों के साथ साझा भी नहीं किया जाता है। केंद्र सरकार ने तुरंत उनके दावों की निंदा की और इसे देश को बांटने की कोशिश का हिस्सा बताया। दरअसल, जो राज्य अपनी अर्थव्यवस्था का बेहतर ढंग से प्रदर्शन करते हैं, उन्हें एकत्रित संसाधनों का एक छोटा हिस्सा मिलता है। उदाहरण के लिए, करों में प्रत्येक रुपये के योगदान के लिए कर्नाटक को 15 पैसे और तमिलनाडु को 29 पैसे वापस मिलते हैं, जबकि बिहार को 7.06 रुपये और उत्तर प्रदेश को 2.73 रुपये मिलते हैं। जाहिर है कि यदि भाजपा डबल इंजन सरकार का चुनावी प्रलोभन दे रही है, तो विपक्ष भी करों के बंटवारे को भेदभाव के साधन के रूप में प्रस्तुत करने से चूकने वाला नहीं है। उल्लेखनीय है कि हस्तांतरण में फर्क हस्तांतरण के फॉर्मूले के कारण होता है, जिसका आधार यह है कि जो राज्य जितना गरीब और अधिक आबादी वाला होगा, उसे उतना ही अधिक धन मिलेगा।
यह भी उतना ही सच है कि नई सहस्राब्दी में किसी भी व्यवस्था को बढ़ावा देने और हतोत्साहित करने के बीच तालमेल के लिए विकसित होना चाहिए। ऐसे में, बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों की नाराजगी समझी जा सकती है। सवाल यह है कि क्या वैसे राज्य जो बेहतर प्रदर्शन का चक्र बनाए रखते हैं, उन्हें कोई इनाम दिया जा रहा है?, क्या यह फॉर्मूला उस राज्य को किसी तरह से पुरस्कृत करने वाला है, जिसने निवेश के लिए माहौल में सुधार किया है और रोजगार को बढ़ाया है। जाहिर है कि यह बिल्कुल सही समय है, जब करों के बंटवारे के फॉर्मूले पर एक बार फिर विचार किया जाए। लेकिन यह संदर्भ संघ और राज्यों के बीच परिपक्व संवाद की मांग करता है, न कि तीखी बयानबाजी की। आदर्श रूप से, कांग्रेस, वामपंथी और अन्य क्षेत्रीय दलों को हर राज्य की राजधानियों में नए हस्तांतरण फॉर्मूले और
घोषणापत्र पर वैकल्पिक मॉडल रखकर एक सम्मेलन बुलाना चाहिए था, जिसमें वित्तमंत्री और अर्थशास्त्री भी शामिल हों और लोगों से इस पर मतदान करने के लिए कहना चाहिए।
इस पूरे हफ्ते अर्थशास्त्र पर राजनीति चलती रही। सरकार ने यूपीए सरकार की कई विफलताओं को सूचीबद्ध करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था पर 59 पृष्ठों का एक श्वेत पत्र जारी किया, जिसका केंद्रीय विषय फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार हैं। और इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे इस सरकार ने अर्थव्यवस्था को नाजुक स्थिति से मजबूती तक पहुंचाया और अमृत काल का मार्ग प्रशस्त किया। कांग्रेस ने भी बगैर देरी किए ‘दस साल अन्याय काल’ शीर्षक से 54 पृष्ठों का एक काला पत्र जारी करके इसका प्रतिकार किया। सरकार के पास गर्व करने लायक बहुत कुछ है-डिजिटल और भौतिक अवसंरचनाओं को बढ़ावा देने से लेकर राजकोषीय अनुशासन और सुर्खियों में रहने वाले 7.3 फीसदी के सकल घरेलू उत्पाद विकास अनुमान तक। लेकिन जीवनयापन की लागत और आजीविका के मुद्दों से निपटने के लिए इसे संघर्ष करना पड़ा है। लगभग सभी जनमत सर्वेक्षणों में लोगों ने मुद्रास्फीति और बेरोजगारी को अपनी भलाई और भविष्य को प्रभावित करने वाले गंभीर मुद्दों के रूप में रेखांकित किया है।
मुद्रास्फीति से संबंधित आंकड़ा बहुत गंभीर है। दिसंबर, 2023 में जब समग्र मुद्रास्फीति 5.7 फीसदी थी, खाद्यान्न मुद्रास्फीति 9.5 फीसदी थी, जो एक साल पहले 4.19 फीसदी थी। ग्रामीण मजदूरी में ठहराव से यह पीड़ा और बढ़ गई। इसका असर कम लागत के उत्पादों पर कॉरपोरेट रिपोर्टिंग और जीडीपी के आंकड़े में भी दिखाई देता है। निजी अंतिम उपभोग व्यय 4.4 फीसदी था, जबकि जीडीपी सात फीसदी से अधिक होने का अनुमान है। सब्जियों की कीमतें 27, दालों की 20, मसालों की 19.6 और अनाज की 9.9 फीसदी तक बढ़ी हैं। दिलचस्प बात यह है कि पोल्ट्री और मांस उत्पादों की कीमतें उतनी नहीं बढ़ी हैं। यह लगभग ऐसा ही है, मानो मुद्रास्फीति शाकाहारी हो गई है। शुक्र है कि सरकार के पास 81 करोड़ नागरिकों के लिए मुफ्त भोजन कार्यक्रम है, अन्यथा स्थिति गंभीर होती। लोगों के मन में बेरोजगारी का विचार उनके अनुभवों और आंकड़ों के बीच के स्थायी विरोधाभास को दिखाता है, जो सरकारी विभागों में 20 लाख से ज्यादा खाली पदों और नौकरियों के लिए मारामारी में दिखता है।
भारत 15 लाख से अधिक इंजीनियर पैदा करता है और इस महीने के प्रारंभ में आईटी सेवा कंपनियों ने संकेत दिया था कि इस बार कैंपस भर्ती दो दशकों में सबसे कम हो सकती है।
एमबीए कॉलेजों में कैंपस प्लेसमेंट में गिरावट आई है, क्योंकि कंपनियां अनिश्चित हैं। आवधिक श्रम बल के सर्वेक्षण से पता चलता है कि केवल 20 फीसदी श्रमबल के पास वेतनभोगी नौकरी है, 21 फीसदी आकस्मिक श्रम में लगे हैं और 57 फीसदी लोग खुद को स्व-रोजगारकर्ता बताते हैं। वास्तव में सबसे अधिक आबादी वाले और सबसे गरीब राज्यों में वेतनभोगी श्रमिकों का प्रतिशत सबसे कम है और स्व-रोजगार करने वालों की संख्या ज्यादा। अब भी मतदाताओं की पहली पसंद भाजपा है। विपक्ष सरकार की आलोचना करता है, पर वैकल्पिक मॉडल पेश नहीं कर पा रहा है। कांग्रेस के 2019 के घोषणा-पत्र में कुछ विचार थे, जिनमें से किसी को भी उन राज्यों में लागू नहीं किया गया, जहां वह सत्ता में थी। स्मार्ट नेताओं का तर्क है कि नेतृत्व प्रभावी ढंग से ‘एक’ और ‘एक’ को मिलाकर ‘तीन’ बनाने पर निर्भर करता है। लेकिन विपक्ष में 18 से अधिक पार्टियां कुछ सकारात्मक नहीं कर पा रही हैं। सैद्धांतिक रूप से, लोकतंत्र कीजीवंतता प्रतिस्पर्धी विचारों पर टिकी होती है। भारत में वास्तविकता यह है कि राजनीति अधिकतर तर्क-वितर्क का उद्योग है।