नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट से चुनावी बांड योजना रद होने के बाद राजनैतिक दलों के चंदे को लेकर चर्चा गर्म है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया का मानना है कि चुनावी फंडिंग में कालेधन को रोकने और पारदर्शिता लाने के लिए राजनैतिक दलों को चंदा पूरी तरह डिजिटल होना चाहिए और कारपोरेट घरानों को चंदा देने की मनाही हो। पेश हैं विजय हंसारिया के साथ इस मुद्दे पर विशेष संवाददाता माला दीक्षित की बातचीत के मुख्य अंश –

 चुनावी बांड एक बेयरर बांड है। उसे कोई भी ले सकता था। चेक दीजिए, एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक का बांड मिल जाएगा। उसे इन कैश सिर्फ राजनैतिक दल करा सकता था। उसमें यह पता नहीं चलता था कि किसने किसको कितना पैसा दिया। कैश और इलेक्टोरल बांड में ज्यादा अंतर नहीं है। मैने सिटीजन्स राइट्स ट्रस्ट की ओर से बहस करते हुए कोर्ट में कहा था कि पॉलिटिकल फंडिंग में पता होना चाहिए कि किसने किसको पैसा दिया। अगर सब गुप्त रखा जाएगा तो पॉलिटिकल फंडिंग कौन कर रहा है, कैसे कर रहा है, उससे नीतियां प्रभावित हो रही हैं कि नहीं ये पता नहीं चलत।

पहले भी ब्लैकमनी होती थी। कैश लेनदेन होता था और अब भी होते हैं। हां, एक शर्त थी कि 2000 से ज्यादा नकद नहीं दे सकते। आप दो- दो हजार की लाखों पर्चियां काट दीजिए वो अलग बात है लेकिन दो हजार से ज्यादा कैश नहीं दे सकते थे। चुनावी बांड ने उसे वैध कर दिया। तो इसने ब्लैक मनी को वाइट करने की एक कोशिश पैदा कर दी। इसने तो एक और रास्ता दे दिया था कि कॉरपोरेट हाउसेस फंडिंग कर दें।

कोर्ट ने योजना तो रद कर दी लेकिन कोई विकल्प नहीं दिया। क्या ऐसे मामले में कोर्ट को वैकल्पिक व्यवस्था नहीं देनी चाहिए थी।

हमने ये कहा था लेकिन कोर्ट ने कहा कि यह हमारा क्षेत्राधिकार नहीं है। हालांकि, मेरे मुताबिक वैकल्पिक व्यवस्था यही हो सकती है कि राजनैतिक दलों को चंदा पूरी तरह से डिजिटल कर दिया जाए। कोई दल एक भी रुपया कैश नहीं ले सकता। इसके लिए कानून लाया जाए।

चुनावी चंदे की शुरुआत से लेकर क्या व्यवस्था रही है। पहले कॉरपोरेट फंडिंग कैसे होती थी।

1960 से पहले कॉरपोरेट हाउस फंड नहीं दे सकता था। 1960 में पहली बार कंपनी एक्ट में सुधार लाया गया कि 25000 रुपये या मुनाफे का पांच फीसद दे सकते थे, 1969 तक यही चला। 1969 में फिर नियम आया कि कॉरपोरेट हाउस दलों को चंदा नहीं दे सकते, 1985 तक यही रहा। 1985 में नियम बना कि पिछले तीन सालों के औसत नेट प्रॉफिट का पांच फीसद तक दे सकते है। 2013 में नियम बना कि 7.5 फीसद दे सकते हैं और चुनावी बांड योजना आयी तो उसमें सौ फीसद दे सकते हैं। यानी शेल कंपनी बनाइये और चंदा दे दीजिए। प्रॉफिट से कोई मतलब नहीं। इससे तो बदले में लाभ को ही बढ़ावा मिलेगा। मेरे हिसाब से 1969 से 1985 के बीच का जो काल था जब कारपोरेट हाउस चंदा नहीं देते थे, वैसा ही होना चाहिए। इसके अलावा डिजिटल ट्रांसेक्शन कर दिया जाए। पारदर्शिता आ जाएगी।

दलों को ब्लैक मनी से फंडिंग रोकने और व्यवस्था सुधारने के लिए क्या होना चाहिए

उत्तर – कैश चंदे की 2000 की सीमा भी खत्म हो जानी चाहिए। चुनाव आयोग को बात न मानने वाले दलों को डीरजिस्टर करने की शक्ति दी जाए। जब तक दलों में डर नहीं होगा और चुनाव आयोग के पास शक्ति नहीं होगी तब तक सुधार नहीं होगा।