अपनी स्वतंत्रता का चुनाव करें, क्या हम ‘केंद्रीयवाद’ की तरफ बढ़ रहे हैं

अपनी स्वतंत्रता का चुनाव करें, क्या हम ‘केंद्रीयवाद’ की तरफ बढ़ रहे हैं
क्या हम एक कल्पित, डरावनी कहानी को जी रहे हैं? कांग्रेस को लेकर भाजपा की सोच तो स्पष्ट है, लेकिन गैर-कांग्रेसी दलों के साथ वह क्या कर रही है? क्या संसदीय लोकतंत्र को खत्म कर हम ‘केंद्रीयवाद’ का स्वागत करेंगे? क्या हम इतिहास से सीखेंगे?

अगर आदर्श रूप से देखें, तो किसी देश की सरकार चुनने के लिए चुनाव, दरअसल एक सामान्य राष्ट्रीय उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए लोगों को एकजुट करने के लिए होना चाहिए। लोग ए। लोग भले ही अपने वोट पार्टी ‘ए’ या फिर ‘बी’ और या फिर कई पार्टियों में बांट कर दें, लेकिन उद्देश्य समान होना चाहिए। वोटों का यह विभाजन स्वाभाविक और स्वस्थ है और यह कोई स्थायी बिगाड़ पैदा नहीं करेगा। भारत में शुरुआती कुछ चुनाव असंतुलित थे। कांग्रेस अकेला संगठित दल था।

जवाहरलाल नेहरू एक महान नेता थे। उस वक्त कांग्रेस के प्रतिरोध में कुछ ही आवाजे थीं। दो समान ताकत वाले प्रतिद्वंद्वियों के बीच पहला वास्तविक चुनाव 1977 में हुआ। आपातकाल के बाद की परिस्थितियों में जयप्रकाश नारायण विपक्षी दलों को एक छतरी के नीचे लाए। जनता पार्टी की जीत निर्णायक थी, लेकिन इसने भारतीयों को बांट दिया। उत्तरी राज्यों ने एक तरह से, तो दक्षिणी राज्यों ने दूसरी तरह से मतदान किया। उत्तर और दक्षिण का यह विभाजन 1977 से कायम है।

दुर्भाग्यशाली विभाजन
कुछ अपवादों के साथ बाद के चुनावों में भी उत्तर और दक्षिण के मतदान के तरीकों में फर्क रहा। हिंदी भाषी और हिंदी जानने वाले उत्तरी राज्यों में प्रमुख प्रतिद्वंद्विता कांग्रेस और भाजपा में रही। धीरे-धीरे, लेकिन मजबूती के साथ भाजपा यहां कांग्रेस से आगे निकल गई। लेकिन दक्षिण राज्यों की स्थितियां अलग थीं। 1977 के बाद हुए चुनावों में यहां के क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को चुनौती दी। तमिलनाडु में द्रमुकं और अन्नाद्रमुक, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम और वाईएसआरसीपी, तेलंगाना में टीआरएस, कर्नाटक में जद (एस) और केरल में कम्युनिस्ट के नेतृत्व वाला एलडीएफ। भाजपा इस भीड़ भरी लड़ाई में घुसपैठ नहीं कर सकी। हालांकि कर्नाटक में उसने ऐसा किया, लेकिन नतीजे मिले-जुले ही रहे।

क्षेत्रीय दलों की सफलता ने उत्तर और दक्षिण के बीच दूरियां बढ़ा दी हैं। दरअसल, दक्षिणी राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को लेकर बेहद सशंकित हैं। भाजपा को हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व की पार्टी के रूप में चित्रित करने में कांग्रेस से ज्यादा बड़ी भूमिका इन्हीं क्षेत्रीय दलों की रही है। क्षेत्रीय भाषा पर अभिमान, सभी धार्मिक समूहों की स्वीकार्यता और समाज सुधारकों की विरासत ने दक्षिणी राज्यों के लिए एक अलग रास्ता तय किया है। राजस्व के हस्तांतरण में कथित भेदभाव, क्षेत्रीय भाषाओं पर हिंदी का प्रभुत्व और भोजन, वस्त्र, संस्कृति इंत्यादि मामलों में मान्यताओं के एक सेट को बढ़ावा देने से दक्षिणी राज्यों का संशय और गहराता है। इसके अलावा, भाजपा ने राज्यों की स्वायत्तता को कम करने वाले कई कानून बनाकर केंद्र-राज्य संबंधों में ‘केंद्रवाद’ का जहर भी घोला ‘है। भाजपा ने कानूनों को हथियार बनाकर क्षेत्रीय दलों को कमजोर बनाने और उन पर काबू रखने के लिए खुलेआम उनका इस्तेमाल भी किया है। नतीजा, उत्तर और दक्षिण के बीच की दूरी दुर्भाग्यवश और बढ़ गई है।

एजेंडा खुल चुका है
कांग्रेस के प्रति भाजपा का दृष्टिकोण तो स्पष्ट है। वह कांग्रेस-मुक्त भारत चाहती है यानी ऐसा भारत जिसमें कांग्रेस का एक पार्टी के तौर पर अस्तित्व ही न हो। लेकिन गैर-कांग्रेसी दलों के प्रति भी उसका रवैया यहीं है। ऐसा महूसस होतां है कि वह कुछ समय के लिए किसी क्ष्ज्ञेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन भले कर ले, लेकिन उसका अंतिम उद्देश्य उस पार्टी को खत्म करना ही है। जनता पार्टी, अकाली दल, आईएनएलडी, बसपा और जद (एस) सभी इसके उदाहरण हैं। इसने देश के उत्तरी-पूर्वी राज्यों की क्षेत्रीय पहचान एकदम खत्म कर दी है। एक समय पर इसने टीएमसी, वाईआरएससीपी और टीआरएस से दोस्ती की थी, लेकिन उसका लक्ष्य क्रमशः पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से उन्हें खत्म करना था और है भी। महाराष्ट्र, ओडिशा और हरियाणा में भी लक्ष्य एक ही है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक समय रहते जाग गए। शिवसेना, एनसीपी ‘और जजपा देर से जागे। जल्द ही आएलडी, बीजेडी और टीडीपी को एहसास हो जाएगा कि अगर भाजपा केंद्र में मजबूत होती है, तो उनका क्या होगा।

भाजपा अपने मूल एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए लोगों से पार्टी को 370 सीटें देने के लिए कह रही है। हालांकि इसका हिंदुत्व अभियान अयोध्या और काशी तक सीमित नहीं रहने वाला। हिंदू मंदिरों के पास और मस्जिदों पर विवाद खड़ा किया जाएगा। ज्यादा शहरों और सड़कों का नाम बदला जाएगा। नागरिकता संशोधन कानून, 2019 बीती 11 मार्च, 2024 की अधिसूचना के साथ जारी हुआ है। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता का जो प्रयोग किया गया, उसे दोहराते हुए संसद में कानून पारित किया जाएगा। संविधान में संशोधन करके एक राष्ट्र एक चुनाव के विचार को कानून बनाया जाएगा।

संघीय मूल्य और संसदीय लोकतंत्र कमजोर होता जाएगा और देश राष्ट्रपतीय शासन प्रणाली के नजदीक पहुंच जाएगा, जिसमें सभी शक्तियां एक ही आदमी में केंद्रित होंगी। दुर्भाग्य से बहुत से लोग केंद्रीयवाद का स्वागत करेंगे, क्योंकि सच्चे लोकतांत्रिक मूल्यों को हमारे परिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचे में पूरी तरह से आत्मसात नहीं किया गया है। विकास के नाम पर हम अमीरों को ज्यादा अमीर होते देखेंगे और निचले 50 फीसदी लोगों से कहेंगे कि वे कुल संपत्ति के तीन फीसदी और राष्ट्रीय आय के तेरह फीसदी हिस्से से संतुष्ट रहें। सामाजिक व सांस्कृतिक पराधीनता व उत्पीड़न जारी रहेगा। आर्थिक विषमताएं अधिक बढ़ेंगी।

इतिहास से सीखें
ये कोई कल्पित डरावनी कहानी नहीं है। इतिहास हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता व विकास सुनिश्चित करने के लिए समय- समय पर शासन को बदलना जरूरी होता है। यूरोप और अमेरिका में भी ऐसा ही होता है। दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के देशों ने यह सबक नहीं सीखा, तो आज सत्तावादी सरकारों से पीड़ित हैं। भारत में हमने सबक तो सीखे थे, लेकिन महसूस होता है कि हम उन्हें भूल चुके हैं। चीन, रूस, तुर्की और ईरान के उदाहरण सामने हैं। पूरी दुनिया भारत के चुनावों पर नजर रखे है।

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