राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की है ज़रूरत ?
क्या देश के आम लोग ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के लिए हैं तैयार, राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की है ज़रूरत
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर उच्च स्तरीय समिति ने 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को रिपोर्ट सौंपी थी
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर उच्च स्तरीय समिति ने पिछले हफ़्ते (14 मार्च) अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को सौंप दी. अब सवाल उठता है कि क्या लोक सभा चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बन पाएगा. यह महत्वपूर्ण मसला है. देश के हर नागरिक और मतदाताओं के हित से जुड़ा मसला है. इससे संवैधानिक पहलू के साथ ही सामाजिक आयाम भी जुड़ा हुआ है. यह देश में मौजूदा लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत काम कर रही संसदीय व्यवस्था पर व्यापक असर से जुड़ा विषय है.
इस मुद्दे से देश के नागरिकों के साथ ही राजनीतिक तंत्र का भी सीधा संबंध है. चाहे सत्ताधारी राजनीतिक दल हों या विपक्षी दल, ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से सबका हित जुड़ा हुआ है. शासन-प्रशासन के अलग-अलग स्तर पर देश के आम लोगों का वर्तमान और भविष्य कौन तय करेगा, उससे ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा का सीधा जुड़ाव है.
आम जनता के बीच व्यापक चर्चा पर हो ज़ोर
ऐसे में यह बेहद ज़रूरी है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से जुड़ी बारीकियों पर जनता के बीच व्यापक चर्चा हो. लोक सभा चुनाव का माहौल है. चुनाव कार्यक्रम का एलान भी हो चुका है. तमाम राजनीतिक दल और उनके नेता-कार्यकर्ता ज़ोर-शोर से प्रचार में जुटे है. अपनी-अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए जनता का समर्थन हासिल के नज़रिये से मुद्दों को भी गढ़ने में तमाम दल व्यस्त हैं.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा के सर्वांगीण महत्व को देखते हुए यह ज़रूरी है कि इस बार के लोक सभा चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बने. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी लगातार तीसरा कार्यकाल पाने की जिद्द-ओ-जहद में जुटी है. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एजेंडे में प्राथमिकता से शामिल है. इसमें किसी तरह का शक-ओ-शुब्हा नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके लिए 2014 के बाद से ही देश में माहौल बनाने को लेकर प्रयासरत है. हालाँकि इस अवधारणा को लागू करने के लिए संसद के दोनों सदनों में पर्याप्त संख्या बल नहीं होने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक इसे लागू नहीं कर पाए हैं.
आम सहमति बनाने की कोशिश क्यों नहीं?
पिछले कुछ महीनों में इस मसले पर मोदी सरकार तेज़ी से आगे बढ़ी है. दूसरा कार्यकाल खत्म होने या कहें, लोक सभा चुनाव से महज़ चंद महीने पहले 2 सितंबर, 2023 को मोदी सरकार अपने इस एजेंडे पर आगे बढ़ने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन कर देती है.
कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इस अवधारणा के ख़िलाफ़ थे. इसके साथ ही देश के मौजूदा राजनीतिक हालात के मद्द-ए-नज़र संविधान और क़ानून के बड़े-बड़े जानकारों में से एक बड़ा तबक़ा भी इस अवधारणा के ख़िलाफ़ रहा है. सामाजिक संगठनों की ओर से भी लगातार इसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होती रही है. ऐसे में यह अवधारणा जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही विवादित भी रहा है.
राष्ट्रपति का पद और उच्च स्तरीय समिति
मुद्दा विवादित भी था और महत्वपूर्ण भी. इसके बावजूद मोदी सरकार एक उच्च स्तरीय समिति का गठन कर देती है. यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन इस समिति का अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बना दिया जाता है. भारत में राष्ट्रपति का पद बेहद सम्मानित पद है. संविधान के तहत सैद्धांतिक तौर से राष्ट्रपति में ही कार्यपालिका शक्ति निहित होती है. संसदीय सरकार में राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष होते हैं. बतौर गणतांत्रिक प्रमुख होने के नाते इस पद की गरिमा सर्वोपरि है.
विवादित मसला होते हुए भी पूर्व राष्ट्रपति को उच्च स्तरीय समिति का अध्यक्ष बना दिया जाता है. उस वक़्त यह अपने आप में विवाद का विषय बन गया था. पद से सेवानिवृत्त होने के बाद किसी पूर्व राष्ट्रपति को ऐसे मसले में ले आना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है, जिसमें राजनीतिक तौर से विवाद की भरपूर गुंजाइश हो. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी के साथ ही संवैधानिक मामलों के कई जानकार मोदी सरकार की इस पहल की लगातार आलोचना करते रहे हैं. राष्ट्रपति का पद एक ऐसी संवैधानिक संस्था है, जिसे हर तरह की राजनीति से परे होना चाहिए. इस तथ्य के बावजूद मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को समिति का अध्यक्ष बना दिया. यह चिंतनीय पहलू है.
समिति में विपक्ष की आवाज़ को जगह नहीं
इस समिति में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, बतौर कांग्रेस सदस्य राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके गुलाम नबी आज़ाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन. के. सिंह, लोक सभा के पूर्व महासचिव सुभाष सी. कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी सदस्य थे. वहीं विधि और न्याय राज्य मंत्री ( स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल विशेष आमंत्रित सदस्य थे. जबकि भारत सरकार में सचिव नितेन चन्द्र को इस उच्च स्तरीय समिति का सचिव बनाया गया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अतीत में कह चुके हैं कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के मसले पर देशव्यापी चर्चा होनी चाहिए. मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि इसे आम सहमति से ही लागू किया जाना चाहिए. हालाँकि उच्च स्तरीय समिति की संरचना से स्पष्ट है कि इसमें विपक्षी आवाज़ को जगह नहीं दी गयी थी. समिति की संरचना से ही समझा जा सकता है कि इसका गठन देश के लोगों की राय जानने के लिए नहीं, बल्कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को कैसे लागू किया जाए, उसकी प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए किया गया था.
मोदी सरकार की मंशा के मुताबिक़ सिफ़ारिश
समिति की रिपोर्ट 18 हज़ार पन्नों से अधिक में है, लेकिन पब्लिक डोमेन में मौजूद रिपोर्ट इंग्लिश में 321 पेज और हिंदी में 375 पेज में है. जैसी कि उम्मीद थी, मोदी सरकार पिछले कई वर्ष से जो कह रही थी, इस समिति की सिफ़ारिशें उसी के अनुरूप है. सिफ़ारिशों से एक बात स्पष्ट है कि समिति ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के मसले पर देश का मूड नहीं समझ रही थी या फिर देश के आम लोग क्या चाहते हैं, इसको लेकर कोई विचार-विमर्श नहीं कर रही थी. समिति का मुख्य मक़सद ही यह बताना था कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ देश की ज़रूरत है. इसे लागू करने में न तो संवैधानिक तौर से और न ही लॉजिस्टिक्स या व्यावहारिक स्तर पर कोई अड़चन आएगी.
देश में मतदाताओं की संख्या 97 करोड़ है
इतने महत्वपूर्ण विषय पर समिति गठन के 195 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप देती है. यह पूरा काम साढ़े छह महीने में पूरा कर लिया जाता है. वर्तमान में देश की आबादी 140 करोड़ से अधिक है. इस बार के लोक सभा चुनाव के लिए कुल 97 करोड़ मतदाता हैं. इनमें से 49.7 करोड़ पुरुष, 47.1 करोड़ महिलाएं और 48 हजार ट्रांसजेंडर शामिल हैं. ऐसे मतदाताओं की संख्या 1.8 करोड़ है, जो पहली बार मतदान करेंगे. देशभर में मतदाता लिंगानुपात 948 है. पुरुष मतदाताओं की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अधिक है.
मसले पर राय-मशवरा का दाइरा रहा सीमित
कहने का तात्पर्य है कि भारत में जनसंख्या के लिहाज़ से एक बड़ी आबादी है. मतदाताओं के लिहाज़ से भी आँकड़ा विशाल है. ऐसे में समिति महज़ साढ़े छह महीने में इतने महत्वपूर्ण विषय पर रिपोर्ट दे देती है. इससे समझा जा सकता है कि सैद्धांतिक तौर से राय-मशवरा को लेकर समिति का दाइरा कितना विस्तृत रहा होगा.
एनडीए में शामिल अधिकांश दल पक्ष में
समिति को 47 राजनीतिक दलों से प्रतिक्रिया मिली. इनमें से 32 दल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के पक्ष में थे. 15 दल इसके ख़िलाफ़ थे. यहाँ पर ग़ौर करने वाली बात है कि पक्ष में रहने वाले अधिकांश वहीं दल थे, जो बीजेपी के साथ एनडीए का हिस्सा हैं. बीजेपी के साथ ही एनडीए में शामिल प्रमुख दल…जेडीयू, एलजेपी (आर), नेशनल पीपुल्स पार्टी, आजसू, अपना दल (सोने लाल), असम गण परिषद, मिज़ो नेशनल फ्रंट, नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी, शिव सेना, सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा, यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल, हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा, आरपीआई (आठवले) और एनसीपी (अजित पवार) ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के पक्ष में हैं. इनके अलावा बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल और एआईएडीएमके भी पक्ष में हैं.
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ वाले दल विरोध में
वहीं कांग्रेस, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और सीपीआई (एम), सीपीआई, एआईएमआईएम, नागा पीपुल्स फ्रंट, एडीएमके जैसी पार्टियां इसके विरोध में हैं.
इनके अलावा वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कॉन्फ्रेंस, जनता दल (सेक्युलर), केरल कांग्रेस (एम), एनसीपी (शरद पवार), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, इंडियन युनियन मुस्लिम लीग और शिरोमणि अकाली दल ( सिमरनजीत सिंह मान) की ओर से समिति को कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.
इन प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय पार्टियों में सिर्फ़ बीजेपी और नेशनल पीपुल्स पार्टी पक्ष में थी. वहीं बाक़ी चार राष्ट्रीय पार्टी.. कांग्रेस, बसपा, आम आदमी पार्टी और सीपीआई (एम) ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के विरोध में थी.
आम लोगों की प्रतिक्रिया का दाइरा सीमित
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर राजनीतिक दलों के मुक़ाबले देश के आम लोगों की प्रतिक्रिया अधिक महत्व रखती है. समिति को आम लोगों से भी प्रतिक्रिया मिली है, लेकिन देश की आबादी के लिहाज़ से उनकी संख्या बेहद कम है. वेबसाइट फीडबैक विश्लेषण पर 5,232 प्रतिक्रिया मिली. इनमें से 3,837 प्रतिक्रिया पक्ष में और 1,395 प्रतिक्रिया विरोध में थी. इसी तरह से डाक से 154 प्रतिक्रिया मिली, जिनमें 109 पक्ष में और बाक़ी 45 प्रतिक्रिया विरोध में थी. ई-मेल के माध्यम से 16,172 लोगों की प्रतिक्रिया मिली. इनमें 13,396 लोग पक्ष में और 2,776 लोग विरोध में थे. ई-मेल से प्राप्त प्रतिक्रिया के सेगमेंट में आम जनता के साथ ही प्रतिष्ठित हस्तियों और राजनीतिक दलों के नेताओं की भी हिस्सेदारी थी. इन प्रतिक्रियाओं को एक साथ मिला भी दें, तो भारत की बड़ी आबादी के लिहाज़ से इसे देशव्यापी राय-शुमारी बिल्कुल भी नहीं मानी जा सकती है.
अवधारणा सैद्धांतिक तौर से अलोकतांत्रिक नहीं
‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा संवैधानिक और सैद्धांतिक तौर से अलोकतांत्रिक नहीं है. भारत में 1967 तक कमोबेश लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ करते थे. उसके बाद अलग-अलग राज्यों में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ, जिससे अलग-अलग राज्यों में विधान सभा का कार्यकाल अलग-अलग हो गया. इससे लोक सभा और सभी विधान सभाओं का चुनाव एक साथ कराना संभव नहीं रहा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने अपने दो कार्यकाल में कई बड़े फ़ैसले लिए. देश के आम लोग तैयार हैं या नहीं, हमारी सामाजिक संरचना उस लिहाज़ से परिपक्व है या नहीं, इन बिंदुओं पर अधिक मंथन किए बिना भी कुछ फ़ैसले लिए गए. ऐसे फ़ैसलों में नोटबंदी और इलेक्टोरल बॉन्ड का उदाहरण शामिल है. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ ऐसा ही एक मुद्दा है, जो मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल रहा है. मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार की ओर से ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ पर ज़ोर दिया जा रहा है.
शासन के तीनों स्तर का अलग-अलग महत्व
अब ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा में लोक सभा और विधान सभा चुनाव के साथ ही नगर पालिकाओं और पंचायतों का भी चुनाव शामिल हो गया है. ये तीनों शासन के तीन स्तर हैं. नगर पालिका और पंचायतों को भी अब संवैधानिक दर्जा हासिल है. लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिहाज़ से इन तीनों स्तर का अपना महत्व है. आम लोगों के लिए एक देश के नज़रिये से, एक राज्य के नज़रिये से और एक स्थानीय स्वशासन के नज़रिये से काफ़ी मायने रखता है. तीनों स्तर पर हित और भावनात्मक जुड़ाव के नज़रिये से आम लोगों के लिए मुद्दे अलग-अलग होते हैं.
अलग-अलग निर्णय लेने की स्थिति पर हो ग़ौर
ऐसे में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा में आम लोगों से जुड़े इस पहलू पर व्यापक तरीक़े से ग़ौर करने की ज़रूरत है. एक साथ चुनाव होने पर क्या आम लोग इन तीनों ही स्तर पर अलग-अलग निर्णय लेने की स्थिति में हैं या नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि इस व्यवस्था से केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ राजनीतिक दल हमेशा ही विधान सभा और स्थानीय निकायों में अधिक लाभ हासिल करने की स्थिति में रहे.
अभी भी देश के आम लोगों के लिए लोकतंत्र में सहभागिता का मतलब बस मतदान करने से है. संवैधानिक और राजनीतिक परिपक्वता की कसौटी पर आम लोगों की सामान्य जानकारी और समझ अभी तक उस रूप में विकसित नहीं हो पायी है, जैसी होनी चाहिए थी. तभी तो राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव-दर-चुनाव वादों की झड़ी लगती रहती है. उन वादों का क्या हुआ इसको परखे बिना आम लोग अगले चुनाव में फिर से नये-नये वादों में उलझकर रह जाते या उलझा दिए जाते हैं.
आम लोगों के निर्णय की क्षमता से जुड़ा पहलू
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा को लागू करने से पहले आम लोगों की सोच और निर्णय करने की मौजूदा क्षमता पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है. मतदाताओं को अलग-अलग तीन तरह के शासन के स्तर के लिए एक साथ निर्णय लेना होगा. अभी तो अधिकांश राज्यों में आम लोगों के पास विकल्प होता है कि लोक सभा में अलग नज़रिये से सोचकर मतदान करें. साथ ही विधान सभा और नगरपालिका-पंचायतों में अलग दृष्टिकोण से मतदान का फ़ैसला लें. कई स्टडी में ऐसा निष्कर्ष निकला भी है कि एक साथ चुनाव होने से मतदाताओं का एक बड़ा तबक़ा तीनों स्तर पर उसी दल को वोट दे सकता है, जिसे वो लोक सभा के नज़रिये से पसंद कर रहा होता है.
हर पहलू पर हो विस्तार से विचार-विमर्श
देश के मतदाताओं को संविधान से मत देने का अधिकार मिला हुआ है. यह एक तरह से मूल अधिकार है, जो अनुच्छेद 19 (1)(A) से हासिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही हिस्सा है. देश के हर मतदाताओं की शैक्षणिक समझ समान नहीं है. यह सच्चाई है कि देश में उन मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है, जिनके लिए संवैधानिक और राजनीतिक तंत्र के तहत चुनावी प्रक्रिया समझना ही एक तिलिस्म के समान है. आम या बहुसंख्यक मतदाताओं की सामाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि को देखते हुए ही बहुत सोच-विचार कर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा को लागू का फ़ैसला लिया जाना चाहिए.
अलग-अलग नज़रिये से सोचना संभव नहीं
सिर्फ़ संवैधानिक, प्रशासनिक और लॉजिस्टिकल पहलू से जुड़े आयामों के आधार पर ही कोई फ़ैसला नहीं लिया जाना चाहिए. शासन के तीन स्तरों पर आम लोगों के मत देने का अधिकार इस फ़ैसले से जुड़ा है. ऐसे में संसदीय व्यवस्था में आम लोगों के लिए मतदान के अलावा भागीदारी की बेहद कम गुंजाइश रखी गयी है. उसमें भी अगर एक साथ चुनाव होने लगेगा, तो, मनोवैज्ञानिक तौर से आम मतदाता के पास अलग-अलग स्तर के लिए दलों का विकल्प कम हो सकता है.
दिन-रात रोज़ी-रोटी के लिए मशक़्क़त करने वाली बहुसंख्यक जनता के लिए मतदान के दिन अलग-अलग नज़रिये से सोचना संभव नहीं है. इस क्षमता का विकास किए बिना ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा को लागू करना ख़तरनाक साबित हो सकता है. इस क्षमता के विकास के बिना भविष्य में शासन के तीनों स्तर पर एक दल का प्रभुत्व स्थापित होने की संभावना बढ़ जाएगी. नागरिकों और लोकतंत्र की मज़बूती दोनों लिहाज़ से इस पहलू पर ग़ौर किया जाना चाहिए.
राजनीति करने के तौर-तरीक़ों में बदलाव
भारतीय राजनीति और समाज में 1967 के बाद बहुत बड़ा बदलाव हो चुका है. राजनीति करने के तौर-तरीक़ों में भी बदलाव हुआ है. राजनीति अब जन कल्याण से ज़ियादा सत्ता में हिस्सेदारी के इर्द-गिर्द सिमट गयी है. दल-बदल क़ानून के बावजूद राजनीतिक दलों में उछल-कूद का सिलसिला हाल के वर्षों में पहले से भी तेज़ हो गया है. राजनीतिक उछल-कूद सिर्फ़ नेताओं या कार्यकर्ताओं तक सीमित नहीं रह गयी है. अब इस उछल-कूद में तमाम राजनीतिक दल ही शामिल हो गए हैं. कौन-सा दल कब किस पाले में चला जाएगा, इसको लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता है.
ऐसे में राज्यों में बार-बार बीच में ही विधान सभा के भंग होने की संभावना हमेशा ही बनी रहेगी. अगर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की व्यवस्था लागू हो गयी, तो, संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद विधान सभाओं के 5 साल के कार्यकाल पर हमेशा ही ख़तरा बना रहेगा. त्रिशंकु या बीच में भंग होने की स्थिति में विधान सभाओं का कार्यकाल पूरी तरह से लोक सभा के कार्यकाल पर निर्भर हो जाएगा. ऐसी स्थिति बार-बार पैदा हो सकती है, जिसमें विधान सभा का कार्यकाल सीमित करना पड़े.
यह सच्चाई है कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था एक संघात्मक ढाँचा होते हुए भी एकात्मक स्वरूप लिए हुए है. कई मामलों में केंद्र सर्वोपरि है. इसके बावजूद विधानमंडलों के जरिए एक ऐसी व्यवस्था चलती है, जिससे विधायी और प्रशासनिक मामलों में काफ़ी हद तक राज्यों को स्वायत्तता भी हासिल है.’एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा लागू होने पर किसी भी तरह से इस स्वायत्तता पर आँच नहीं आनी चाहिए.
उच्च स्तरीय समिति की सिफ़ारिशों पर नज़र
अब पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति की सिफ़ारिशों पर सरसरी निगार डालते हैं. मोदी सरकार चाहती है कि भविष्य में देश में लोक सभा, विधान सभा और स्थानीय निकायों (नगरपालिका और पंचायत) का चुनाव एक साथ हो. अभी ये तीनों चुनाव एक साथ नहीं हो पाता है. वर्तमान में लोक सभा और विधान सभा का चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी संविधान के भाग 15 के अनुच्छेद 324 में वर्णित निर्वाचन आयोग के पास है. इसे आम भाषा में लोग इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया के नाम से भी जानते हैं. वहीं नगरपालिका और पंचायत चुनाव कराने का काम राज्य निर्वाचन आयोग के पास है.
अनुच्छेद 82A और 324A जोड़ने की सिफ़ारिश
उच्च स्तरीय समिति ने भी मोदी सरकार की मंशा के मुताबिक़ अपनी रिपोर्ट दी है. समिति ने इस अवधारणा को लागू करने के लिए संविधान के कुछ प्रावधानों में बदलाव की ज़रूरत बतायी है. साथ ही संविधान में कुछ नए अनुच्छेद जोड़ने की भी अनुशंसा की है. समिति ने नए प्रावधान के तहत संविधान में अनुच्छेद 82A और अनुच्छेद 324A जोड़ने की सिफ़ारिश की है. इन दोनों अनुच्छेदों को जोड़ने से क्या हासिल होगा, पहले आगे समझेंगे. इसके अलावा एक प्रक्रिया बताई है जिससे भविष्य में इस अवधारणा को कैसे लागू किया जा सकता है.
पहली बार लागू करने की प्रक्रिया कैसी होगी?
समिति के मुताबिक़ लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म होने के साथ ही राज्यों के तमाम विधान सभाओं का कार्यकाल समाप्त हो जाए, भले ही उन विधान सभाओं का 5 साल का समय पूरा हुआ हो या नहीं. उदाहरण से समझें. मान लें 2029 में इस अवधारणा को लागू करना है. 2029 में लोक सभा का कार्यकाल अगर जून में खत्म हो रहा है, तो तमाम विधान सभाओं का कार्यकाल भी इस तिथि को ही समाप्त हो जाएगा. इससे लोक सभा और सभी विधान सभाओं का चुनाव एक साथ कराना संभव हो पाएगा.
अनुच्छेद 82A से क्या करना होगा आसान?
हालाँकि इसके लिए अनुच्छेद 173 का प्रावधान अड़चन है. इस अनुच्छेद में विधान सभाओं के लिए 5 वर्ष का कार्यकाल है. इस अड़चन को दूर करने के लिए ही समिति ने संविधान में अनुच्छेद 82A जोड़ने की सिफ़ारिश की है. वर्तमान में अनुच्छेद 83 में लोक सभा का कार्यकाल 5 वर्ष तय है. उसी तरह से अनुच्छेद 172 में विधान सभा के लिए कार्यकाल 5 वर्ष तय है. अनुच्छेद 82A के जुड़ने से ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की अवधारणा को पहली बार लागू करने में विधान सभाओं के लिए 5 वर्ष के कार्यकाल से जुड़ी संवैधानिक बाध्यता दूर हो जाएगी.
इसे फिर से एक उदाहरण से समझते हैं. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की शुरूआत के लिए 2029 को आधार वर्ष मान लेते हैं. वर्तमान पश्चिम बंगाल विधान सभा कार्यकाल 2026 में ख़त्म हो रहा है. वहाँ मार्च-अप्रैल 2026 में विधान सभा चुनाव होना है. इस चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल का कार्यकाल 2031 में खत़्म होना चाहिए, लेकिन ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा अगर लागू हो जाती है, तो पश्चिम बंगाल का कार्यकाल 2029 में ही उस दिन समाप्त हो जाएगा, जिस दिन लोक सभा का कार्यकाल पूरा हो रहा है. देश के हर राज्य विधान सभा के लिए यही नियम लागू होगा.
लोक सभा के कार्यकाल पर बढ़ेगी निर्भरता
अब एक और सवाल है. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की शुरूआत हो जाती है. लोक सभा और सभी विधान सभाओं का चुनाव एक साथ हो जाता है. अब सवाल उठता है कि उसके बाद किसी कारणवश किसी राज्य में विधान सभा पहले भंग हो गयी, तब क्या होगा. कोई भी राज्य विधान सभा अविश्वास प्रस्ताव, त्रिशंकु सदन या किसी अन्य कारण से भंग हो सकती है. ऐसी स्थिति के लिए उच्च स्तरीय समिति ने कहा है कि उस विधान सभा के लिए नए सिरे से चुनाव कराये जाएंगे, लेकिन उसका कार्यकाल लोक सभा के साथ समाप्त हो जाएगा. इसका मतलब है कि उस अवधि में उस विधान सभा का कार्यकाल 5 साल का नहीं, बल्कि लोक सभा के लिए बचे समय तक ही होगा.
समिति ने नगर पालिकाओं और पंचायतों का भी चुनाव लोक सभा और सभी विधान सभाओं के साथ ही कराने की सिफ़ारिश की है. इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 324A जोड़ने की सिफ़ारिश की गयी है. इस नये अनुच्छेद से एक तरह से नगर पालिकाओं और पंचायतों का चुनाव भी देश के निर्वाचन आयोग के अधीन आ जाएगा. साथ राज्य निर्वाचन आयोग की भी भूमिका रहेगी.
व्यवस्था को दो चरणों में लागू करने की सिफ़ारिश
समिति का कहना है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा दो चरण में लागू की जाए. पहले चरण में सबसे पहले लोक सभा और सभी विधान सभाओं का चुनाव एक साथ हो जाए. उसके बाद दूसरे चरण में इसके 100 दिन बाद नगर पालिकाओं और पंचायतों का चुनाव हो जाए. पहली बार में नगर पालिकाओं और पंचायतों के कार्यकाल से जुड़ी अड़चनों को विधान सभाओं की तरह ही दूर कर लिया जाएगा. बाद में लोक सभा, विधान सभाओं और स्थानीय निकायों का कार्यकाल स्वाभाविक तौर से एक साथ चलने लगेगा. वर्तमान में अनुच्छेद 243E में पंचायतों के लिए और अनुच्छेद 243U में नगर पालिकाओं के लिए 5 साल का कार्यकाल तय है. पहली बार में नए अनुच्छेद 324A की मदद से इस अड़चन को भी दूर किया जा सकेगा.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ और एकल मतदाता सूची
इनके अलावा उच्च स्तरीय समिति ने एकल मतदाता सूची बनाने की सिफ़ारिश की है. फ़िलहाल अनुच्छेद 325 के तहत देश का निर्वाचन आयोग लोक सभा और विधान सभा के लिए मतदाता सूची या’नी निर्वाचक नामावली बनाता है. वहीं अनुच्छेद 243K और अनुच्छेद 243ZA के तहत नगर पालिकाओं और पंचायतों के लिए मतदाता सूची राज्य निर्वाचन आयोग तैयार करता है. जब लोक सभा, विधान सभाओं और स्थानीय निकायों का चुनाव एक साथ होने लगेगा, तो एकल मतदाता सूची और एकल मतदाता फ़ोटो पहचान पत्र तैयार करने का काम देश का निर्वाचन आयोग करेगा. इसके लिए समिति ने अनुच्छेद 325 में संशोधन का सुझाव दिया है.
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