सनातन, शक्ति और भारतीय राजनीति का बदलता हुआ स्वरूप !

सनातन, शक्ति और भारतीय राजनीति का बदलता हुआ स्वरूप
सनातन शब्द सत् और तत् शब्द से मिलकर बना है. दोनों शब्दों का अर्थ यह और वह है. इसका व्यापक उल्लेख अहं ब्रह्मास्मि और तत्वमसि श्लोक से मिलता है. इस श्लोक का अर्थ है कि मैं ही ब्रह्म हूँ और यह संपूर्ण जगत ब्रह्म है. जब बात धर्म की हो, तो ग्रंथों के मुताबिक सबसे पहला उदाहरण गीता में ही मिलता है. सनातन शब्द का प्रयोग भी अर्जुन द्वारा किया गया था. 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।। (1.40)

गीता के पहले अध्याय के 40 वें श्लोक में अर्जुन ने सनातन शब्द का प्रयोग किया है. अर्जुन ने इस श्लोक में कहा है कि जब कुल में दोष लगता है, तो कुल के धर्म का भी नाश हो जाता है. गीता में कई बार सनातन शब्द सामने आया है जहां उसका अर्थ सदा चलने वाला ही बताया है. कृष्णा ने भी गीता में ही कहा है कि आत्मा सनातन है. धर्म ही कर्म है. 

सनातन को लेकर हंगामा

मैं यहां न तो आपको सनातन शब्द के उद्गम पर ज्ञान देना चाहता हूं, न ही इसके हिन्दू धर्म से इस शब्द के संबध पर. हम बात करेंगें कि आखिर सनातन को लेकर हंगामा क्यों है बरपा? तमिलनाडु सरकार के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म पर जो बयान दिया, उससे बवाल मच गया. उनके बयान पर विवाद चल ही रहा था कि डीएमके सांसद, ए राजा ने भी सनातन की तुलना एचआईवी वायरस से कर दी. बीजेपी नेताओं ने इसका जमकर विरोध किया. कुल मिलाकर सनातन धर्म को लेकर बहस ऐसी शुरु हुई कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. आरएसएस से जुडे नेताओं के दम पर जन्म लेने वाले जनसंघ और बाद में बीजेपी के नेताओं में हिन्दू धर्म से जुड़ी आस्थाओं में गहन विश्वास है. ये लगाव इतना है कि बीजेपी की पूरी राजनीति ही हिन्दू धर्म के इर्द-गिर्द घूमती है.

6 अप्रैल 1980 को स्थापित हुई बीजेपी ने चार साल बाद 1984 तक ‘राम जन्मभूमि की मुक्ति’ के बारे में कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई थी. उस वक्त विवादित जमीन पर बाबरी मस्जिद थी. 1984 के आम चुनाव में बीजेपी को महज दो सीटें हासिल हुईं. वहीं, कांग्रेस ने 414 सीटों पर कब्जा जमाते हुए अभूतपूर्व जीत हासिल की. यही वह वक्त था जब पार्टी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हिंदुत्व की सियासत पर ध्यान केंद्रित किया. चुनाव में लगे बड़े झटके के बाद बीजेपी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ राम मंदिर आंदोलन में पूरी ताकत झोंक दी. बीजेपी के इस फैसले ने उसकी सियासी किस्मत ही बदल डाली. बीजेपी ने जैसे सुप्रीम कोर्ट के प्रतीक चिन्ह में लिखे हुए संस्कृत श्लोक ‘यतो धर्म: ततो जय: (जहां धर्म है वहां जीत है)’ को गांठ बांध लिया. राम मंदिर, राष्ट्रीयता और विकास की राजनीति ने बीजेपी को भारतीय राजनीति में एक ज़बरदस्त शक्ति बना दिया है.

राहुल अंग्रेजी में सोचते, हिंदी में बोलते है

इसी शक्ति की बात करते हुए, अग्रेज़ी में सोचते हुए हिन्दी में बोलने की कोशिश करने वाले राहुल गांधी, अब से कुछ दिन पहले अपने एक भाषण में शक्ति शब्द पर ऐसे उलझे कि बीजेपी को राजनीतिक उलाहना का हथियार दे बैठे. बीजेपी जो राहुल गांधी पर पहले से हिन्दू आस्थाओं पर हमले के आरोप लगाती रही है, उसे शक्ति शब्द के राहुल गांधी के बयान से एक बार फिर ये मौका मिला कि वो राहुल गांधी को हिन्दू विरोधी दिखा पायें. राहुल गांधी ने अपने बयान को ठीक करने की कोशिश तो कि लेकिन फिर अग्रेज़ी में सोचने और हिन्दी भाषा का अधूरा ज्ञान ‘असुर’ या आसुरी शक्ति को ‘असुरा’ शक्ति कहने पर झलक गया. हालांकि, कांग्रेस ही केवल ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है जिसके राजनीतिक गणित को बीजेपी की सनातन, राष्ट्रीयता और विकास की राजनीति ने बिगाड़ दिया है. क्षेत्रीय दल जो अब तक क्षेत्रवाद, भाषावाद या जातिवाद की राजनीति कर क्षत्रप बने हुए थे उन्हे अपनी सत्ता हिलती दिखाई दे रही है. अब तक क्षेत्रीय दल केवल जातियों की बात करते थे या फिर अल्पसंख्यक वोटों को जोडने के लिए उनकी. पहली बार कोई पार्टी खुले तौर पर बिना संकोच हिन्दू धर्म और हिन्दू अस्मिता की बात कर रही है.

ऐसे में क्षेत्रीय दलों को भी समझ में नहीं आ रहा कि उनकी राजनीति को पूरी तरह से धवस्त करने वाले इस राजनीतिक नेरटिव को वो कैसे रोकें? यही कारण है अब तक हिन्दू धर्म पर चुप्पी साधे रखने वाले दल अचानक या तो अपने आप को हिन्दू हितैषी दिखाने के लिए बीजेपी से होड़ में लगे हैं या फिर उसके पक्ष या विपक्ष की बहस में उलझे दिखाई दे रहें हैं.

बदल गयी है देश की राजनीति

ये बात तो साफ है कि बीजेपी ने देश में राजनीति को बदल डाला है. अपने आप को हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने वाली पार्टी को तौर पर स्थापित करने में वह कामयाब रही है. बड़े क्षेत्रीय दलों में से तृणमूल कांग्रेस, बीआरएस, समाजवादी पार्टी और अकाली दल ने जहां साफ तौर से अपने आप को अल्पसंख्यकों को साथ खडा कर लिया है, वहीं डीएमके, एआईएडीएमके, आरजेडी, वाईएसआऱसीपी, टीडीपी और बीएसपी अभी भी अपनी नई जड़े तलाशते नज़र आ रहें है. इस मामले में आम आदमी पार्टी का नाम इस लिए शामिल नहीं किया क्योंकि मैं मानता हूं कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस से लोगों की उधूरी अपेक्षाओं की उपज है न कि किसी विचार विशेष की.  

भारतीय राजनीति की ये उथल पुथल न तो भगवान राम के होने या न होने की बहस की है न ही हिन्दू आस्थाओं पर कुछ नेताओं के बयानों से उठने वाले विवादों की, ये बहस है कि 80 फीसदी हिन्दू आबादी वाले भारत में क्या आप हिन्दू आस्थाओं पर चोट कर अपनी राजनीति चला पायेगें, इसका जवाब है नहीं, तो ऐसे में जहां बीजेपी की कोशिश है कि वो जातियों में बंटे हिन्दू समाज को हिन्दू अस्मिता के नारे पर एक जुट कर भारतीय राजनीति में अभेद शक्ति बन जाये, वहीं विपक्षी दलों खासतौर से कांग्रेस की कोशिश है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इसके तोड को तलाशने की. कांग्रेस को जरुरत होगी एक नए विचार की जो नेहरु की धर्म रहित राजनीति, जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए विशेष ध्यान देने कोशिश नज़र आती थी, से अलग हो और बीजेपी के हिन्दू अस्मिता, राष्ट्रवाद और विकास के नारे को टक्कर दे पाये. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]    

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