कमज़ोर रुपया क्या बनेगा चुनावी मुद्दा ? इसकी गारंटी कौन देगा …

कमज़ोर रुपया क्या बनेगा चुनावी मुद्दा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देंगे मज़बूती की गारंटी या पुराना तेवर था सिर्फ़ छलावा

डॉलर के मुक़ाबले कमज़ोर रुपया भारतीय अर्थव्यवस्था की नियति बन चुका है. यह ऐसा मुद्दा है, जिसका देश के हर नागरिक पर सीधे असर पड़ता है. प्रभाव के नज़रिये से विश्लेषण करें, तो, कमज़ोर रुपया का मसला महंगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी या आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों के समान ही काफ़ी महत्व रखता है.

यह व्यापक असर के साथ ही दूरगामी परिणाम वाला मसला है. इसके बावजूद यह मुद्दा कभी भी आम चुनाव में ज़ोर-शोर से सुर्ख़ियों में नहीं रहता है या कहें कि प्रभावकारी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता है. हालाँकि इस बार के लोक सभा चुनाव में कमज़ोर रुपया को लेकर मोदी सरकार कटघरे में है. इसका कारण भी है.

आम नागरिकों के जीवन पर व्यापक प्रभाव

पूरा देश लोक सभा चुनाव की ख़ुमारी में डूबा है. यह ऐसी ख़ुमारी है, जो चुनाव कार्यक्रम के एलान के साथ फागुन में शुरू हुआ था और अगले दो महीने चैत और बैसाख में भी उफान पर रहेगी. इस ख़ुमारी में हर वो विषय महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसका भविष्य में देश के आम नागरिकों के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ने की संभावना है. इस चुनावी माहौल में कमज़ोर रुपया पर भी ज़रूर बात होनी चाहिए. आम लोगों के बीच इस मसले से जुड़ी बारीकियों पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए क्योंकि आम चुनाव वर्तमान केंद्र सरकार के साथ ही सत्ताधारी दल से लेकर तमाम विपक्षी दलों और उनके नेताओं से सवाल पूछने का वक़्त होता है.

रुपया अपने सर्वकालिक निचले स्तर पर है

आज़ादी के बाद से ही डॉलर के मुक़ाबले ‘रुपया’ लगातार कमज़ोर हुआ है, लेकिन पिछले एक दशक में जितनी गिरावट दर्ज की गयी है, वैसी स्थिति कभी नहीं देखी गयी है. इस मोर्चे पर सबसे ख़राब स्थिति वर्ष 1990 से 2000 के दशक में रही थी. मोदी सरकार का एक दशक उस दयनीय स्थिति को पार करने के कगार पर है.

सरल शब्दों में डॉलर-रुपया से तुलना का मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एक अमेरिकी डॉलर के लिहाज़ से रुपये की क़ीमत कितनी है या महत्व कितना है. मौजूदा दौर में रुपया सबसे कमज़ोर स्थिति में है. रुपया 22 मार्च को अपने सर्वकालिक निचले स्तर पर पहुँच गया था. इस दिन 48 पैसे की गिरावट के साथ रुपया अपने सबसे कमज़ोर स्तर 83.61 प्रति डॉलर पर बंद हुआ था. सरल शब्दों में कहें, तो, एक डॉलर की क़ीमत 83 रुपये 61 पैसे हो गयी थी. इस साल जनवरी में डॉलर की क़ीमत ने 83 रुपये के स्तर को पार कर लिया था. उसके बाद से ही 83 रुपये का आँकड़ा बरक़रार है. अब इसके 84 रुपये तक पहुँचने की आशंका बनी हुई है.

लगातार कमज़ोर होता रुपया है चिंतनीय पहलू

सही मायने में रुपया कभी मज़बूत रहा नहीं है. अंतरराष्ट्रीय कारोबार में चंद पैसे की बढ़त को ही रुपये की मज़बूती के तौर पर पेश कर दिया जाता है. वास्तविकता यही है कि रुपया हमेशा ही कमज़ोर रहा है. असल मुद्दा यह है कि अलग-अलग समय में रुपया डॉलर के मुक़ाबले कितना कमज़ोर रहा है. रुपया को सही मायने में मज़बूत तब माना जा सकता है, जब सैद्धांतिक तौर से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में विपरीत स्थिति आ जाए. या’नी इस तरह की स्थिति आ जाए कि एक रुपया का मूल्य कई डॉलर से अधिक हो जाए. यह स्थिति फ़िलहाल ही नहीं, अगले कई दशकों या सदियों तक सपना सरीखा ही है. यह एक अलग पहलू है.

भारत में अभी आम लोगों के बीच पूछा जाता है कि एक डॉलर में कितने रुपये होते हैं. रुपया सही मायने में मज़बूत हो जाए, तो यही सवाल बदल जाएगा और तब लोग पूछने लगेंगे कि एक रुपये में कितने डॉलर होते हैं. यह स्थिति आना बेहद मुश्किल है. इस पर चर्चा करना भी बेमानी है. अभी महत्व इस बात का है कि डॉलर के मुक़ाबले रुपये की क़ीमत और गिरे नहीं.

कहने को डॉलर-रुपये के इस खेल को आर्थिक मसला बताया जाता है. लेकिन इसका महत्व सिर्फ़ आर्थिक नज़रिये तक ही सीमित नहीं है. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में किसी देश की मुद्रा कितनी ताक़तवर है, उससे उस देश की आर्थिक ताक़त का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है. इस लिहाज़ से दुनिया के शीर्ष दस देशों में भारत की मुद्रा शामिल नहीं है. इंटरनेशनल पॉलिटिकल लैंडस्केप या’नी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में कोई देश आर्थिक लिहाज़ से कितना महत्व रखता है, यह उसकी मुद्रा की ताक़त से निर्धारित होता है.

दुनिया की दस सबसे मज़बूत मुद्रा में रुपया नहीं

दुनिया की सबसे मज़बूत 10 मुद्राओं में  कुवैती दिनार, बहरीन दिनार, ओमानी रियाल, जॉर्डेनियन दिनार, ब्रिटिश पाउंड, जिब्राल्टर पाउंड, केमैन आइलैंड्स डॉलर, स्विस फ़्रैंक, यूरो और अमेरिकी डॉलर शामिल हैं. उसमें भी अमेरिकी डॉलर का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह दुनिया की सबसे अधिक कारोबार वाली मुद्रा है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर का दबदबा है. डॉलर के अलावा बाक़ी शीर्ष मुद्राओं के सामने भारतीय रुपया और भी कमज़ोर है. एक डॉलर में 83 रुपये होते हैं. एक यूरो में क़रीब 90 रुपये होते हैं. एक ब्रिटिश पाउंड में तक़रीबन 105 रुपये होते हैं. वहीं एक कुवैती दिनार में 270 रुपये होते हैं.

रुपये के कमज़ोर होने का होता है व्यापक असर

हालाँकि हम जब रुपये के कमज़ोर होने की बात करते हैं, तो, अमेरिकी डॉलर के एक्सचेंज रेट से जुड़ा मसला होता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कराबोर में अधिकांश भुगतान भारत को डॉलर में ही करना होता है. इस लिहाज़ से कमज़ोर रुपया हर भारतीय के जीवन पर नकारात्मक असर डालता है. भारतीय अर्थव्यवस्था को रुपया के कमज़ोर होने का नुक़सान झेलनी पड़ती है. भारत के आयात बिल पर बोझ बढ़ता है. भारत से होने वाला निर्यात सस्ता हो जाता है.

डॉलर के मुक़ाबले रुपया कमज़ोर है या’नी विदेश से जो भी सामान आयात करेंगे, उसके लिए ज़ियादा क़ीमत चुकानी होगी. इससे आयातित वस्तुओं के लिए भारतीयों को अधिक मूल्य चुकाना होगा. भारत के आयात बिल में बड़ा हिस्सा कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का है. हम कच्चे तेल का 80 फ़ीसदी आयात करते हैं. इसके लिए अधिकांश भुगतान डॉलर में करते हैं. कमज़ोर रुपये का सीधा मतलब है कि भारतीय नागरिकों को पेट्रोल, डीजल और गैस के लिए अधिक क़ीमत चुकानी होगी.

हर नागरिक को चुकानी पड़ती है अधिक क़ीमत

पेट्रोलियम पदार्थों के साथ ही बाक़ी आयातित वस्तुओं की क़ीमतों पर भी कमज़ोर रुपये का असर पड़ता है. इनमें खाने-पीने, कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान, तरह-तरह की दवा से लेकर कई सारी वस्तुएँ हैं, जिनका इस्तेमाल ग़रीब, मध्यम वर्ग से लेकर अमीर ..देश का हर तबक़ा करता है. देश का ग़रीब से ग़रीब आदमी भी कमज़ोर रुपये की वज्ह से इन सारी वस्तुओं की अधिक क़ीमत चुकाने को मजबूर होता है.

कमज़ोर रुपये का सीधा संबंध महंगाई से है. रुपया जितना कमज़ोर होगा, महंगाई उतनी बढ़ेगी. ऐसा होने पर नीतिगत ब्याज दरों में इज़ाफ़ा की गुंजाइश बन जाती है. इससे आम लोगों को मिलने वाला क़र्ज़ महँगा हो सकता है.इससे शिक्षा, घर, कार या अन्य प्रकार के हर तरह के ऋण पर अधिक ईएमआई का बोझ आम नागरिकों पर ही पड़ता है.

कमज़ोर रुपये का नकारात्मक प्रभाव निर्यात पर भी पड़ता है. निर्यात पर डॉलर में भुगतान की वज्ह से भारतीय वस्तुओं की क़ीमतें कम हो जाती हैं. इससे भारतीय उत्पादों के लिए देश के लोगों को कम मूल्य हासिल होता है. सरल शब्दों में समझें, तो, रुपये के कमज़ोर होने से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कम डॉलर में ही अधिक भारतीय उत्पादित वस्तुओं को ख़रीदा जा सकता है. इसका सीधा असर भारतीय उत्पादकों की आय पर पड़ता है.

जियो पॉलिटिक्स में मुद्रा की ताक़त का महत्व

जियो पॉलिटिक्स में मुद्रा की ताक़त का काफ़ी महत्व है. इससे समझा जा सकता है कि कमज़ोर रुपये का नुक़सान वैश्विक परिदृश्य में सीधे-सीधे देश को उठाना पड़ता है. सामरिक नज़रिये से मुद्रा का मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है. अगर डॉलर के मुक़ाबले भारतीय रुपया लगातार कमज़ोर होता जाएगा, तो, वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ही अन्य वैश्विक मसलों पर भी भारत की आवाज़ कमज़ोर होती है. आपकी मुद्रा मज़बूत है, इसका मतलब है कि आप आर्थिक तौर से ही नहीं बल्कि राजनीतिक प्रभाव के नज़रिये से भी वैश्विक व्यवस्था में महत्वपूर्ण दख़्ल रखते हैं.

मज़ोर रुपया महज़ जटिल आर्थिक मुद्दा नहीं

इतना महत्वपूर्ण होने के बावजूद देश के आम लोगों में रुपये के कमज़ोर होने के विमर्श पर व्यापक चर्चा नहीं हो पाती है. डॉलर-रुपये के एक्सचेंज रेट को जटिल आर्थिक मुद्दा माना जाता है. इस वज्ह से आम लोगों में कमज़ोर रुपये के नुक़सान पर चर्चा उस रूप में नहीं हो पाती है, जितना इसका प्रभाव देश के हर नागरिक जीवन पर पड़ता है.

देश, देश की अर्थव्यवस्था और देश के हर नागरिक के लिए महत्व और प्रभाव की कसौटी से कमज़ोर रुपये का विषय अन्य मुद्दों से कहीं से भी कमतर नहीं है. इसे सिर्फ़ आर्थिक मसला मानकर राजनीतिक विमर्श और चुनावी मुद्दा बनने से दरकिनार नहीं किया जा सकता है. वैसे भी मोदी सरकार के दो कार्यकाल के बाद यह मसला और भी महत्वपूर्ण हो गया है.

कमज़ोर रुपया पर जब नरेंद्र मोदी थे विपक्ष में..

इस बार के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक तौर से कमज़ोर रुपया के मद्द-ए-नज़र दो पहलू महत्वपूर्ण है. पहला, 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी ख़ासकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था. दूसरा, मोदी सरकार के तक़रीबन दस साल के कार्यकाल में डॉलर की तुलना में रुपया अब तक सबसे अधिक कमज़ोर हुआ है.

यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा चुनावी मुद्दा

डॉलर-रुपये के एक्सचेंज रेट की जटिलता को जानते हुए भी यूपीए सरकार के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने कमज़ोर रुपये के मसले को प्रमुखता से उभारा था. अप्रैल-मई 2014 में हुए लोक सभा चुनाव में कमज़ोर रुपया का मसला एक प्रमुख मुद्दा था, जिसको आधार बनाकर बीजेपी ने जनता से समर्थन मांगा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस वक़्त गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. आम चुनाव से पहले सितंबर, 2013 में उन्हें बीजेपी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था.

मनमोहन सिंह सरकार पर काफ़ी तीखे हमले

इस दौरान नरेंद्र मोदी ने जन सभाओं और रैलियों में डॉलर के मुक़ाबले रुपये के कमज़ोर होने को लेकर मनमोहन सिंह सरकार पर काफ़ी तीखे हमले बोले थे.  इस मुद्दे पर फ़िलहाल उस वक़्त का एक वीडियो भी तेज़ी से वायरल हो रहा है. उस वीडियो में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री) कमज़ोर रुपये को देश के सम्मान और गरिमा से जोड़ रहे हैं. उनका कहना था कि..

“मैं शासन में बैठा हूँ. मुझे मालूम है कि इस प्रकार से रुपया इतनी तेज़ी से गिर नहीं सकता. नेपाल का रुपया नहीं गिरता है. बांग्लादेश की करेंसी नहीं गिरती है. पाकिस्तान की करेंसी नहीं गिरती. श्रीलंका की करेंसी नहीं गिरती. क्या कारण है हिन्दुस्तान का रुपया पतला होता जा रहा है. ये जवाब देना पड़ेगा आपको. देश आपसे जवाब मांग रहा है.”

इस बयान से स्पष्ट है कि रुपया के कमज़ोर होने से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेहद चिंतित थे और इसके लिए मनमोहन सिंह सरकार को जवाबदेह ठहरा रहे थे. अब इस मसले के दूसरे पहलू पर ग़ौर करते हैं. नरेंद्र मोदी मई 2014 में प्रधानमंत्री बन जाते हैं. उस वक़्त एक डॉलर का मूल्य क़रीब 59 रुपये था. अब यह आँकड़ा 83 रुपये को भी पार कर गया है. या’नी मोदी सरकार के लगातार दो कार्यकाल में एक डॉलर का मूल्य 24 रुपये से भी अधिक बढ़ गया है.

एक दशक में भारतीय मुद्रा काफ़ी कमज़ोर हुई

इससे स्पष्ट है कि तक़रीबन एक दशक में इस मोर्चे पर भारतीय मुद्रा काफ़ी कमज़ोर हुई है, जिसका सीधा असर हर नागरिक के जेब पर पड़ रहा है. देश में आर्थिक तौर से संपन्न दस से बीस फ़ीसदी आबादी को इससे अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता होगा. इसके विपरीत वास्तविकता है कि कमज़ोर रुपया से 80 फ़ीसदी आबादी का जीवन और भी दयनीय होते जा रहा है.

फोर्ब्स इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 1947 में एक डॉलर की क़ीमत 3.30 रुपये थी. धीरे-धीरे डॉलर के मुक़ाबले रुपये का मूल्य घटते गया. वर्ष 1949 में यह आँकड़ा 4.76 रुपये था. वर्ष 1980 में एक डॉलर का 6.61 रुपये हो गया. वर्ष 1990 में 19.01 रुपये हो गया. इस दशक में 12.4 रुपये का फ़र्क़ आया.

वर्ष 2000 में एक डॉलर की क़ीमत 44.31 रुपये हो गयी. 1990 से 2000 के दशक में रुपया संख्यात्मक लिहाज़ से सबसे अधिक कमज़ोर हुआ था. इस दशक में एक डॉलर के मुक़ाबले रुपये की क़ीमत में 25.3 रुपये की गिरावट हुई थी.

वर्ष 2010 में एक डॉलर का मूल्य 46.02 रुपये था. 2000 से 2010 के दशक में 1.71 रुपये का फ़र्क़ आया. वहीं वर्ष 2020 में एक डॉलर का मूल्य 74.31 रुपये हो गया. इस तरह से 2010 से 2020 के दशक में 28.29 रुपये का फ़र्क़ आया. वर्ष 2013 में एक डॉलर का मूल्य 54.78 रुपये था. इससे समझ सकते हैं कि 2013 से 2020 के बीच ही सात साल में ही 19.53 रुपये का फ़र्क़ आ गया. वर्ष 2020 से 22 मार्च 2024 की अवधि में एक डॉलर की क़ीमत 9.3 रुपये और बढ़ गयी है.

वर्ष 2005 में एक डॉलर का मूल्य 43.50 रुपये था. वर्ष 2010 में यह 46.02 रुपये हो गया. वहीं 2013 में यह आँकड़ा 54.78 रुपये रहा. या’नी 2005 से 2013 के बीच में 11.28 रुपये का फ़र्क़ आया. इन तमाम आँकड़ों में फ़र्क़ से मतलब है कि रुपया डॉलर के मुक़ाबले और कितना कमज़ोर हुआ है.

यूपीए सरकार में कमज़ोर होने की रफ़्तार धीमी

मोदी सरकार में डॉलर के मुक़ाबले रुपया कितना कमज़ोर हुआ है, इसे ऊपर के आँकड़ों से समझा जा सकता है. वहीं यूपीए सरकार में रुपये के कमज़ोर होने की रफ़्तार धीमी थी. उसके बावजूद 2014 के लोक सभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार में इस मसले को खू़ब उछाला था. चुनाव प्रचार के पुराने वीडियो में उनते तेवर को देखा जा सकता है. उस वक़्त बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने रुपये की कमज़ोरी के लिए मनमोहन सिंह सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया था.

दमख़म के साथ दावा और वादा किया गया था

अब बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दस साल पूरा करने जा रहे हैं. इस दौरान रुपया मज़बूत नहीं हुआ है. इसके विपरीत कमज़ोर होने की रफ़्तार बढ़ी है. दस साल पहले रुपये को मज़बूत करने को लेकर नरेंद्र मोदी की ओर दमख़म के साथ दावा और वादा किया गया था. इस अवधि में रुपया कितना कमज़ोर हुआ है, इससे संबंधित आँकड़ा छिपा नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा असफल हो गया. उनका वादा अधूरा रह गया है. इसकी पूरी जवाबदेही बतौर प्रधानमंत्री उनकी ही है.

कमज़ोर रुपया बनना चाहिए बड़ा चुनावी मुद्दा

दस साल पहले की स्थिति में जब कमज़ोर रुपया चुनावी मुद्दा बन सकता है, तो अब तो इस मोर्चे पर स्थिति और भी दयनीय हो चुकी है. देश के हर नागरिक के रोज़-मर्रा के जीवन से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा होने के नाते इस बार आम लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कमज़ोर रुपया को लेकर सवाल ज़रूर पूछना चाहिए. बीजेपी और उसके तमाम उम्मीदवारों से भी सवाल किया जाना चाहिए. हर चीज़ की गारंटी दे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बार रुपये को मज़बूत करने की गारंटी नहीं देनी है. इसके विपरीत उन्हें रुपया और कमज़ोर नहीं होगा, इसकी गारंटी देनी है.

रुपया और कमज़ोर नहीं होगा, कौन देगा गारंटी

डॉलर की तुलना में रुपये की स्थिति बहुत ख़राब हो चुकी है. यह एक बड़ा कारण है, जिसकी वज्ह से देश के आम नागरिक त्रस्त हैं. विडंबना है कि इस मुद्दे को आर्थिक और जटिल बताकर राजनीतिक और मीडिया विमर्श में उतना महत्व नहीं दिया जा रहा है. यह नहीं भूलना चाहिए कि इसका सीधा और व्यापक संबंध आम लोगों या कहें हर नागरिक के रोज़-मर्रा के जीवन से है. इस पर आम जनता के बीच जागरूकता लाने की ज़रूरत है, ताकि वे इसे चुनावी मुद्दा बना सकें. अपने होने वाले जनप्रतिनिधियों से सवाल कर सकें. ऐसा होने पर ही तमाम राजनीतिक दलों.. ख़ासकर बीजेपी और कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ पर दबाव बनेगा कि उनके घोषणापत्र में कमज़ोर रुपये के मसले को जगह मिल पाए. तमाम दलों और उनके शीर्ष नेताओं की ओर से रुपये की सेहत में सुधार का वादा किया जाना चाहिए.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि  …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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