“उधार के उम्मीदवार दिखाते हैं भाजपा की कमजोरी” ?

उधार के नेताओं को उम्मीदवार बनाना भाजपा की मजबूरी, कांग्रेस डूबता जहाज नहीं, कई कारण हैं दलबदल के
देश में चुनावी माहौल है और इसी क्रम में पहले चरण की वोटिंग 19 अप्रैल को होनी है. चुनाव के बीच में पार्टियों के नेताओं को पलायन जारी है. इस समय कांग्रेस वो डूबता नाव बन चुका है जहां कोई भी नहीं रहना चाहता. कई बड़े नेता जैसे नवीन जिंदल, जितिन प्रसाद आदि कांग्रेस को छोड़कर भाजपा का दामन थाम चुके हैं. उधर भाजपा की जाने क्या मजबूरी है कि उसको उधार के उम्मीदवार के साथ चुनाव लड़ना पड़ा है. हालात यहां तक हैं कि अभी तक उसके जितने घोषित उम्मीदवार हैं, उसमें से करीबन 28 फीसदी दल-बदलू हैं, यानी दूसरी पार्टियों से आए हैं. इसमें कांग्रेस से लेकर बीआरएस, टीएमसी, टीडीपी, बीएसपी इत्यादि दल शामिल हैं. 

भाजपा का अलग होने का दावा खोखला

लंबे समय तक भाजपा ये कहते रही है कि वह एक अलग किस्म की पार्टी है, लेकिन अब उसे उधार के नेताओं से काम चलाना पड़ रहा है. यह उसके लिए ठीक बात नहीं है. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि जो भी कांग्रेस छोड़कर लोग जा रहे हैं वो ये मानकर जा रहे हैं कि कांग्रेस डूबने वाली नाव हो गई है. अभी तक भाजपा ने 28 फीसदी ऐसे लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया है, जो दूसरी पार्टी से आए हैं. उनको भाजपा ने इस चुनाव में टिकट दिया है. भाजपा ने करीब 10 साल का कार्यकाल अपने दम पर पूरा किया है, उसके बाद तीसरी बार चुनाव मैदान में आ रहे हैं. उसके बावजूद दलबदल हुई हैं और वैसे लोगों के सहारे चुनाव लड़ना पड़ रहा है, यह भाजपा के लिए बहुत सम्मानजनक बात नहीं है.

एक बात और है. कांग्रेस या अन्य दलों के नेता जो बाद में भाजपा में आए उनके नाम से संवैधानिक संस्थाओं, ईडी जैसे एजेंसियों ने नोटिस दिया है या उनके नाम आने की बात सामने आई है. खुद पीएम नरेंद्र मोदी भी उनका नाम लेकर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते रहे हैं. बाद में वो आकर भाजपा में मिल गए. उसके बाद उनके विरुद्ध चल रही जांच की प्रक्रिया पूरी तरह से रुक गई. भाजपा ने जिनको अभी टिकट दिया है उसमें 28 फीसद उन्ही में से हैं. कई चर्चित नाम हैं जिनके नाम पर भ्रष्टाचार का अरोप है. एयर इंडिया के घोटाले में प्रफुल्ल पटेल और अजीत पवार के नाम पर भाजपा ने आरोप लगाया था. ईडी और भाजपा ने भी दोनों पर सीधे तौर उस समय आरोप लगाया था. अब उनके मामलों को अब समाप्त करने का काम हो रहा है. ऐसे में अन्य नेता जो आए है उनके बारे में भी कोई न कोई बात रही होगी जिससे कि लोग भाजपा आकर जॉइन कर रहे हैं.

भाजपा में आते ही सब ठीक 

असम के वर्तमान के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा, जो अभी भाजपा में है. वो पहले कभी कांग्रेस में हुआ करते थे. तब भाजपा ने उनके विरुद्ध काफी प्रदर्शन किया था. काफी बड़े आरोप लगे, जुलूस निकाले गए. उसके बाद हेमंत बिस्वा सरमा ने जैसे ही संकेत दिए कि वो दल-बदल करेंगे, उसके बाद अमित शाह के निर्देश पर प्रदर्शन और जुलूस बंद हो गए, और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने उनको मुख्यमंत्री बनाया. पूर्वोतर के असम में अब तक का हेमंत सरमा का सबसे बड़ा कांड रहा है. जहां तक पूर्वोत्तर में भाजपा के काबिज होने की बात है, तो ऐसा नहीं है कि पूरा पूर्वोत्तर ही भाजपा में आ गया हो, बल्कि एक से दो विधायक आकर सरकार में शामिल हुए हैं, जिसमें मेघालय, असम और अन्य राज्य शामिल हैं. भाजपा की वहां खुद बहुत गहरी पैठ नहीं है, हां वहां के छोटे दलों को जरूर उन्होंने साधा है. इसका एक आयाम औऱ है. पहले मणिपुर में संप्रदायिक राजनीति नहीं थी. लेकिन एक पक्ष का साथ देकर ये कहना कि एक पक्ष ही सिर्फ हिंदू है बाकी हिंदू नहीं है. तो ऐसे में मणिपुर की स्थिति बिगड़ी है. काफी हिंसक घटनाएं हुई है. उस घटना के लिए पैसे, हथियार और अन्य कई चीजें केंद्र के द्वारा उपलब्ध कराये गए हैं. वहां दलबदल से ज्यादा खतरनाक ये बात हो रही है.

दक्षिण में भाजपा कमजोर 

वर्तमान में भाजपा वॉशिंग मशीन बन गई है. कई नेता हैं, जिनके भाजपा में शामिल होते ही मामले की जांच की गति रुक सी गई है. दक्षिण के आंध्रप्रदेश में दूसरी पार्टी से आए लोगों को टिकट दिया गया है. लोकसभा में प्रतिनिधित्व में देखें तो कर्नाटक को छोड़ कर देखें तो दक्षिण में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति कोई खास मजबूत नहीं रही है. उन राज्यों में विधायक और पार्टी को तोड़ने का प्रयास किया गया है.  एक तरह से ये भाजपा की कमजोरी ही साबित हो रही है कि दस सालों तक शासन के बावजूद वो दक्षिण में अपनी पकड़ बनाने में कामयाब नहीं रहे. उस तरह का कैडर नहीं बना पाए. तेलंगाना के सीएम की पृष्ठ भूमि अखिल भारतीय की है. उनके दम पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और चुनाव में बहुमत लाया. यह भी बड़ी मजेदार बात है, एक तरह से. कर्नाटक में बड़ी संख्या में भाजपा के सांसद पहले से ही रहे हैं. कई बार देखने को कर्नाटक में ऐसा मिला है कि जिनके पास विधानसभा में अधिक सीटें होती है उनको लोकसभा में अधिक सीटें नहीं मिल पाती. कई बार अधिक सीटें मिल भी जाती है. आंध्र प्रदेश में या अन्य जगहों पर भाजपा का कोई बड़ा आधार नहीं है. इसके लिए अक्सर दक्षिण के राज्यों में भाजपा ने पार्टियों के साथ समझौता किया है. तमिलनाडु में भाजपा ने एआइएडीएमके से समझौता किया था. डीएमके भी कांग्रेस के साथ ऐसे ही समझौता करती है जिसमें वो विधानसभा के लिए अधिक सीट लेती है और लोकसभा में अधिकांश सीटें कांग्रेस को देती है. तो इस तरह का दोनों पार्टियों का ऐसा हाल रहा है.   

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि ….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]   

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *