आजादी की पहली लड़ाई की पूरी टाइमलाइन
10 मई 1857 जब धधक उठी थीं क्रांति की मशालें; आजादी की पहली लड़ाई की पूरी टाइमलाइन
1857 के विद्रोह के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज तो खत्म हो गया, मगर फिर अगले 90 सालों तक भारत पर सीधे ब्रिटिश सरकार का राज चलता रहा.
भारत में पहली बार 1857 में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बड़ा विद्रोह हुआ था. उस साल 10 मई को मेरठ की छावनी में तैनात भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी. ये बगावत धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में फैल गई.
इस विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म हो गया और भारत की सेना में भी बड़े बदलाव किए गए. 1857 का विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का पहला कदम और आजादी के लिए फूटी पहली चिंगारी माना जाता है.
मई 1857 में मेरठ से सिपाही विद्रोह की शुरुआत हुई. इसके बाद यह आग पूरे उत्तर और मध्य भारत में फैल गई. विद्रोह के मुख्य केंद्र दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झांसी और ग्वालियर थे. एक साल से ज्यादा अंग्रेज अपना राज बचाने के लिए लड़ते रहे. इस लड़ाई में काफी खून-खराबा हुआ और दोनों तरफ से अत्याचार किए गए.
दिल्ली विद्रोह का केंद्र बन गया. अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर राज करते थे. मेरठ से आए बागी सिपाही मुगल बादशाह से मदद और नेतृत्व मांगने पहुंच गए. बहादुर शाह जफर ने अनमने ढंग से ही सही, लेकिन फिर भी उनकी मदद करने के लिए हां कर दी.
अंग्रेजों के खिलाफ कैसे धधक उठी थीं क्रांति की मशालें
1857 का विद्रोह एक ही वजह से नहीं हुआ, बल्कि बहुत सी छोटी-छोटी वजह थी जिसने समय के साथ गुस्से का रूप ले लिया. उस वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में ज्यादातर भारतीय सिपाही होते थे. 1857 से पहले फौज में करीब 3 लाख सिपाही थे, जबकि अंग्रेज सैनिक सिर्फ 50,000 के करीब थे.
कंपनी की फौज तीन हिस्सों में बंटी थी- बॉम्बे, मद्रास और बंगाल. बंगाल की फौज में ज्यादातर ऊंची जाति के लोग था. जैसे ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार होते थे. ये लोग खासकर अवध और बिहार इलाके से भर्ती किए जाते थे. 1855 में तो कंपनी ने और भी सख्ती कर दी, जिससे निचली जाति के लोगों को फौज में शामिल होना और भी मुश्किल हो गया. मद्रास और बॉम्बे की फौजों में ऐसा नहीं था, वहां किसी भी जाति का आदमी शामिल हो सकता था. बंगाल की फौज में ऊंची जाति के लोगों के ज्यादा होने को 1857 के विद्रोह की शुरुआत का एक कारण माना जाता है.
1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध को अपने राज में मिला लिया. इससे वहां के सिपाहियों को दो तरह की परेशानी हुई. पहली ये कि अवध के दरबार में ऊंची जाति के होने के नाते उन्हें मिलने वाले फायदे खत्म हो गए. दूसरी ये कि उन्हें डर था कि अब जमीन का लगान (टैक्स) बढ़ जाएगा.
इसके अलावा ईस्ट इंडिया कंपनी युद्ध जीतकर नए इलाके अपने अधीन करने के बाद अपने शासन का दायरा बढ़ाती जा रही थी. इसकी वजह से सिपाहियों को न सिर्फ उन अनजान इलाकों (जैसे बर्मा) में लड़ना पड़ता था, बल्कि पहले मिलने वाला ‘विदेशी सेवा’ का अतिरिक्त पैसा भी बंद कर दिया गया.
एक ऐसा कानून जिससे सिपाहियों में बढ़ गया गुस्सा
1857 के विद्रोह से 10 महीने पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक ऐसा कानून बनाया जिससे सिपाहियों में गुस्सा बढ़ गया. ये कानून 25 जुलाई 1856 का ‘जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट Sएक्ट’ था. पहले बंगाल आर्मी के सिपाहियों को विदेशी जंगों में नहीं लड़ना पड़ता था. उन्हें सिर्फ उन्हीं इलाकों में लड़ना होता था जहां तक वो पैदल चलकर जा सकते थे. लेकिन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौसी को ये गलत लगता था. लॉर्ड कैनिंग (डलहौसी के बाद गवर्नर जनरल बने) ने ये कानून लागू कर दिया. इस कानून के मुताबिक सिर्फ नई भर्ती होने वाले सिपाहियों को ही विदेशी जंगों में लड़ना होता था.
लेकिन बंगाल आर्मी के ऊंची जाति के सिपाहियों को डर था कि ये कानून उन पर भी लागू हो जाएगा. साथ ही उन्हें ये भी चिंता थी कि उनके बेटे अब उनके नक्शे कदम पर चलकर फौज में शामिल नहीं हो पाएंगे, क्योंकि अब फौज में परंपरागत रूप से बाप-बेटे साथ नहीं रह पाएंगे.
आखिरी चिंगारी ने फोड़ दिया विद्रोह का गुब्बारा
1857 के विद्रोह की आखिरी वजह एक बंदूक की कारतूस थी. ये नई बंदूक थी जिसका नाम ‘एनफील्ड पैटर्न 1853 राइफल’ था. इसमें पहले वाली बंदूकों से अलग कारतूस इस्तेमाल होते थे. इन कारतूसों को चलाने से पहले सिपाहियों को अपने दांतों से कागज (ग्रीस लगे हुए) काटना पड़ता था. कारतूस को खोलने के लिए सिपाहियों को उसे मुंह से काटना पड़ता था. जनवरी में अफवाह फैल गई कि इस ग्रीज में गाय की (जिसे हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है) और सुअर की (जो मुस्लिम धर्म में निषेध है) चर्बी लगी हुई है.
ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े अफसरों तक भी ये अफवाह पहुंच गई. उन्होंने ये कारतूस बनाना बंद कर दिया, ये उम्मीद करते हुए कि इससे विद्रोह की आशंका कम हो जाएगी. कंपनी ने नए कारतूस में थोड़ा बदलाव कर दिया. अब कारतूस दांतों से काटने की बजाय हाथ से फौड़े जाते थे. लेकिन इस बदलाव का भी उल्टा असर हुआ. सिपाहियों को अब पक्का यकीन हो गया कि अफवाहें सच थीं.
इसके बाद अफवाह ये भी उड़ी कि नए कारतूसों के कागज पर भी वही ग्रीस लगा है. फरवरी में इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई गई. कुछ सिपाहियों को गवाही देने के लिए बुलाया गया. उन्होंने बताया कि नया कागज सख्त है और फाड़ने में मुश्किल होती है. जलाने पर उसमें से ग्रीस जैसी गंध आती है.
इसके बाद 24 अप्रैल 1857 को लेफ्टिनेंट कर्नल जॉर्ज कारमाइकल-स्माइथ (जो तीसरी बंगाल लाइट कैवेलरी के कमांडिंग ऑफिसर थे) ने बहुत बेरुखी दिखाई. उन्होंने 90 सैनिकों को परेड पर बुलाया और उनको फायरिंग ड्रिल करने के लिए कहा. इन 90 में से 85 सिपाहियों ने कारतूस लेने से मना कर दिया. फिर 9 मई को इन 85 सैनिकों पर कोर्ट मार्शल किया गया. उनमें से ज्यादातर को 10 साल की कैद और साथ में मजदूरी की सजा सुनाई गई. इसके बाद पूरी गैरीसन की परेड बुलाई गई. सजा पाने वाले सैनिकों की सबके सामने वर्दी उतारी गई.
अगले दिन रविवार था. बहुत से अंग्रेज सैनिक ड्यूटी पर नहीं थे. मौका देखकर मेरठ में बहुत से भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह छेड़ दिया. बीच में आने वाले सभी अंग्रेज अफसरों को विद्रोहियों ने मार डाला. धीरे-धीरे पूरे शहर में कई जगहों पर दंगा भड़क गया.
कौन थे विद्रोह में शामिल नाना साहेब
सितंबर के आखिरी तक अंग्रेजों ने आखिरकार दिल्ली को वापस जीत लिया, लेकिन ये विद्रोह अभी उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में जारी था. दिल्ली जीतने के बाद अंग्रेजों की सेना ने कानपुर की ओर रुख किया, जहां काफी समय से विद्रोह चल रहा था.
1857-58 के भारतीय विद्रोह के प्रमुख नेताओं में से एक नाना साहब थे. हालांकि उन्होंने विद्रोह की शुरुआत नहीं की थी. उन्हें 1827 में मराठा साम्राज्य के आखिरी पेशवा बाजीराव द्वितीय ने गोद लिया था. बाजीराव की मृत्यु के बाद नाना साहब को विरासत में काफी संपत्ति मिली, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें मिलने वाली पेंशन बंद कर दी. साथ ही लंदन से उनके दूत को भी खाली हाथ लौटना पड़ा. इस सबने और सिपाहियों की असंतुष्टि के कारण नाना साहब जून 1857 में कानपुर में विद्रोही सिपाहियों के साथ शामिल हो गए थे. उन्होंने विद्रोह से पहले अंग्रेजों के कमांडर जनरल व्हीलर को एक चिट्ठी भेजकर हमले की चेतावनी दी थी.
विद्रोह के बाद उन्होंने अंग्रेजों की मदद करने से इनकार कर दिया. नाना साहब को ज्यादा सैन्य जानकारी नहीं थी, लेकिन ग्वालियर पर कब्जा करने के बाद विद्रोही नेता तात्या टोपे ने उन्हें जुलाई 1857 में पेशवा घोषित कर दिया था. मगर अंग्रेज जनरलों हेन्री हेवॉक और कॉलिन कैंपबेल ने उन्हें हरा दिया. इसके बाद नाना साहब नेपाल की पहाड़ियों में चले गए और वहीं उनकी मृत्यु हो जाने की संभावना है.