“सहभागिता पर हो जोर, पहचान की राजनीति पर नहीं”
पहचान की राजनीति की जगह सहभागिता पर हो काम, तभी होगा अल्पसंख्यकों के साथ न्याय
मुल्क की आजादी और बंटवारे के बाद से ही हिंदुस्तान में “मुसलमानों का भविष्य” एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा बन गया है, जिसे नेता हरेक चुनाव में अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल करते हैं. 18 वीं लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद ने अपने खास अंदाज में मुस्लिम आरक्षण का समर्थन किया, हालांकि कुछ समय बाद ही वह पलट भी गए. लालू प्रसाद सामाजिक ढांचे की राजनीति के विशेषज्ञ माने जाते हैं. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के एक भी उम्मीदवार को जीत हासिल नहीं हुई थी. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि कांग्रेस एवं राजद समेत सभी “धर्मनिरपेक्ष” राजनीतिक दल इस तथ्य को स्वीकार करने से बचने की कोशिश करते हैं कि मुसलमान भी हिंदुओं की तरह ही नागरिक हैं.
पहचान की नहीं, सहभाग की राजनीति
अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान भी समाज की जीवन पद्धति में पूरी सहभागिता के अधिकारी हैं. सर्वविदित है कि संविधान सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की इजाजत देता है. इसके बावजूद “वोट बैंक के सौदागर” इस संवेदनशील मुद्दे को छेड़ने के बहाने ढूंढ़ते हैं. लालू अपनी पार्टी में मुसलमानों को सर्वोच्च पद देने में विफल रहे हैं, लेकिन मुस्लिम आरक्षण की हिमायत करके चुनाव प्रचार को एक नई दिशा जरूर दे रहे हैं जिससे आखिरकार भाजपा के विचार-तंत्र को बल मिलेगा. आर्थिक विकास की प्रक्रिया में पीछे छूटे हुए लोगों को लुभाने के लिए आरक्षण के दांव को नेता सबसे कारगर उपाय मानते हैं. अंग्रेजी शासन काल में आरक्षण की व्यवस्था का उद्देश्य किसी सामाजिक या धार्मिक समूह का कल्याण नहीं था. औपनिवेशिक स्वामी भारतीय समाज की मूलभूत कमजोरियों से अवगत थे. इसलिए सामाजिक एकीकरण को प्रोत्साहित करने के बदले अलगाव के अवसर सृजित करने में रुचि लेते थे. इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि भारतीय समाज स्तरीकृत है. कई जातियां अप्रिय कार्य करने के लिए विवश थीं. ये सामाजिक दृष्टि से अछूत समझी जाती रहीं हैं. दूसरी ओर ऐसे नृजातीय समूह हैं जो उन क्षेत्रों में निवास करते हैं, जहां भौतिक विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है. इन सामाजिक विभेदों को खत्म करने के लिए कई संवैधानिक प्रावधान भी मौजूद हैं. 19 वीं सदी में हुए धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों के कारण संकीर्ण मानसिकता में बदलाव भी आया.
आरक्षण का मुद्दा संवेदनशील
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति एवं आर्थिक रूप से पिछड़े समूह के लिए केंद्रीय सेवाओं में कुल मिलाकर साठ प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है. राज्य में सरकारों ने स्थानीय कारकों को ध्यान में रख कर आरक्षण की सीमा में निरंतर विस्तार की नीति को अपनाना ही बेहतर माना है. बिहार में जातीय जनगणना को सभी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के समाधान के तौर पर पेश किया गया था, किंतु आंकड़े उपलब्ध हो जाने के बाद आरक्षण के दायरे को बढ़ा कर 75 प्रतिशत करने के कदम ही सुर्खियों में छाए रहे. इसके अलावे अन्य उपायों से लोगों में उत्साह का संचार नहीं हो सका. भारतीय समाज में विद्यमान शिल्पकारों की परंपरा को आधुनिक स्वरूप देकर नई शुरुआत की जा सकती है. जातियों में विभाजित समाज में अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए भाजपा हिंदुत्ववादी विचारधारा का सहारा लेती है. इसलिए मजहब के आधार पर आरक्षण की बहस को यह पार्टी देश की मूल संस्कृति में हस्तक्षेप मानती है. मुल्क के बंटवारे की कहानियां सरहद के दोनों ओर राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित करतीं हैं. इस ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि बंटवारे के बाद मुस्लिम मध्यवर्ग के सदस्यों ने पाकिस्तान को जन्नत माना और उन्होंने पलायन की राह चुन ली, लेकिन गरीबी झेल रहे हम-मजहब भाई आज भी वहां मुहाजिर के तौर पर ही जाने जाते हैं. सरहद के इस पार रोशनख्याल नेतृत्व ने सबकी जानमाल की सुरक्षा का वादा पूरा किया.
गांधीजी की विरासत का ख्याल
गांधीजी की विरासत समकालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय लोगों से जिम्मेदार व्यवहार की उम्मीद करती है. इसमें धर्म का राजनीतिक स्वरूप देखने की आकांक्षा ने ही परतंत्र देश में मुस्लिम लीग के दावों को वैधता प्रदान की थी. चुनावी मौसम में नेता विभक्त भारतीय समाज की भावनाओं से खेल रहे हैं. इन खतरनाक हरकतों से गंगा-जमुनी तहजीब एवं बहुसंस्कृतीय समाज की अवधारणा को ठेस पहुंचती है. इस सच को स्वीकार करने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े होने के कारण सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों की स्थिति उत्साहजनक नहीं है. ज्योतिबा फुले, अंबेडकर, पेरियार, जयप्रकाश नारायण एवं राममनोहर लोहिया के अथक परिश्रम से समाज के दबे-कुचले वर्ग के लोगों का न केवल राजनीतिक सशक्तीकरण हुआ बल्कि उनमें शैक्षणिक जागरूकता भी आई. आजाद भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों का संवर्द्धन हो रहा है, लेकिन पराजित नेता सत्ता में वापसी के लिए भय एवं अविश्वास का ऐसा माहौल बना देते हैं जिससे किसी समस्या का हल ढूंढना असंभव-सा प्रतीत होने लगता है. देश में अल्पसंख्यक समूहों के कल्याण के लिए बहुत-सी योजनाएं हैं जिनका लाभ मुसलमानों को भी मिलता है.
वोट के लिए भड़कातें हैं भावना
मुस्लिम समाज से वोट लेने के लिए “धर्मनिरपेक्ष” राजनीतिक दल उन मसलों को ही उछालते हैं जिनसे भावनाएं भड़कती हैं, लेकिन इस समाज के आर्थिक विकास को लेकर कोई आंदोलन हुआ हो, ऐसी खबर कभी सामने नहीं आई है. एहसास-ए-कमतरी का जिक्र करने से भ्रम पैदा होता है. दिल्ली, मुंबई, कोलकात्ता और दूसरे महानगरों में सिर्फ मुसलमान ही नहीं झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं बल्कि अन्य समुदाय के गरीब लोग भी अपनी रोजी-रोटी अर्जित करने के लिए इन इलाकों में रहते हैं. मुसलमान अगर शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़े हुए हैं तो परिवर्तन के लिए पहल सामुदायिक स्तर पर होना बहुत जरूरी है. दलित एवं पिछड़े वर्ग के नेताओं ने अपने अधिकारों के लिए जिस तरह संघर्ष किया उसकी प्रकृति राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रही है, किंतु मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि “पहचान की राजनीति” में उलझ जाते हैं. जबकि प्राथमिकता चीजों को सकारात्मक ढंग से देखने की होनी चाहिए. हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों को खत्म करने के लिए समाज-सुधारकों ने तार्किक सोच को बढ़ावा दिया जिसके परिणामस्वरूप उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद जगी. मुल्क के बंटवारे ने जिन दूरियों और नफरतों को जन्म दिया, उसे भूल कर अब आगे देखने की जरूरत है. इन दिनों हिंदुस्तान के लोकतंत्र में खामियां ढूंढने के लिए कुछ लोग बेचैन हैं. लेकिन ऐसे लोगों को दक्षिण एशिया के अन्य देशों की शासन पद्धति की भी समीक्षा करनी चाहिए.
हिंदू-राष्ट्रवाद के कथित उभार की गैरजिम्मेदार व्याख्या ने मुसलमानों को कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दलों का स्थायी वोटर बना डाला जिससे उनकी राजनीतिक चेतना को सही दिशा नहीं मिल सकी. वैविध्यपूर्ण आबादी देश की ताकत है. यहां हजारों उपजातियां एवं जनजातियां बसती हैं. आर्थिक विकास का लाभ सबको मिले, इसके लिए जरूरी है कि योजनाओं के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए.
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