“देवभूमि में लगी आग जलवायु परिवर्तन का एक और दुष्परिणाम”

देवभूमि के जलते जंगल यानी जलवायु परिवर्तन की एक और विभीषिका

उत्तराखंड के जंगल की आग पिछले कुछ दिनों  से राष्ट्रीय सुर्खियों में है, मामला इस कदर संगीन हो चला कि बात सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच चुकी है और स्थानीय उत्तराखंड सरकार को वहाँ  के धू-धू कर जल रहे जंगल के बारे में स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी. सरकार के हलफनामे के अनुसार कम से कम 398 आग की घटनाओं से हज़ार हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पूरी तरह से जल चुके हैं. वैसे मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आग का प्रसार इससे कहीं ज्यादा और व्यापक है जो राज्य के पूर्वी छोर  से पश्चिम तक फैला है. गढ़वाल के मुकाबले कुमाऊं के वन-क्षेत्र पर आग का कहर ज्यादा है. देश-भर के आंकड़े देखे तो मौजूदा आग के मौसम में आग लगने की और आग की  चेतावानी की संख्या के लिहाज से उत्तराखंड बाकी सारे राज्यों के मुकाबले शीर्ष पर बना हुआ है.

आग लगना प्राकृतिक, पर…

भारत में जलवायु के हिसाब से आग लगने का मौसम बरसात के बाद से बरसात के आने के पहले तक का होता है यानी नवम्बर से जून तक, जिसमें  सबसे जयादा प्रभावी महीना मार्च से मई का होता है, और हम अनुमान के मुताबिक अब तक के सबसे गर्म मई के महीने में हैं. वैसे तो जंगल में आग लगना एक प्राकृतिक घटना और पारिस्थितिकी तंत्र की एक जरुरी प्रक्रिया है, जिससे मिट्टी में पोषण का एक नया दौर शुरू होता है, वहीं ऊंचे पेड़ों के वितान या क्राउन के जल जाने से सूर्य की रोशनी सीधे जमीन तक पहुंचने से नए पेड़-पौधे के पनपने को गति मिलती है. सामान्य रूप से जंगल की आग से सालाना वैश्विक स्तर पर 3% जंगल जल जाते हैं. जंगल में आग के लिए प्राकृतिक रूप से तीन परिस्थितियाँ  जरुरी है, जिसे ‘फायर ट्रायंगल’ कहते हैं, जिसमें ज्वलनशील पदार्थ या जरुरी ईंधन, उच्च तापमान यानी गर्मी और ऑक्सीजन की उपलब्धता. वहीं धरती का तापमान बढ़ने से जमीन पर आर्द्रता जल्दी ख़त्म हो जाती है, सूखा बड़े दायरे में फैलता है और ‘फायर ट्रायंगल’ आग को अंजाम देती है. इस तरह जलवायु परिवर्तन और जंगल की आग एक-दूसरे को पोषित कर रहे हैं.

हाल के कुछ सालों  में जंगलों  पर आग के रूप में आयी इस तबाही की बारंबारता, व्यापकता और नुकसान के स्तर को देखे तो वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव साफ-साफ दीखता है. जंगल में फैलती आग अंतत: वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा  बढ़ाकर वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन की गति को तेज करता दिख रहा है. इससे उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के  शहरों-गांवों की हवा में घुला जहरीला धुआं बच्चों-बुजुर्गों की  सांस की  तकलीफ का कारण बनता है.

वैश्विक स्तर पर जलते जंगल

पिछले कुछ सालों में वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से जंगल को जलते देख चुके हैं  जिसमें  ऑस्ट्रेलिया, अमेज़न, पश्चिमी अमेरिका का कैलिफ़ोर्निया और पिछले साल कनाडा में आग से जंगलों  के एक बड़े भू-भाग की तबाही प्रमुख है. आग के विस्तार का मसला यह है कि यह अब अंतरिक्ष  से भी देखा  जा सकता  है. जंगल की आग की ये सारी घटनायें  वहां  लगने वाले आग की पिछली सारी तबाही से कई-कई गुणा ज्यादा भयावह और विस्तार वाली रही, जिसमें  ना सिर्फ जंगल जले बल्कि आर्थिक  नुकसान से ज्यादा जैव-विविधता की अपूरणीय क्षति हुई. यह सिर्फ़ जंगल के जल जाने का मामला नहीं है इस दावानल में करोड़ों  कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं, तितलियाँ मर जाती  हैं, छोटी झाड़ियाँ और नए पेड़ मरते हैं, उड़ने से लाचार चिड़ियों के नन्हे बच्चे घोंसले में ही मर जाते हैं. इस आग से खुद को बचा पाने में असमर्थ  वन्य जीव अपने परिवार सहित उजड़ जाते हैं. इस संकट की घड़ी में  प्रकृति और उसकी पारिस्थितिकी का संतुलन ऐसा बिगड़ता है कि अगर सब कुछ  ठीक से बनता रहा तो  तब उसे पूर्ववत अवस्था में आने में दस-बारह साल लग जाते हैं.  

जंगल पर आश्रित समाज

जंगल की आग ना सिर्फ प्राकृतिक घटना है परन्तु जंगल पर आश्रित समाज हजारों साल से नियंत्रित स्तर पर आग लगाकर जंगल में उपजे छोटे झाड़-झंखाड़ को साफ करते आये हैं. अगर ऐसे झाड़ – झंखाड़ को नियमित स्तर पर साफ नहीं किया गया तो ये आग के फैलाव के लिए ईंधन का काम करते हैं और अंततः आग को अनियंत्रित कर देते हैं. एक नियमित अन्तराल पर अनियंत्रित आग को काबू में  रखने का एक परंपरागत तरीका है. पर अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं,अब जलवायु परिवर्तन बेकाबू आग के लिए सारी परिस्थितियां मुहैया करा दे रहा है, ऐसे में नियंत्रित स्तर पर आग के बेकाबू हो जाने के अपने खतरे हैं, और यही भारत के हिमालयीय जंगलो में हो रहा है. यहाँ ना सिर्फ जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जिसमें  बारिश का पैटर्न बदला है, मानवीय गतिविधियां  बढ़ी हैं, बल्कि जंगल की प्रवृति भी बदली है. हिमाचल और उत्तराखंड के जंगल मुख्य रूप से चीड़, साल और बांज, के पेड़ों से आच्छादित है. आर्थिक कारणों से जिसमें इमारती लड़की और रेसिन प्रमुख है, चीड़ के वन समूचे प्रदेश में लगाये गए जो समय के साथ समृद्ध होते चले गए. चीड़ एक पायोनियर पेड़ है, जो खुले और भू-स्खलन से तबाह हुए ढलान पर आसानी से पनप जाता है, जिसके कारण प्राकृतिक रूप से भी पिछले कुछ दशक में चीड़ वन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है जो बढ़कर कुल वन क्षेत्र का 28% तक हो चुका है. दूसरी तरफ बांज, जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल है, जो लम्बे जड़ो से मिटटी को मजबूती देता है, भू-जल रिचार्ज को बढ़ता है, साथ ही साथ स्थानीय समुदाय के लिए चारा, कम्पोस्ट खाद, जलावन और फर्नीचर की,लकड़ी तक मुहैया करता है तथा समृद्ध जैव-विविधता का पोषक है, उसका  दायरा सिकुड़ रहा है. इस कारण सालों भर चलने वाले झरने सूख रहे हैं, भू-जल रसातल में जा रहा है.

जलवायु परिवर्तन और वन

वन की संरचना में आये बदलाव के कारण मार्च आते-आते मिट्टी  की आर्द्रता जाती रहती है, बढ़ता तापमान और सूखे  का दायरा बढ़ता जाता है. ऐसे में सर्दी के बाद से चीड़ के सूखे पत्ते जिसे स्थानीय लोग पिरूल कहते हैं, जो रेजिन के कारण काफी ज्वलनशील होता है, आग का कारण बन जा रहा है, जो आग के फैलाव के साथ-साथ आग के लिए जरूरी ईंधन का काम करता है. आग लगने के लिए अनुकूल इस सारी परिस्थितियों के बावजूद यहां आग लगने की लगभग 90% घटनाएं  मानवीय चूक का नतीजा हैं. आग के अधिकांश मामले रबी  फसल की कटाई के बाद खरीफ फसल की तैयारी के लिए पराली जलाने के क्रम में जंगल तक फ़ैल रही है. मानव की लापरवाही,आग़ लगने के अनुकूल वन की संरचना, बांज के मुकाबले चीर वन का बढ़ता दायरा, जलवायु परिवर्तन से उपजी सूखे की स्थितियों के अलावा वनों का प्रबंधन और स्थानीय लोगों  की सहभागिता का स्तर भी उत्तराखंड के जंगल में फैले भीषण आग के लिए जिम्मेदार है. 

सरकार, जंगल और जन

दूसरी तरफ़ सरकार के पास तमाम संसाधन हैं पर जंगलों और समाज के हजारों  साल से बने संबंध  की परख नहीं है, जिस आधार पर स्थानीय समाज आग से बचाव के लिए सालों  भर ना सिर्फ अपने जंगल की निगरानी करते आया है बल्कि उचित तैयारी जिसमें  छोटे-छोटे झाड़-झंखाड़ को नियंत्रित आग से साफ करना, फायर लाइन तैयार करना शामिल है. उत्तराखंड में अधिकांश जंगल सरकार के नियंत्रण में है, जहां  स्थानीय समुदाय की गतिविधि काफी हद तक प्रतिबंधित है, वहीं जिन वनों का स्थानीय समुदाय वन पंचायत के माध्यम से प्रबंधन करता है वहां भी वन विभाग का दखल पिछले कुछ सालो में बढ़ा है. हालांकि आग की बेकाबू होती स्थिति के बीच उत्तराखंड की सरकार ने आनन-फानन में प्रति किलो 50 रुपया मानदेय के साथ ‘पिरुल लाओ पैसे पाओ’ जिसे प्रभावी कदम उठाए हैं पर अभी भी पर्यावरण किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में कहीं नहीं है. इस साल आग की व्यापकता और विभीषिका को देखते हुए बारिश के अलावा कोई और तात्कालिक समाधान नहीं दीखता. अभी दो दिनों की बारिश ने इस भयावहता को थोड़ा नियंत्रित जरुर किया है लेकिन हमें भविष्य के लिए तैयार रहना है, क्योंकि जंगल है तो हरे-भरे पहाड़ है, पहाड़ है तो नदियाँ है और नदियाँ है तो पानी है, अनाज है,  सभ्यता है.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि  …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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