इस लोकसभा चुनाव में अभी तक के पांच जरूरी सबक?
इस लोकसभा चुनाव में अभी तक के पांच जरूरी सबक
अभी तक इस पर ज्यादा बहसें नहीं हुई हैं कि कांग्रेस कितनी सीटें जीत सकती है, लेकिन हर भारतीय पान की दुकान से लेकर टीवी स्टूडियो तक इस बात पर बहस कर रहा है कि अबकी बार 220 या 272 या 300 पार या 400 पार?
परिणाम चाहे जो हों, हम सभी इस चुनाव-अभियान से निम्नलिखित सबक तो सीख ही रहे हैं। 1. जातिवाद न कम हुआ है, न उसके कम होने के आसार हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और सभी क्षेत्रीय पार्टियों के बहुतेरे उम्मीदवार जाति के आधार पर ही चुने गए थे। 2. लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव भी होंगे और उन्हें ध्यान में रखकर इन राज्यों में राजनीतिक तिकड़में की जा रही हैं। वहीं आंध्र प्रदेश और ओडिशा में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों के होने से नए राजनीतिक आयाम निर्मित हुए हैं। इन सभी महत्वपूर्ण राज्यों ने यह दिखाया है कि क्षेत्रीय-क्षत्रपों के लिए अपने राज्य की राजनीति बहुत मायने रखती है। 3. यह पहला चुनाव है जब सत्ता पक्ष की कमजोरियों पर यूट्यूब वीडियो और इंस्टाग्राम रील्स पर जोरदार बहसें हुई हैं। ऐसे इंफ्लूएंसर्स को करोड़ों दर्शक भी मिले हैं। भाजपा के हिंदुत्व संबंधी नैरेटिव पर इतनी जोरदार प्रतिक्रिया दी गई, जितनी पहले कभी नहीं दी गई थी। सरकार को रिकवरी के मोड में आना पड़ा। यह देखकर अच्छा लगा कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के प्रति भारतीयों की भावनाएं आज भी जीवित और सक्रिय हैं। यह एक अभूतपूर्व स्थिति थी, जिसमें धन, संसाधन और संगठनात्मक ताकत वाली सरकार पहले चरण के तुरंत बाद काफी रक्षात्मक लग रही थी। 4. लोकसभा चुनाव में कश्मीर ने भी इतिहास रचा। श्रीनगर शहर में 38 फीसदी वोटिंग होना एक बड़ी उपलब्धि रही है। 5. इस चुनाव का सबसे चर्चित विषय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 21 अप्रैल को बांसवाड़ा में दिया गया भाषण रहा है।
भारत में प्रमुखतः दो ही राष्ट्रीय पार्टियां हैं- भाजपा और कांग्रेस। चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लगातार कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम तुष्टिकरण के मुद्दे को उछालने से ये तो पक्का हो गया कि भाजपा ‘हिंदू पहचान की रक्षा’ का अपना राजनीतिक मुद्दा निकट-भविष्य में तो छोड़ने नहीं जा रही है।
दूसरी तरफ मुस्लिम मतदाता और भाजपा के राजनीतिक दृष्टिकोण के अन्य आलोचक राष्ट्रीय चुनाव के दौरान कांग्रेस के इर्द-गिर्द लामबंद हो जाते हैं। जब प्रधानमंत्री मोदी चुनावी मौसम में अपनी पार्टी के लिए प्रचारक बनते हैं तो वे कांग्रेस और उसके लिए लॉबीइंग करने वालों (वामपंथी-उदारवादियों) और कांग्रेस के वोट बैंक (मुस्लिमों) को सीधे निशाने पर लेते हैं, क्योंकि कांग्रेस उनकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी है।
लेकिन हाल में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने अपनी बांसवाड़ा स्पीच को डिकोड किया। उन्होंने कहा कि वे कांग्रेस के छद्म सेकुलरिज्म को आड़े हाथों ले रहे थे। 14 मई को वाराणसी में अपना नामांकन दर्ज करने के बाद उन्होंने कहा कि ‘मुझे यकीन है मेरे देश के लोग मेरे लिए वोट करेंगे। मैं जिस दिन हिंदू-मुस्लिम करना शुरू कर दूंगा, उस दिन सार्वजनिक जीवन में रहने योग्य नहीं रहूंगा।’
कई विश्लेषकों का मत है कि बांसवाड़ा स्पीच पर आई प्रतिक्रियाओं के बाद प्रधानमंत्री ने अपने कथन की नई व्याख्या प्रस्तुत करने की कोशिश की है। शायद वे मुस्लिमों को समझाने-बुझाने की कोशिश भी कर रहे थे और उनसे पूछ रहे थे कि ‘आपको क्या फायदा हुआ कांग्रेस के साथ रहने से?’
ये निर्विवाद सत्य है कि भारतीय राजनीति जलेबी की तरह है। यहां कुछ भी ना सीधा है, ना यहां कोई सत्य अंतिम है।
लोकसभा का चुनाव भी उलझन में डालने वाली जलेबियां बनाने का महोत्सव बनता जा रहा है। जहां दिग्गजों के हर बयान उनके पिछले बयान से ज्यादा घुमावदार थे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)