बढ़ता हुआ स्क्रीन-टाइम अब नजरों को कमजोर कर रहा है !

बढ़ता हुआ स्क्रीन-टाइम अब नजरों को कमजोर कर रहा है

भारत में आंखों की रोशनी कम होना एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। अनुमानित रूप से 28 करोड़ भारतीय (यानी हर पांच में से एक) ऐसे हैं, जिन्हें आंखों की रोशनी से संबंधित कोई न कोई समस्या है। हालांकि मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मानसिक स्वास्थ्य जैसी अन्य समस्याओं के उलट खराब दृष्टि को नजरअंदाज कर दिया जाता है और इसका पता भी बहुत देर से चलता है।

आंखों की रोशनी कम होना केवल वयस्कों की ही समस्या नहीं है। बच्चे भी अक्सर इससे प्रभावित होते हैं। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि कुछ दशक पहले तक बच्चों में कमजोर नजर आमतौर पर 10 से 12 साल की उम्र में मिलती थी, अब इसकी शुरुआत 6 से 8 साल की उम्र में ही हो जाती है। भारत में लगभग 20% स्कूली बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें चश्मे की जरूरत होती है।

भारत एक बहुत ही सफल राष्ट्रीय अंधत्व नियंत्रण कार्यक्रम चला रहा है। इससे अंधत्व तो कम हुआ है, लेकिन कमजोर नजर की समस्या से अभी भी निपटा नहीं जा सका है। बढ़ते स्क्रीन-टाइम, बच्चों के लिए अतिरिक्त ट्यूशन और कक्षाओं के कारण सभी आयु-समूहों में खराब दृष्टि का बोझ बढ़ रहा है।

आमतौर पर सिरदर्द, आंखों में तनाव, सूखी आंख से इसकी शुरुआत होती है। इसका सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह से प्रभाव पड़ता है, क्योंकि कमजोर नजर से कार्यबल की उत्पादकता कम होती है। जून 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला था कि कमजोर दृष्टि के कारण भारत में उत्पादकता के संभावित 64,600 करोड़ रु. का नुकसान हुआ।

सबसे बड़ी लागत रोजगार के नुकसान की है। फिर आंखों की देखभाल में जाने वाला समय है। यदि कामकाजी आबादी की नजर कमजोर हो तो यह किसी भी देश की आर्थिक वृद्धि को रोक सकती है। हाल में बांग्लादेश में किए गए एक अध्ययन से भी यही पता चला है।

सबसे पहले तो आंखों के स्वास्थ्य और खराब नजर के बारे में सार्वजनिक स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। चश्मों के प्रति जन-स्वीकार्यता बढ़ाना भी जरूरी है। चश्मा पहनना एक बहुत ही सामान्य बात है और इसमें देरी करने से आंखों की रोशनी प्रभावित हो सकती है और अनेक जटिलताएं उत्पन्न हो सकती हैं। दूसरे, देश को सिर्फ अंधेपन ही नहीं, सही दृष्टि पर भी ध्यान देने की जरूरत है। गरीबों और वंचितों के लिए चश्मों का नि:शुल्क वितरण भी सरकार की ही अपनी जिम्मेदारी होनी चाहिए।

वहीं बच्चों में कमजोर दृष्टि की बढ़ती चुनौती से निपटने के लिए स्कूली स्वास्थ्य कार्यक्रमों को मजबूत करने की जरूरत है, जिसमें आंखों की जांच और चश्मे की पेशकश पर ध्यान बढ़ाया जाए। नेत्र रोग विशेषज्ञ सेवाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में एकीकृत करना भी अपेक्षित है, ताकि लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान और समय पर पहुंच मिले।

भारत में बुजुर्गों की आबादी पहले ही लगभग 11 करोड़ हो चुकी है और अगले दशक में इसके दोगुना होने की संभावना है, ऐसे में जरूरी है कि इस आबादी की नजर सही हो और सेवाओं तक पहुंच हो। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आंखों की जांच करानी चाहिए। सभी के लिए स्क्रीन टाइम कम किया जाना चाहिए और खासकर बच्चों के लिए।

जो लोग कंप्यूटर स्क्रीन का उपयोग करते हैं, वे 20-20-20 के तरीके का पालन कर सकते हैं यानी हर 20 मिनट के स्क्रीन-टाइम के बाद 20 सेकंड के लिए 20 फीट दूर देखना चाहिए। खानपान की आदतों में सुधार भी जरूरी है।

चश्मा पहनना बहुत सामान्य बात है
और इसमें देरी करने से आंखों की रोशनी प्रभावित हो सकती है और अनेक जटिलताएं उत्पन्न हो सकती हैं। गरीबों और वंचितों के लिए चश्मों का नि:शुल्क वितरण भी सरकार की जिम्मेदारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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