ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की तरक्की में बहुत बड़ा रोड़ा है !
जलवायु परिवर्तन: सेहत ही नहीं, आपको गरीबी की ओर भी धकेल रहा है!
ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की तरक्की में बहुत बड़ा रोड़ा है. जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए सिर्फ प्रदूषण कम करना काफी नहीं है, बल्कि उसके असरों से बचने के लिए खुद को तैयार करना भी उतना ही जरूरी है.
पृथ्वी के बढ़ते तापमान का असर सिर्फ ग्लेशियरों के पिघलने या मौसम के बिगड़ने तक सीमित नहीं है, बल्कि ये हमारी जेब पर भी सीधा असर डाल रहा है. हाल ही में दो बड़ी रिपोर्ट्स ने जलवायु परिवर्तन को लेकर चेतावनी दी है.
अमेरिका के नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च (NBER) के अर्थशास्त्रियों की एक नई रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर 1960 से 2019 के बीच ग्लोबल वार्मिंग नहीं होता तो आज दुनिया की जीडीपी (GDP) 37% ज्यादा होती. ये रिसर्च इस बात पर भी जोर देती है कि ग्लोबल वार्मिंग का आर्थिक नुकसान पहले के अनुमानों से कहीं ज़्यादा है, शायद 6 गुना ज्यादा. ऐसा इसलिए क्योंकि ये रिसर्च दुनियाभर के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को जोड़कर देखती है.
इसी तरह की एक और रिसर्च पिछले महीने नेचर जर्नल में प्रकाशित हुई थी जिसमें बताया गया था कि अगर जलवायु परिवर्तन नहीं होता तो अगले 26 सालों में औसत आमदनी अभी के मुकाबले 20% ज्यादा होती.
दोनों ही रिसर्च इस बात पर एकमत हैं कि ग्लोबल वार्मिंग का खर्च, जीवाश्म ईंधन से होने वाले नुकसान से कहीं ज्यादा है. ये रिसर्च लू, बाढ़, तूफान और जलवायु परिवर्तन के दूसरे बुरे असरों को जोड़कर देखती हैं जो लोगों की सेहत पर असर डालते हैं. उनकी काम करने की क्षमता घटाते हैं और उनकी रोज़ी-रोटी पर भी असर डालते हैं.
कैसे दुनिया की आर्थिक और राजनीतिक तस्वीर बदल रही
जलवायु परिवर्तन सिर्फ मौसम में बदलाव नहीं ला रहा है बल्कि यह पूरी दुनिया की आर्थिक और राजनीतिक तस्वीर को भी बदल रहा है. बढ़ता तापमान, बारिश के पैटर्न में बदलाव, और मौसम की मार से खेती के लिए उपयुक्त जगहों का नक्शा बदल रहा है. जैसे कि मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में पहले से उपजाऊ इलाकों में सूखे और रेगिस्तान बढ़ने से फसलें कम हो रही हैं. इससे वहां खाने की कमी और आर्थिक अस्थिरता बढ़ रही है.
जलवायु परिवर्तन से पानी की कमी बढ़ रही है जिससे पानी को लेकर देशों के बीच झगड़े बढ़ रहे हैं. जैसे कि नील नदी के पानी को लेकर अफ्रीकी देशों में तनाव बढ़ रहा है. जलवायु परिवर्तन की वजह से नदी का जलस्तर घट रहा है. इस वजह से खेती, बिजली उत्पादन और दूसरी आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़ रहा है.
जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं की वजह से लोग अपने घर छोड़कर दूसरी जगहों पर जाने को मजबूर हो रहे हैं. इससे उन जगहों पर रहने वाले लोगों के लिए आर्थिक चुनौतियां पैदा हो रही हैं और चीजों को लेकर झगड़े हो रहे हैं. जैसे एक रिसर्च के अनुसार, बांग्लादेश में समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण 2050 तक लगभग 17% तटीय इलाके डूबने और 2 करोड़ लोगों के बेघर होने का अनुमान है.
दुनिया की अर्थव्यवस्था में मच रही उथल-पुथल, कैसे?
जलवायु परिवर्तन भले ही चिंता का विषय है लेकिन इसके कुछ अप्रत्याशित फायदे भी सामने आ रहे हैं. जैसे-जैसे आर्कटिक का बर्फ का आवरण पिघल रहा है, वैसे-वैसे जहाजों के लिए नए रास्ते खुल रहे हैं और प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच आसान हो रही है. इससे इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले देशों के बीच आर्थिक होड़ लगने की संभावना है.
वहीं जलवायु परिवर्तन आग में घी डालने का काम कर रहा है. जहां पहले से ही राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक चुनौतियां हैं, वहां संसाधनों को लेकर तनाव और बढ़ रहा है. जैसे कि सीरिया में 2007 से 2010 तक पड़े लंबे सूखे ने वहां के गृहयुद्ध को भड़काने में बड़ी भूमिका निभाई. मौसम की मार और जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाएं पूरी दुनिया की सप्लाई चेन को तोड़ रही हैं, जिससे आर्थिक नुकसान हो रहा है और जरूरी सामानों की कमी हो सकती है. जैसे 2011 में थाईलैंड में आई बाढ़ ने इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोबाइल पार्ट्स की सप्लाई चेन को पूरी तरह हिला दिया था. इसका असर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ा था.
जलवायु परिवर्तन की चपेट में कौन से इलाके
जलवायु परिवर्तन का असर हर जगह एक जैसा नहीं है, कुछ इलाकों में इसका ज्यादा कहर बरप रहा है. जैसे कि सूखे इलाके, जहां की इकोसिस्टम के बारे में हमें ज्यादा जानकारी नहीं है. हाल ही में UN की एक रिपोर्ट ने ऐसे ही एक इलाके रेंजलैंड (जिसमें रेगिस्तानी झाड़ियां, पहाड़ी चारागाह, टुंड्रा और पठार शामिल हैं) पर जलवायु परिवर्तन के खतरनाक असर को उजागर किया है. रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से 50% से ज्यादा इकोसिस्टम बर्बाद हो चुके हैं.
लेकिन पर्यावरण संरक्षण की बात आने पर जंगलों को जितनी अहमियत दी जाती है उतनी रेंजलैंड को नहीं दी जाती, जबकि ये भी उतने ही जरूरी है. भारत में भी ऐसी जगहें हैं, जहां के लोग इन रेंजलैंड पर निर्भर हैं जैसे कि मालधारी, वन गुर्जर और रबारी. इन लोगों की जिंदगी और इनके रहन-सहन को बचाना, साथ ही इन्हें आधुनिक अर्थव्यवस्था में शामिल करना एक बड़ी चुनौती है.
भारत की अर्थव्यवस्था को कैसे नुकसान हो सकता है?
जलवायु परिवर्तन का असर भारत की अर्थव्यवस्था पर भी साफ दिख रहा है. भारत की लगभग 55% आबादी खेती पर निर्भर है और यह हमारी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है. फसलों की पैदावार कम होने से गांव की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ेगा और शहरों में महंगाई बढ़ सकती है. एक अनुमान के मुताबिक अगर हम जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए कोई कदम नहीं उठाते हैं तो 2050 तक भारत में बारिश पर निर्भर धान की पैदावार 20% तक कम हो सकती है.
इसके अलावा, कारखानों के लिए नए नियम-कानून बनेंगे जिससे उनकी लागत बढ़ सकती है और मुनाफा कम हो सकता है. पुराने स्टॉक का इस्तेमाल कम करना पड़ेगा और हरित ऊर्जा के लिए नया निवेश करना होगा. बीमा के दावे बढ़ेंगे, ट्रैवल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में रुकावटें आएंगी जिससे सेवा क्षेत्र को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
मजदूर, बैंक और कारखानों पर भी मार!
जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ खेतों और शहरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये मजदूरों, बैंकों और कारखानों को भी प्रभावित कर रहा है. जलवायु परिवर्तन की वजह से गर्मी और उमस ज्यादा बढ़ने से लोगों का बीमार होना आम हो सकता है. इससे काम करने की क्षमता कम होगी और जोखिम वाले इलाकों से पलायन भी बढ़ेगा.
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) का अनुमान है कि 2030 तक अकेले तेज गर्मी और उमस की वजह से काम के घंटे कम होने से भारत की जीडीपी (GDP) को 4.5% तक का नुकसान हो सकता है. एक अनुमान के मुताबिक 2030 तक दुनियाभर में गर्मी की वजह से कुल 8 करोड़ नौकरियां खत्म हो सकती हैं, जिनमें से करीब 3.4 करोड़ सिर्फ भारत में ही हो सकती हैं.
इसके अलावा, बिजली बनाने वाले कारखाने, ट्रांसपोर्ट सेक्टर और खनन उद्योग सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करते हैं. रिजर्व बैंक का कहना है कि अगर भारत जीवाश्म ईंधन की जगह नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल करे, तो करीब 40% कार्बन उत्सर्जन कम किया जा सकता है. साथ ही अगर इलेक्ट्रिक गाड़ियों और कम ऊर्जा खर्च करने वाले बिजली के सामानों की तरफ रुख किया जाए तो 15% और कमी लाई जा सकती है.
जलवायु परिवर्तन से बचाव क्यों जरूरी
अभी तक जलवायु परिवर्तन को रोकने पर जोर दिया जा रहा था जो सही भी है. लेकिन अब ये समझ आ रहा है कि इससे होने वाले नुकसान से बचने की तैयारी भी उतनी ही जरूरी है.
हालांकि हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लोगों को बचाने के लिए उनकी सहनशीलता बढ़ाने पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है. चाहे वो NBER अर्थशास्त्रियों का मैक्रो लेवल पर किया गया अध्ययन हो या UN की डेजर्टिफिकेशन पर रिपोर्ट, दोनों ही इस बात पर ध्यान केंद्रित करती हैं कि लोगों को लू, बाढ़, भूस्खलन जैसी आपदाओं से बचाने, खेती को सूखा-प्रूफ बनाने और स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने की जरूरत है.
हालांकि इस बात की समझ बढ़ रही है कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढलने की जरूरत है लेकिन इसके लिए अभी भी पर्याप्त पैसा नहीं दिया जा रहा है. अजरबैजान की राजधानी बाकू में होने वाले अगले CoP (Conference of Parties) में इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार-विमर्श किया जा सकता है.