मणिपुर को लेकर सुलगते सवाल …..मणिपुर हिंसा के लिए कौन हैं ज़िम्मेदार?

मणिपुर को लेकर सुलगते सवाल, सात महीने बाद शवों का सामूहिक अंतिम संस्कार, कौन हैं ज़िम्मेदार

मणिपुर पूर्वोत्तर का ऐसा राज्य है, जो 2023 में हिंसा के लिए चर्चित रहा. इस हफ्ते मणिपुर में कुछ ऐसा देखने को मिला, जिसने उन ज़ख़्मों और पीड़ा को ताज़ा कर दिया, जिसे प्रदेश के लोगों ने इस साल झेला है.

मणिपुर के लोगों ने जिस हिंसा को झेला है, उसके बारे में अब देश के तमाम लोगों को ब-ख़ूबी जानकारी और अंदाज़ा दोनों है. उसके बावजूद 20 दिसंबर को मणिपुर के चुराचांदपुर में जो दृश्य था, वो न केवल मानवता के लिए, बल्कि बतौर किसी लोकतांत्रिक देश की सरकार, प्रशासनिक व्यवस्था के साथ ही आम नागरिकों के लिए सबक है.

सामूहिक तौर से 87 शवों को दफ़नाया गया

चुराचांदपुर में खुगा बांध के पास 20 दिसंबर को सामूहिक तौर से 87 शवों को दफ़नाया गया. ये उन लोगों के शव थे, जो हिंसा के शिकार हुए थे. मणिपुर में इस साल तीन मई से हिंसा ने व्यापक रूप ले लिया था. कई महीनों तक जारी हिंसा में मारे गए लोगों के ये शव थे. सोचकर ही अजीब लगता है कि ये सारे शव लंबे वक्त से मुर्दाघरों में रखे हुए. न तो इन शवों को उनके परिजनों के पास पहुँचाया गया था और न ही अब तक उनका अंतिम संस्कार हो पाया था.

महीनों से मुर्दाघरों में पड़े इन 87 शवों में 41 को इम्फाल और अन्य जगहों से 14 दिसंबर को चुराचांदपुर लाया गया था. वहीं 46 शव चुराचांदपुर जिला अस्पताल में रखा हुआ था. ये सारे लोग मणिपुर में जातीय हिंसा का शिकार हुए थे और ‘कुकी ज़ो’ समुदाय से संबंधित थे. आपको बता दें कि इससे पहले 15 दिसंबर को हिंसा में पहले मारे गये 19 लोगों के शव को दफ़नाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद ही संभव

जितनी हैरानी की बात 87 शवों का सामूहिक अंतिम संस्कार है, उससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन शवों का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़ता है. सुप्रीम कोर्ट की ओर से अगस्त में हाईकोर्ट के तीन पूर्व जजों की एक समिति बनायी गयी थी. इस समिति को मणिपुर में हिंसा की जांच, राहत और उपचारात्मक उपायों  के साथ मुआवजे और पुनर्वास जैसे मसलों पर रिपोर्ट देनी थी.

इस समिति की रिपोर्ट पर ग़ौर करते हुए पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने  राज्य सरकार या’नी एन बीरेन सिंह सरकार को हिंसा में मारे गये लोगों को दफ़नाने या दाह संस्कार करने का निर्देश जारी किया था. ये सारे शव पिछले सात महीने से प्रदेश के अलग-अलग मुर्दाघरों में रखे हुए थे.

यह विडंबना ही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था होते हुए भी हिंसा में मारे गये लोगों के शवों का सम्मानजनक अंतिम संस्कार या दफ़नाने की प्रक्रिया तब पूरी की जाती है, जब सुप्रीम कोर्ट का निर्देश जारी होता है. यह पहलू अपने आप में ही एन बीरेन सिंह सरकार पर सवाल खड़ा करता है.

सरकार की मंशा और क्षमता पर सवाल

हिंसा के पूरे प्रकरण और अवधि को देखें, तो, मणिपुर की बीजेपी सरकार की मंशा और क्षमता को लेकर सवाल कई हैं. लेकिन 20 दिसंबर को चुराचांदपुर में जो दृश्य दिखा, उससे समझा जा सकता है कि सरकार से लेकर पूरे प्रशासनिक तंत्र की ओर से पिछले कुछ महीने से किस कदर असंवेदनशीलता का परिचय दिया जा रहा था. राष्ट्रीय स्तर पर न तो इस मसले को लेकर कोई व्यापक चर्चा हो रही थी और न ही केंद्र सरकार के कर्ता-धर्ता की ओर से कोई बयान दिया जा रहा था. मुद्दा गंभीर होने के साथ ही संवेदनशील भी था, उसके बावजूद मीडिया की मुख्यधारा में भी महज़ खानापूर्ति की रस्म निभायी जा रही थी.

जवाबदेही को लेकर ख़ामोशी का आलम

मणिपुर हिंसा के मसले पर शुरू से ही सरकारी के साथ ही राजनीतिक रवैया और जवाबदेही को लेकर ख़ामोशी का आलम था. मणिपुर के इम्फाल घाटी में रहने वाले बहुसंख्यक मैतेई और पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले कुकी समुदायों के बीच इस साल मई की शुरूआत में जातीय हिंसा भड़क जाती है. मैतेई समुदाय अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने की मांग कर रहा था, जबकि कुकी-नागा समुदाय के लोग इसके विरोध में थे. तीन मई को पहाड़ी जिलों में आदिवासी एकजुटता  मार्च का आयोजन होता है और उसके बाद से ही मणिपुर हिंसा की आग में झुलसने लगता है.

अब तक 180 से अधिक लोगों की जान गयी

हालात अभी भी सामान्य नहीं हुए है. हिंसा की घटना बीच-बीच में अभी भी हो रही है. हालाँकि शुरूआती तीन महीने में या’नी मई, जून और जुलाई में मणिपुर के लोगों ने वो दिन देखे हैं, जिनकी कल्पना करके भी रोंगटे खड़े हो जाए. अगस्त और सितंबर में भी हिंसा का दौर जारी रहा था. सिर्फ़ सरकारी आँकड़ों की ही बात करें, तो, इस दौरान सितंबर के मध्य में दी गयी जानकारी के मुताबिक़ चार महीने में क़रीब 180 लोगों की जान चली गयी थी. घायलों की संख्या हज़ार के पार चली गयी थी. कई लोग लापता थे. पाँट हज़ार से ज़ियादा आगजनी की घटना हुई थी. शुरूआत में हज़ारों लोग बेघर होने को मजबूर हो गये थे. ये सरकारी आँकड़ा था, वास्तविकता इससे कही अधिक भयावह था.

टकराव की स्थिति अभी भी बरक़रार

हिंसा का दौर पूरी तरह से थमा नहीं है. टकराव की स्थिति बनी हुई है. यही कारण है कि अगले साल 18 फरवरी तक चुराचांदपुर जिले में धारा 144 या’नी निषेधाज्ञा आदेश लागू रहेगा. प्रदेश के कई इलाकों में भय का माहौल है. मणिपुर में जो कुछ हुआ या हो रहा है, उसका कारण चाहे जो भी हो, इतना ज़रूर कहा जाना चाहिए कि यह एन. बीरेन सिंह की अगुवाई में प्रदेश की बीजेपी सरकार के ऊपर एक धब्बा है.

हिंसा के बाद अब तक प्रधानमंत्री का दौरा नहीं

मणिपुर को लेकर न सिर्फ़ राज्य सरकार, बल्कि केंद्र सरकार की उदासीनता भी हम सब पहले तीन महीने में देख चुके हैं. यहाँ तक कि हिंसा की शुरूआत को लेकर साढ़े सात महीने से अधिक समय होने के बावजूद अभी तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर के लोगों का दु:ख-बाँटने के लिए प्रदेश का दौरा नहीं किया है.  प्रधानमंत्री का मणिपुर जाकर पीड़ित और प्रभावित इलाकों में लोगों से सीधे संवाद प्रदेश की स्थिति को सामान्य बनाने के नज़रिये से बेहद महत्वपूर्ण हो साबित हो सकता था.

सवाल कई सारे हैं, जो सरकारी से लेकर राजनीतिक जवाबदेही से जुड़े हैं. इसके अलावा मीडिया की भूमिका को लेकर भी सवाल हैं. मुद्दा इतना बड़ा था. गंभीर होने के साथ ही एक प्रदेश के लोगों की संवेदना और पीड़ा से जुड़ा मसला था. उसके बावजूद संसद के दोनों में से किसी भी सदन में मणिपुर हिंसा को लेकर अलग से कोई चर्चा नहीं हुयी. न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से अलग से इस विषय पर संसद में कोई बयान आया. हम सबने ने देखा है कि वे इस मसले पर अलग से संसद और संसद से बाहर बयान देने से गुरेज़ करते रहे हैं.

मणिपुर को लेकर ऐसी उदासीनता क्यों?

मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही नरेंद्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर लोकप्रिय हुए हैं, जो खेल से लेकर हर मुद्दे पर ट्वीट करते नज़र आए हैं, अपने मन की बात करते दिखे हैं. इसके बावजूद पिछले सात महीने से उन्होंने मणिपुर को लेकर अलग से कोई बयान नहीं दिया है.

व्यापक पैमाने पर हिंसा की शुरूआत 3 मई को होती है. 20 जुलाई को संसद का मानसून सत्र शुरू होता है. किसी भी सत्र की शुरूआत से पहले संसद परिसर से प्रधानमंत्री के बयान की परंपरा रही है. उसी परंपरा को निभाते हुए उस बयान के बीच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महज़ दो-तीन पंक्तियों में मणिपुर हिंसा के एक ख़ास प्रकरण का ज़िक्र करते हैं.

हिंसा की शुरूआत के ढाई महीने बाद उनकी तरफ़ से मणिपुर को लेकर कोई पहला बयान इस रूप में सामने आता है. वो भी तब, जब संसद के मानसून सत्र की शुरूआत से पहले मणिपुर का एक वीडियो वायरल होता है, जिसे देखकर पूरा देश सन्न रह जाता है. उस वायरल वीडियो में मणिपुर की दो महिला के साथ भीड़ में से कुछ लोग बर्बरतापूर्ण हरकत कर रहे होते हैं. इस वीडियो के वायरल होते ही देशभर में आक्रोश का माहौल पैदा हो जाता है. तब जाकर प्रधानमंत्री 20 जुलाई को इस घटना का ज़िक्र करते हुए बयान देते हैं.

उस वक़्त भी यह सवाल उठा था कि अगर मानसून सत्र से ठीक एक दिन पहले 19 जुलाई को महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण हरकत से जुड़ा वीडियो वायरल नहीं होता, तो मणिपुर की वास्तविकता से बाहर के लोग पता नहीं कब तक रू-ब-रू हो पाते, पता नहीं प्रधानमंत्री का वो बयान आता या नहीं.

मणिपुर पर चर्चा को संसद में जगह नहीं

मणिपुर हिंसा की शुरूआत के बाद संसद का मानसून सत्र, बीच में विशेष सत्र और अब शीतकालीन सत्र भी हो चुका है. इन तीन सत्रों में एक बार भी मणिपुर के मसले पर अलग से संसद के किसी भी सदन राज्य सभा और लोक सभा में अलग से स्वतंत्र रूप में कोई चर्चा नहीं हुई. मानसून सत्र में कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने चर्चा की मांग ज़रूर की. हालाँकि पूरे सत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष नियमों की फाँस में उलझा रहा. विपक्ष जिन नियमों के तहत चर्चा चाहता था, सरकार उसके लिए तैयार नही हुई. पूरे सत्र में बस इसी ज़ोर आज़माइश का सिलसिला जारी रहा. इन सबके बीच मानसून सत्र में मणिपुर हिंसा के मसले को संसद में चर्चा के लिए जगह नहीं मिली. उसके बाद न तो सितंबर में हुए विशेष सत्र और अभी-अभी  समाप्त हुए शीतकालीन सत्र में इस पर अलग से कोई चर्चा हो पायी.

राजनीतिक उलझन में दम तोड़ता मुद्दा

इतना गंभीर और संवेदनशील मुद्दा होने के बावजूद राजनीति में उलझकर मणिपुर के लोगों के दु:ख-दर्द को संसद में चर्चा के लिए जगह तक नहीं मिली. संसद में सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही पर बात तक नहीं हुई. इससे भी जुड़े कई सवाल खड़े होते हैं. ऐसा क्यों हुआ. सत्ता पक्ष के साथ ही इसके लिए कांग्रेस समेत विपक्ष के सारे दल भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं. राजनीतिक दलों के अड़ियल रवैये की वज्ह से मणिपुर के मुद्दे का संसद में दम घुट गया.

विपक्ष की भी ज़िम्मेदारी उतनी ही बनती है. मानसून सत्र के दौरान तो कुछ हद तक इस मसले को संसद में उठाने की छटपटाहट दिखी थी. हालाँकि इस मसले को नियमों में उलझाने के लिए विपक्षी दल भी सत्ताधारी बीजेपी के बराबर ही ज़िम्मेदार हैं. मानसून सत्र के बाद मणिपुर को लेकर विपक्षी दलों में भी उतनी उत्सुकता नहीं दिखी. सितंबर में हुए संसद के विशेष सत्र और 21 दिसंबर को खत्म हुए शीतकालीन सत्र के दौरान तमाम विपक्षी दलों की प्राथमिकता से मणिपुर का मुद्दा गायब था.

संसद में राजनीतिक जवाबदेही पर चर्चा नहीं

मणिपुर जैसा गंभीर और संवेदनशील मुद्दा हो तो संसद में चर्चा के जरिए राजनीतिक जवाबदेही तय करने की कोशिश की जाती है. राजनीतिक जवाबदेही से तात्पर्य सिर्फ़ सरकार की जवाबदेही नहीं है. संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक जवाबदेही सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से तय होती है.

जब संसद में किसी मुद्दे पर चर्चा होती है, तो लोगों को ये भी पता चलता है कि विपक्ष से जुड़ी पार्टियां उस मसले पर, उस समस्या पर कितना पुर-ज़ोर तरीके़ से जनता और पीड़ितों का पक्ष संसद में रख रही है. वहीं जवाब में सरकार ये बताने के लिए मजबूर होती है कि उस समस्या के समाधान के लिए सरकार की ओर से क्या कदम उठाए गए, वो कौन सी कड़ी थी, जहां चूक होने से इतनी बड़ी घटना घट गई या हिंसा का दौर इतना लंबा चला. मणिपुर के मामले में संसद में ऐसा कुछ नहीं हो पाया.

संसद में सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष से जुड़ी तमाम पार्टियों का जो इस पर रुख़ रहा है, उससे स्पष्ट था कि न तो मानसून सत्र से लेकर शीतकालीन सत्र तक में दोनों ही पक्ष की रुचि चर्चा से अधिक राजनीतिक खींचतान और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में थी. सरकार तो जनता की भलाई के लिए होती ही है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्षी दलों की जवाबदेही भी पूरी तरह से जनता के प्रति ही होती है. मणिपुर के मसले संसद के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जिस तरह की तनातनी इन सत्रों में दिखी, उससे प्रतीत होता कि जैसे दोनों पक्षों की जवाबदेही जनता के प्रति नहीं बल्कि एक-दूसरे के प्रति है.

सरकार से लेकर विपक्ष तक कटघरे में

इस साल जून के आख़िर में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी ने मणिपुर का दौरा किया था. वहीं विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने जुलाई के आख़िर में मणिपुर जाकर हालात का जाइज़ा लेने की कोशिश की थी. इन सबके बावजूद मणिपुर का मसला जितना गंभीर था, विपक्षी दलों की ओर से भी संसद से लेकर सड़क पर संघर्ष के साथ और संजीदगी दिखाए जाने की ज़रूरत थी.

एन बीरेन सिंह सरकार की जबावदेही

जहाँ तक सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही का सवाल है, शुरू से ही इस मसले पर राज्य की एन बीरेन सिंह सरकार के साथ केंद्र सरकार की ओर से बे-रुख़ी की स्थिति रही. हिंसा का वो दौर मणिपुर के लोगों ने देखा और झेला, जिसकी कल्पना मात्र से बाहर के लोग सिहर जाएं. इसके बावजूद एन.बीरेन सिंह की अगुवाई वाली प्रदेश सरकार लगातार सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही से पल्ला झाड़ती रही.

यहाँ तक कि राज्यपाल अनसुइया उइके ने भी खुलकर कहा कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसी हिंसा और भयावह स्थिति कभी नहीं देखी. केंद्र को उन्होंने प्रदेश की स्थिति को लेकर रिपोर्ट भी भेजी. उसके बावजूद केंद्र सरकार की ओर से ऐसा कोई संकेत दिखा, जिसे कहा जा सके कि राज्य सरकार पर सख़्ती की गयी हो.

केंद्र से एन बीरेन सिंह सरकार का बचाव

स्थिति तो इतनी ख़राब हो चुकी थी कि प्रदेश में क़ायदे से एन.बीरेन सिंह सरकार को बरख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए था. ख़ुद राज्यपाल न्यूज़ चौनल पर आकर भयावह स्थिति बयाँ कर चुकीं थीं. संविधान में अनुच्छेद 365 के तहत जिस राष्ट्रपति शासन का प्रावधान किया गया है, वो ऐसी ही स्थिति के लिए किया गया है. तमाम  दबाव और प्रदेश सरकार की हिंसा को रोकने में नाकामी के बावजूद केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन को लेकर कोई फ़ैसला नहीं किया. इसका नतीजा यह हुआ कि एन.बीरेन सिंह की सरकार सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही से पूरी तरह बच निकली.

मणिपुर को लेकर इतने मजबूर क्यों हो गये?

मणिपुर के लोगों के लिए पिछला 7 से 8 महीना कैसा रहा है, यह 87 शवों के सामूहिक दफ़नाने की घटना से समझा जा सकता है. कहने को हम दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. हमारी पहचान बड़ी सैन्य ताक़त के रूप में भी है. हम सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक तौर से दुनिया की शीर्ष शक्तियों में से एक हैं. इन सबके बावजूद हिंसा में मारे गये लोगों के शव का अंतिम संस्कार करने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे. महीनों शवों को मुर्दाघरों  में रखना पड़ गया.

मणिपुर हिंसा के लिए कौन हैं ज़िम्मेदार?

मणिपुर में ऐसे हालात के लिए आख़िरकार किसकी ज़िम्मेदारी बनती है. मणिपुर में मार्च 2017 से मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह की अगुवाई में बीजेपी की सरकार है. मार्च 2017 से पहले मणिपुर में ओकराम इबोबी सिंह की अगुवाई में 15 साल लगातार कांग्रेस की सरकार रही थी. उसके पहले भी मणिपुर में अधिकतर समय कांग्रेस की ही सरकार रही है.

मणिपुर की आबादी 30 लाख के आस-पास है. मणिपुर की आबादी में मैतेई समुदाय की संख्या क़रीब 53% है. ये लोग अधिकतर इंफाल घाटी में रहते हैं. इन्हें राज्य में अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला हुआ है. इनके साथ ही मणिपुर की आबादी में लगभग 40 फ़ीसदी नगा और कुकी आदिवासी हैं. नगा और कुकी आबादी का मुख्य ठौर पर्वतीय जिले हैं. मणिपुर में क़रीब 90% हिस्सा पहाड़ी इलाका है.

क्या हुआ बीजेपी के 2017 के वादों का हश्र?

मणिपुर में जातीय संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है. मार्च 2017 में जब विधान सभा चुनाव हो रहा था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के तमाम नेताओं ने दावा किया था कि अगर केंद्र के साथ ही प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार बन जाती है, तो मणिपुर के लोगों को सरकारी प्रयासों से इस जातीय संघर्ष से छुटकारा मिल जायेगा. बीजेपी के नेताओं ने कहा था केंद्र में जिस पार्टी की सरकार है, अगर उसी पार्टी की सरकार मणिपुर में भी बन जाये, तो मणिपुर की इस समस्या के साथ ही कई समस्याओं का समाधान जल्द ही हो जायेगा.

हालाँकि पिछले छह साल में यह नहीं हो पाया. इसके विपरीत प्रदेश के लोगों को हिंसा का वो दंश झेलना पड़ा, जिसमें अपने परिजनों का अंतिम संस्कार करने के लिए उन्हें महीनों का इंतिज़ार करना पड़ रहा है.

सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही से बचना आसान

मणिपुर के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि जब से प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी है, भीतरखाने मैतेई और कुकी-नागा समुदाय के बीच का मनमुटाव बढ़ने लगा है. मई से हिंसा की जिस व्यापक आग में मणिपुर झुलस रहा है, उसके लिए राजनीतिक कारक भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं. उसमें भी जब नेता और कार्यकर्ताओं से लेकर आम लोगों तक में मणिपुर जैसी हिंसा की व्याख्या दलगत आधार पर होने लगता है, तो फिर किसी भी सरकार के लिए राजनीतिक जवाबदेही से बचना आसान हो जाता है. मणिपुर के मामले में भी ऐसा ही हुआ है.

राजनीतिक और मीडिया विमर्श से क्यों है गायब?

जब चुराचांदपुर में सामूहिक दफ़नाने की तैयारी चल रही थी, संसद के साथ ही पूरा सरकारी तंत्र..राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के तमाम नेताओं के साथ ही मीडिया की मुख्यधारा का मुख्य ज़ोर मिमिक्री के मुद्दे पर था. हद तो ये हो गयी कि इस मुद्दे में जातिगत भावनाओं का भी प्रवेश करा दिया गया.

सवाल यहाँ भी हर किसी के लिए खड़ा होता है. क्या देश में आम नागरिकों के जान की कोई क़ीमत नहीं रही. मणिपुर में इतनी बड़ी घटना हो रही थी. राजनीतिक, सामाजिक के साथ ही मीडिया विमर्श से ही वो घटना एक तरह से नदारद थी या कहें नदारद कर दी गयी थी. इसको भी लेकर गंभीर सवाल उठते हैं, जिसे देश के हर नागरिक को गंभीरता से सोचना चाहिए.

मणिपुर में पिछले सात महीने में जिस तरह से हिंसा हुई है, आम नागरिकों के साथ जितनी घिनौनी हरकत हुई है..वो न सिर्फ़ एक राज्य के लिए बल्कि पूरे देश, समाज और उससे भी बढ़कर मानवता के लिए कलंक है. यह पूरा मामला समुदाय, धर्म, पार्टी और विचारधारा के आधार पर पक्ष-विपक्ष रखने का मामला नहीं है. जैसा कि हिंसा की शुरूआत के बाद से ही होता रहा है.

मणिपुर भी इसी देश का हिस्सा है. इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है. वहाँ के लोगों को भी सम्मान से जीने और उससे भी अधिक मरने के बाद सम्मान से अंतिम संस्कार का नैसर्गिक और संवैधानिक हक़ है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि …..न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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