सियासत में नोटा भी बन सकता है हार की वजह!
19 लोकसभा सीटें: सियासत में नोटा भी बन सकता है हार की वजह!
2014 लोकसभा चुनाव में लगभग 60 लाख और 2019 लोकसभा चुनाव में लगभग 65 लाख से ज्यादा वोटरों ने NOTA का विकल्प चुना था.
साल 2013, सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद भारत में पहली बार विधानसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल किया गया. NOTA का बटन दबाने के साथ ही मतदाताओं को ये बताने का विकल्प मिल गया कि वो किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते हैं और किसी को अपना वोट भी नहीं देंगे.
उसी साल 2013 विधानसभा और लोकसभा चुनाव में नोटा के खाते में काफी वोट गए. कुछ निर्वाचन क्षेत्र तो ऐसे भी थे जहां नोटा वोट रनर-अप कैंडिडेट के बाद तीसरे स्थान पर रहा. 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भी लगभग 60 लाख वोटरों और 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 65 लाख से ज्यादा वोटरों ने NOTA का विकल्प चुना था.
हालांकि 2024 लोकसभा चुनाव में इस विकल्प का पिछले दो आम चुनावों की तुलना में थोड़ा कम इस्तेमाल किया गया. 18वीं लोकसभा चुनाव में 63.7 लाख लोगों ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया. जो कि इस चुनाव में हुए कुल वोटों का 1 प्रतिशत है. वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में कुल वोटों का 1.06 प्रतिशत वोट नोटा को गया था और 2014 में ये प्रतिशत 1.09 फीसदी थी.
19 सीटों पर जीत के मार्जिन से ज्यादा पड़े नोटा वोट
इस लोकसभा चुनाव में 543 निर्वाचन क्षेत्रों में से 19 सीटें ऐसी हैं जहां नोटा वोट का प्रतिशत जीत के मार्जिन से ज्यादा था. इनमें से 14 सीटों पर मार्जिन 5,000 से कम था.
तमिलनाडु राज्य के विरुधुनगर लोकसभा सीट पर कुल 9,408 नोटा वोट पड़े, जहां डीएमडीके उम्मीदवार वी विजया प्रभाकरन कांग्रेस नेता मनिकम टैगोर से लगभग 4,300 वोटों के मामूली अंतर से हार गए.
तमिलनाडु की तरह ही मुंबई नॉर्थ वेस्ट सीट पर भी शिवसेना के रवींद्र वायकर ने शिवसेना यूबीटी के अमोल गजानन कीर्तिकर को 48 सीटों से हराया, लेकिन इस सीट पर 15,161 नोटा वोट पड़े. वहीं चंडीगढ़ में भी 2,912 लोगों ने नोटा का वोट दिया जो कि विनिंग मार्जिन से 2,500 वोट ज्यादा था.
इन राज्यों के अलावा बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, त्रिपुरा और ओडिशा, जो 2024 के चुनावों में एनडीए के गढ़ के रूप में उभरे हैं, ने सबसे ज्यादा नोटा वोट दर्ज किया. बिहार के लगभग 75 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में नोटा में 1.5 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर दर्ज किया गया, वहीं गुजरात के 25 निर्वाचन क्षेत्रों में से 50 प्रतिशत क्षेत्रों में नोटा में वोट शेयर 1.5 प्रतिशत से ज्यादा थे.
गैर-शहरी क्षेत्रों में ज्यादा नोटा का विकल्प चुन रहे हैं मतदाता
चुनाव आयोग के डाटा से यह भी पता चला है कि 2013 में इस विकल्प की शुरुआत के बाद से गैर-शहरी क्षेत्र और एससी और एसटी आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र लगातार हाई नोटा वोट शेयर की रिपोर्ट कर रहे हैं, यानी इन क्षेत्रों के लोग ज्यादातर नोटा का बटन दबा रहे हैं.
2024 चुनाव में नोटा वोटों की संख्या के मामले में सबसे ज्यादा नोटा का उपयोग करने वाले पांच निर्वाचन क्षेत्रों में इंदौर शामिल है. इंदौर में इस बार 2,18,674 लोगों ने नोटा का बटन दबाया, वहीं अराकू में 50,470, नबरंगपुर में 43,268, गोपालगंज में 42,863 और कोडरमा में 42,152 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया है.
चुनावी लड़ाई में कैसे आया नोटा?
नोटा ईवीएम में इस विकल्प का मतलब होता है- इसमें से कोई नहीं. दरअसल, भारत में यह लंबे समय से बहस का विषय रहा है. कई बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियां योग्य उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारती है, जिसके कारण कई लोग वोट नहीं डाल पाते हैं.
इसी समस्या का हल निकालने के लिए चुनाव आयोग ने साल 2009 में नोटा का विकल्प देने की मंशा जाहिर की थी. इसका मतलह है कि उस क्षेत्र में जितने भी उम्मीदवार मैदान में हैं, वो या तो योग्य नहीं है या फिर मतदाता की पसंद के नहीं हैं.
एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने नोटा सिस्टम लागू करने का आदेश चुनाव आयोग को दिया था. इस आदेश में कहा गया था कि चुनाव में ईवीएम के सबसे नीचे नोटा का विकल्प दिया जाए.
नोटा सिस्टम को ईवीएम में जगह मिलने के बाद चुनाव आयोग ने कहा था कि इसके पक्ष में पड़े वोट केवल गिने जाएंगे और इन्हें रद्द वोटों की श्रेणी में रखा जाएगा. इसे आसान भाषा में कहें तो- अगर नोटा को 2 उम्मीदवारों के जीत-हार के अंतर से ज्यादा वोट मिले, तो चुनाव रद्द नहीं होगा.
क्या सियासत में नोटा भी बन सकता है हार की वजह
इस सवाल के जवाब में पटना यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर प्रणव मिश्र कहते हैं कि नोटा भारत के राजनीति में बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने का एक कारगर हथियार है. इसके इस्तेमाल से जनता ये जाहिर कर सकती है कि उन्हें उनका प्रत्याशी पसंद नहीं है. साल दर साल, चुनाव दर चुनाव नोटा का इस्तेमाल बढ़ना भी कहीं न कहीं ये दिखाता है कि आज की जनता जागरूक हैं.
उन्होंने कहा कि पिछले दो चुनावों में नोटा का इस्तेमाल खूब किया गया. अब सियासत नोटा हार की वजह तो नहीं बन सकता, लेकिन निश्चित तौर पर किसी क्षेत्र में नोटा का प्रतिशत बढ़ने का दूरगामी असर होगा और आने वाले समय के हो सकता है कि चुनाव आयोग इसे लेकर कुछ नए संशोधन भी करें.
क्यों नोटा नहीं बन सकता हार की वजह
दरअसल हमारे देश में नोटा को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार नहीं मिला हैं. इसका मतलब है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में नोटा को 99 वोट मिले और किसी प्रत्याशी को केवल 1 वोट ही मिला तो वो 1 वोट वाला प्रत्याशी विजयी माना जायेगा.
साल 2013 में जब नोटा को लागू किया गया था उसी वक्त चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया था कि नोटा के वोट केवल गिने जाएंगे पर उन्हें रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा. इस प्रकार साफ था कि नोटा का चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
भारत के अलावा किन देशों में नोटा का विकल्प है
भारत के अलावा 13 देश ऐसे हैं जहां मनपसंद उम्मीदवार न होने पर वोटर नोटा विकल्प का इस्तेमाल कर सकते है. इन देशों में अमेरिका, कोलंबिया, यूक्रेन, रूस, बांग्लादेश, ब्राजील, फिनलैंड, स्पेन, फ्रांस, चिली, स्वीडन, बेल्जियम, ग्रीस सहित अब इस लिस्ट में 14वें नंबर पर भारत भी शामिल है. इनमें से कुछ देश ऐसे भी हैं जहां नोटा को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार मिला हुआ है. इसका मतलब है कि अगर नोटा को ज्यादा वोट मिलते हैं तो चुनाव रद्द हो जाता है और जो प्रत्याशी नोटा से कम वोट पाता है वह दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकता है.