दिल्ली : बारिश का 70 फीसदी पानी हो जा रहा है बर्बाद !
दिल्ली के कई इलाकों में जलसंकट की स्थिति बनी हुई है। केंद्रीय भूजल आयोग (सीजीडब्ल्यूबी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में उपलब्ध भूगर्भ जल का भी लगभग पूरी तरह से दोहन हो चुका है। 2023 में 0.38 बिलियन क्यूबिक मीटर ग्राउंड वाटर रीचार्ज हुआ। इनमें से 0.34 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी निकाला जा चुका है। ऐसे में स्थितियां और गंभीर हो गई हैं।
दिल्ली, दिल्ली के कई इलाकों में जलसंकट की स्थिति बनी हुई है। केंद्रीय भूजल आयोग (सीजीडब्ल्यूबी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में उपलब्ध भूगर्भ जल का भी लगभग पूरी तरह से दोहन हो चुका है। 2023 में 0.38 बिलियन क्यूबिक मीटर ग्राउंड वाटर रीचार्ज हुआ। इनमें से 0.34 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी निकाला जा चुका है। ऐसे में स्थितियां और गंभीर हो गई हैं। सीजीडब्ल्यूबी के मुताबिक दिल्ली हर साल औसतन लगभग 0.2 मीटर भूजल खो रही है। इस लिहाज से हर दिन दिल्ली की जमीन के नीचे का पानी 0.05 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि यहां के करीब 80 फीसदी स्त्रोत क्रिटिकल या सेमी क्रिटिकल स्थिति में आ चुके हैं। वहीं वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि दिल्ली -एनसीआर में बढ़ती कंकरीट की सतह के चलते ज्यादातर बारिश का पानी बह जाता है जिससे जमीन में पानी रीचार्ज नहीं हो पाता है। TERI की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में बढ़ती कंक्रीट की सतह के चलते ग्राउंड वाटर रीचार्ज तेजी से घटेगा। 2031 तक बारिश का 70 फीसदी से ज्यादा ज्यादा पानी बह कर नालों के जरिए नदियों में चला जाएगा।
ये अध्ययन यमुना रिवर बेसिन के तहत दिल्ली को चार हिस्सों अलीपुर, नजफगढ़, मेहरौली और ट्रांस यमुना में बांटकर किया गया है। अलीपुर के तहत लगभग 519.11 वर्ग किलोमीटर, नजफगढ़ के तहत 482.69 वर्ग किलोमीटर, मेहरौली को 373.12 वर्ग किलोमीटर और ट्रांस यमुना के 127.39 वर्ग किलोमीटर एरिया को शामिल किया गया है। इस अध्ययन के लिए कैलिब्रेटेड मॉडल का इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन में मुख्य रूप से बढ़ती कंकरीट की सतह और ग्राउंड वाटर रीचार्ज को लेकर अध्ययन किया गया है। अध्ययन में शामिल टेरी के वैज्ञानिक चंदर कुमार सिंह कहते हैं कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण और बढ़ती कंक्रीट की सतह का असर सीधे तौर पर ग्राउंड वाटर रीचार्ज पर पड़ा है। अध्ययन में पाया गया कि 2005 से 2016 के बीच सबसे ज्यादा शहरीकरण ट्रांस यमुना वाले इलाके में हुआ है। इसके चलते अब हर साल लगभग 65.69 फीसदी बारिश का पानी जमीन में जाने की बजाय नालों के जरिए नदी में बह जाता है। इसी तरह महरौली इलाके में लगभग 49.39 फीसदी बारिश का पानी नालों में बह जाता है। ग्राउंड वाटर के रीचार्ज न होने से आने वाले समय में दिल्ली को गंभीर पानी के संकट से जूझना पड़ सकता है। अध्ययन के मुताबिक 2016 से 2031 के दौरान के बीच ट्रांस-यमुना इलाके में बढ़ती कंक्रीट की सहत के चलते भूगर्भ जल के स्तर में और गिरावट आएगी। इस इलाके में वर्तमान स्थिति की तुलना में 36.25 फीसदी तक ज्यादा बारिश का पानी नालों में जाने का अनुमान है। इसी तरह अलीपुर इलाके में 19.41 फीसदी और नजफगढ़ इलाके में 7.93 फीसदी तक ज्यादा बारिश का पानी नालों में बह जाएगा।
पर्यावरणविद और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि हमारे शहर रहने लायक तभी बने रहेंगे जब शहर में रहने वाले गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए भी साफ पेय जल की उपलब्धता हो। पानी की बचत के लिए शहरों के सीवर में बह जाने वाले पानी के प्रबंधन पर भी विचार करना होगा। इसके लिए जल इंजीनियरों को जमीन पर उतरना होगा, फिर से काम करना होगा और फिर से सोचना होगा। यह आज जो दिल्ली और बेंगलुरु की कहानी है, ये कल किसी भी शहर की कहानी हो सकती है।
बढ़ रहा है मिट्टी धंसने का खतरा
जिस तरह दिल्ली और आसपास के इलाकों में भूजल निकाला जा रहा है उससे 100 किलोमीटर के दायरे में जमीन धंसने का खतरा बढ़ गया है। अनुसंधानकर्ताओं ने सैटलाइट डेटा के उपयोग से पता किया है कि राष्ट्रीय राजधानी के करीब 100 वर्ग किलोमीटर इलाके में जमीन धंसने का खतरा ज्यादा है। इनमें 12.5 वर्ग किलोमीटर का इलाका कापसहेड़ा में है, जो आईजीआई एयरपोर्ट से महज 800 मीटर के फासले पर है। आईआईटी बॉम्बे, जर्मन रिसर्च सेंटर ऑफ जियोसाइंसेस और अमेरिका की कैंब्रिज और साउदर्न मेथडिस्ट यूनिवर्सिटी के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि एयरपोर्ट के आसपास जिस तेजी से जमीन धंसने का दायरा बढ़ रहा है, उससे लगता है कि जल्द ही एयरपोर्ट भी इसके जद में आ जाएगा। वर्ष 2014-2016 के दौरान, धंसने की दर लगभग 11 सेमी प्रति वर्ष थी जो अगले दो वर्षों में लगभग 50 फीसद बढ़कर लगभग 17 सेमी प्रति वर्ष हो गई। 2018-2019 के दौरान यह दर तकरीबन समान रही। वैज्ञानिकों ने इसके अध्ययन के लिए उपग्रह सेंटिनल- से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली थी। इसमें फेज-1 में 2014 से 2016, फेज-2 में 2016 से 2018 और फेज-3 में 2018 से 2019 के बीच विश्लेषण किया गया था। पता चला है कि 2014 से 2016 के बीच जमीन धंसने की दर 11 सेमी प्रति वर्ष थी जो 2016 से 2018 के बीच 50 फीसदी की वृद्धि के साथ 17 सेमी प्रति वर्ष पर पहुंच गई थी। वहीं 2018 से 2019 के बीच इसकी दर में कोई बदलाव दर्ज नहीं किया गया था।
कंक्रीट की बढ़ती सतह से बढ़ा खतरा
वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट (वीजेटीआई), माटुंगा ने अपने एक अध्ययन में पाया कि कंक्रीट की सतहों में 70% से ज्यादा की बढ़ोतरी के चलते मुंबई में मानसून के दौरान बाढ़ की स्थिति बदतर हो जाती है, इससे बारिश के पानी को अवशोषित करने की मिट्टी की क्षमता कम हो गई है। शोधकर्ताओं ने कहा कि पिछले 45 वर्षों में, कंक्रीटीकरण और बाढ़ अवशोषक के रूप में काम करने वाली वेटलैंड को भरने से नालों में जाने वाले बारिश के पानी में 40% की वृद्धि हुई है। पानी के इस बढ़े हुए प्रवाह की तुलना में नालों को चौड़ा और गहरा नहीं किया गया है। जिससे शहर में बाढ़ का खतरा बढ़ा है।
पेड़ों के लिए घातक साबित हो रहा कंक्रीट
एनजीटी ने 23 अप्रैल 2013 के को दिए गए अपने आदेश में सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों को यह सुनिश्चित करने को कहा कि दिल्ली में किसी भी पेड़ के एक मीटर के भीतर कोई कंकरीट या सख्त सतह नहीं बनाई जानी चाहिए। आदेश में सार्वजनिक निकायों को सभी पेड़ों की देखभाल करने और भविष्य में उचित सावधानी बरतने का आदेश दिया गया है। ताकि पेड़ों के तने के कम से कम एक मीटर के दायरे में कोई कंक्रीट या निर्माण या मरम्मत कार्य न किया जाए। दिल्ली यमुना बायोडाइवर्सिटी पार्क के प्रभारी और पर्यावरणविद फैयाज खुदसर कहते हैं कि पेड़ों के आपसास कंकरीट की सतह बनाया जाना पेड़ों के लिए बेहद घातक है। बारिश के मौसम में जमीन के अंदर मौजूद पेड़ों की जड़ें पानी में भीगी रहती हैं। ऐसे में पेड़ों को पोषण ऊपरी जड़ों से मिलता है। लेकिन कंक्रीट की सतह से ढ़क जाने पर पेड़ों की जड़ें धीरे धीरे सूख जाती हैं और पेड़ कमजोर हो जाता है। ऐसे में तेज हवा या ज्यादा बारिश में पेड़ उखड़ जाता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि विकास कितना और किस कीमत पर करना है। ये पेड़ पौधे हमें सिर्फ साफ हवा ही नहीं देते बल्कि जमीन को बांध के रखने और पानी के स्तर को बनाए रखने में भी मदद करते हैं।
करने होंगे ये प्रयास
टेरी की ओर से किए गए अध्ययन में साफ तौर पर कहा गया है कि दिल्ली में बढ़ती शहरी आबादी के चलते हरित क्षेत्र में कमी आई है। शहरों में हो रहे तेज विकास के चलते जमीन की कंकरीट सतह में बढ़ोतरी हुई है। इसमें कमी किए जाने की आवश्यकता है। शहर में ज्यादा पेड़ पौधे लगाए जाने और कंक्रीट की सतह कम किए जाने से भूजल स्तर में बढ़ोतरी होगी। रिपोर्ट में गंगा बेसिन के लिए भी ये ही सुझाव दिए गए हैं। जहां जमीन खाली पड़ी है वहां घास या छोटे पौधे लगाए जा सकते हैं।
………………..
दिल्ली में बीस से तीस फीसद तक पानी हो जाता है बर्बाद, पाइप लाइन से आपूर्ति, रेन वाटर हार्वेस्टिंग को सुधारने के लिए करना होगा काम
कच्चे पानी की अपर्याप्त उपलब्धता पर चिंताओं के बावजूद विभिन्न तरीकों से बर्बादी जारी है। डीजेबी ने कुल आपूर्ति किए गए पानी के 40 प्रतिशत तक जल वितरण के नुकसान का अनुमान लगाया है। उपचारित पानी का एक हिस्सा पाइपलाइनों में रिसाव के कारण नष्ट हो जाता है। कुछ स्थानों पर पाइपलाइनों से अवैध दोहन एक मुद्दा है। टैंकर माफिया द्वारा पानी का दुरुपयोग एक और समस्या है।
नई दिल्ली,
दिल्ली जल संकट की विभीषिका का सामना कर रही है। हर साल गर्मियों में दिल्ली पानी की कमी से जूझती है लेकिन इस बार यह परेशानी ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच गई है। पानी का कुप्रबंधन, बेहतर तरीके से संचयन न करना, लीकेज, पानी की बेजा बर्बादी जैसे तमाम कारण है जिसकी वजह से दिल्लीवासी हर गर्मी में पानी की दिक्कत से रूबरू हो जाते हैं। दिल्ली के कई इलाकों में पूरी गर्मी बदस्तूर यही हाल रहता है। रिपोर्ट बताती है कि औसत भारतीय अपनी दैनिक जल आवश्यकता का 30 प्रतिशत बर्बाद कर देता है।
संयुक्त राज्य भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार , प्रति मिनट 10 बूंदें टपकने वाला नल प्रतिदिन 3.6 लीटर पानी बर्बाद करता है। साथ ही, शौचालय के हर फ्लश में लगभग छह लीटर पानी खर्च होता है। सीएसई के आंकडे के अनुसार पानी की बर्बादी का एक और अनुमान बताता है कि हर दिन 4,84,20,000 करोड़ क्यूबिक मीटर यानी 48.42 अरब एक लीटर बोतल पानी बर्बाद होता है, जबकि इस देश में करीब 16 करोड़ लोगों को साफ और ताजा पानी नहीं मिल पाता है।
पूर्व आईएएस केबीएस सिद्धू अपने लेख में लिखते हैं कि मानसून के मौसम में लगातार बारिश और उफनती यमुना नदी से शहर के बड़े हिस्से जलमग्न हो जाते हैं, जिससे हज़ारों निवासियों को अपने घरों से भागने और ऊंची जगहों पर शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बाढ़ के बीच,उस दौरान भी शहर को पीने योग्य पानी की भयंकर कमी का सामना करना पड़ जाता है। यह एक विडंबना ही है कि लोग कमर तक पानी में चल रहे हैं पर प्यासे हैं।
वह बताते हैं कि 1984 बैच के सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और हमारे बैचमेट रमेश नेगी ने दिल्ली के जल संसाधनों के प्रबंधन के बारे में बताया कि सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक समाज के सभी वर्गों में इस बात की कमी है कि पानी का सही तरीके से इस्तेमाल कैसे किया जाए। अभिजात्य वर्ग, जो अक्सर सबसे बड़ा अपराधी होता है, हर महीने दिए जाने वाले 20,000 लीटर मुफ्त पानी का दुरुपयोग करता है, खासकर मल्टीफ्लोर कोठियों में, जबकि अमीर और गरीब दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ता है। जल वितरण में असमानता बहुत अधिक थी, नियोजित क्षेत्रों को प्रति व्यक्ति प्रति दिन 70 से 100 लीटर (एलपीसीडी) मिलता था, जबकि अनियोजित क्षेत्रों को केवल 20 से 40 लीटर पानी मिलता था। चरम गर्मियों में, जलवायु परिवर्तन के कारण स्थिति और भी गंभीर हो जाती थी।
रूमी एजाज अपने शोध पत्र वाटर सप्लाई इन दिल्ली-फाइव की इश्यू के मार्फत बताते हैं कि कच्चे पानी की अपर्याप्त उपलब्धता पर चिंताओं के बावजूद, विभिन्न तरीकों से बर्बादी जारी है। डीजेबी ने कुल आपूर्ति किए गए पानी के 40 प्रतिशत तक जल वितरण के नुकसान का अनुमान लगाया है। उपचारित पानी का एक हिस्सा पाइपलाइनों में रिसाव के कारण नष्ट हो जाता है। कुछ स्थानों पर, पाइपलाइनों से अवैध दोहन एक मुद्दा है। टैंकर माफिया द्वारा पानी का दुरुपयोग एक और समस्या है। गर्मियों के मौसम में, पाइपलाइनों से पर्याप्त पानी नहीं मिलता है। इसके अलावा, अनधिकृत कॉलोनियों में कई घरों में अभी तक डीजेबी द्वारा पानी की पाइप आपूर्ति नहीं की गई है। ऐसी स्थितियों में, लोगों के पास पानी प्राप्त करने के लिए वैकल्पिक उपायों का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है, जैसे कि सरकारी और निजी पानी के टैंकरों से।
इंवायरनमेंटल साइंस डिपॉर्टमेंट के असिस्टेंट प्रोफेसर ऋतु सिंह कहती है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली इन दिनों जल संकट से जूझ रही है। कई इलाकों को ड्राई जोन घोषित किया जा चुका है। दिल्ली में रोजाना 50 मिलियन गैलन पानी की शॉर्टेज बताई जा रही है। जलवायु परिवर्तन पानी की कमी के पीछे का एक प्रमुख कारण है तो वहीं अत्यधिक उपयोग और बर्बादी ने भी जल संकट के खतरे को और बढ़ा दिया है। वह कहती है कि इस देश में करीब 16 करोड़ लोगों को साफ और ताजा पानी नहीं मिल पाता है। दिल्ली के लोग अगर आज पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं तो इसके पीछे दो कारण हैं- पहला भीषण गर्मी और दूसरा पानी के लिए पड़ोसी राज्यों पर निर्भरता।
जल संकट का सामना कर रहा भारत
भारत में वैश्विक आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन वैश्विक जल संसाधनों का केवल चार प्रतिशत ही भारत में है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगभग 1,100 क्यूबिक मीटर है, जो “प्रति व्यक्ति 1,700 m3 की जल संकट की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सीमा से काफी नीचे है, और प्रति व्यक्ति 1,000 m3 की जल कमी की सीमा के ख़तरनाक रूप से करीब है।” इसकी तुलना में, वैश्विक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 5,500 क्यूबिक मीटर है।
जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास ने मिलकर जल संसाधनों पर दबाव डाला है। आधी सदी पहले, 1970 में, भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्तमान स्तर से 2.5 गुना अधिक थी। 1970 में प्रति व्यक्ति मीठे पानी की उपलब्धता 2,594 m3 थी। विश्व बैंक के अनुसार, यह लगातार कम होकर 1990 में 1,661 m3 और 2020 में 1,036 m3 रह गई।
उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक तनावग्रस्त है। 2020 में, पंजाब ने सीमा से कहीं ज़्यादा 164.4 प्रतिशत पानी निकाला। जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार, राजस्थान ने 2020 में अपने वार्षिक भूजल का 150.2 प्रतिशत, हरियाणा ने 134.6 प्रतिशत और दिल्ली ने 101.4 प्रतिशत निकाला ।
कई स्थानों पर जमीन के अंदर रिसाव होता रहता है जिससे होने वाले नुकसान का पता नहीं चलता है। यूरोप, अमेरिका, सिंगापुर, जापान में बर्बादी रोकने के लिए प्रत्येक स्तर पर पानी का आडिट होता है। उपभोक्ताओं द्वारा पानी की खपत का भी आडिट किया जाता है जिससे घरों में होने वाली बर्बादी का पता लगाकर उसे रोकने के कदम उठाए जाते हैं।
अपशिष्ट जल प्रबंधन अनियमितताएं
रूमी एजाज बताते हैं कि उपभोक्ताओं को आपूर्ति किए जाने वाले पानी का लगभग 80 प्रतिशत (720 एमजीडी) उपयोग के बाद अपशिष्ट जल के रूप में नाली में चला जाता है। ताकि यह जीवित प्राणियों और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए, विभिन्न परिसरों में उत्पन्न अपशिष्ट जल को भूमिगत सीवरों के माध्यम से सुरक्षित रूप से स्थानांतरित करने की आवश्यकता है, और फिर इसे पीने योग्य/गैर-पीने योग्य उद्देश्यों के लिए पुन: उपयोग करने, सतही जल निकायों में निपटाने या भूजल को रिचार्ज करने के लिए उपयोग करने से पहले उपचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में, अपशिष्ट जल के प्रबंधन में कई कमियां हैं। वह कहते हैं कि दिल्ली में पानी के मौजूदा और संभावित स्रोतों की क्षमताओं को बचाने और सुधारने के लिए और अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
वॉटर बॉडी पर अतिक्रमण
जल शक्ति मंत्रालय द्वारा 2023 में जारी जल निकाय जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में 893 जल निकायों में से 216 या 24.19% पर अतिक्रमण है। रिपोर्ट के अनुसार, जिन जल निकायों पर अतिक्रमण पाया गया, उनमें से 132 पर 75% से अधिक अतिक्रमण था। एक्सपर्ट कहते हैं कि इन जल निकायों को संरक्षित और बनाए रखने में स्थानीय समुदायों की भागीदारी महत्वपूर्ण है, लेकिन इन जल निकायों के मालिक एजेंसियां सामुदायिक कार्य या भागीदारी की अनुमति नहीं देती हैं।
असमान वितरण
इसके अलावा, दिल्ली में जल आपूर्ति का अत्यधिक असमान वितरण है और गर्मियों के मौसम में हमारी अनियोजित और अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले वंचित शहरी निवासियों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सीएसई की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण दिल्ली के संगम विहार की घनी, अनियोजित बस्ती में जलापूर्ति, स्वच्छता और जल प्रबंधन की चुनौतियों पर विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि दस लाख से अधिक की आबादी वाली इस बस्ती में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 45 लीटर जलापूर्ति की अत्यंत कम मात्रा है।
बर्बादी रोकने के लिए सिंगापुर व इजरायल से सीखने की जरूरत
दिल्ली को जल संकट से निपटने के लिए विश्व के अन्य देशों से सीखने की जरूरत है। सिंगापुर, इजरायल जैसे देश व विश्व के कई बड़े शहर पानी की बर्बादी रोककर और अपशिष्ट जल को शोधित कर पेयजल संकट को दूर कर रहे हैं। दिल्ली में आधा से अधिक पेयजल चोरी व रिसाव में बर्बाद हो जाता है।
सिंगापुर, टोक्यो सहित अन्य स्थानों पर यह पांच प्रतिशत के आसपास है। दिल्ली जल बोर्ड के पूर्व सदस्य आरएस त्यागी का कहना है कि तकनीक के सहयोग से सिंगापुर की तरह दिल्ली में भी पानी वितरण के दौरान व घर में जल की बर्बादी रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। शोधित अपशिष्ट जल का उपयोग कर जल संकट को दूर किया जा सकता है।
दिल्ली में लगभग 550 एमजीडी शोधित अपशिष्ट जल मिलता है, जिसमें से 89 एमजीडी का उपयोग होता है। शेष पानी बेकार बह जाता है। सिंगापुर ने 2030 तक 70 प्रतिशत अपशिष्ट जल को शोधित कर पेयजल के रूप में उपयोग का लक्ष्य रखकर काम कर रहा है। अन्य देश भी इस दिशा में काम कर पेयजल की आवश्यकता पूरी कर रहे हैं।
पानी का संचय
रूमी एजाज बताते हैं कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग (आरडब्ल्यूएच) भविष्य में उपयोग के लिए वर्षा जल को इकट्ठा करने और संग्रहीत करने के लिए एक प्रभावी तरीका होने के अलावा, भूजल को रिचार्ज करने में भी मदद कर सकता है। हालांकि दिल्ली में एक वर्ष में औसतन 600 मिमी से अधिक वर्षा होती है, लेकिन बहुत कम उपयोग और संचयन होता है। रेन वाटर हार्वेस्टिंग में सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि उपभोक्ताओं को इस तरह के उपायों में रुचि कम होती है। इसके अलावा, कुछ इमारतों में संरचनात्मक कमियां, जैसे कि वर्षा जल टैंक या गड्ढे बनाने के लिए खाली जगह की कमी होती है। ऐसी स्थिति में बेहतर यह है कि निजी सोसायटियों में स्थापित आरडब्ल्यूएच इस बारे में अधिक प्रयास कर सकता है। दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) शहर में संभावित क्षेत्रों की पहचान कर सकता है जहां सड़कों, फ्लाईओवर, जल-जमाव वाले क्षेत्रों और खुले स्थानों पर गिरने वाले वर्षा जल को इकट्ठा करने के लिए आरडब्ल्यूएच संरचनाएं स्थापित की जा सकती हैं।
लीकेज रोकना अहम
दिल्ली में लीकेज रोक पानी का सही तरीके से प्रबंधन करने से बर्बादी रोकी जा सकती है। एजाज बताते हैं कि डीजेबी द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले कुल उपचारित जल का 40 प्रतिशत पाइपलाइन लीकेज, उपचारित जल के दुरुपयोग और बिना मीटर वाले कनेक्शन के कारण बर्बाद हो जाता है। इस प्रकार, पीने योग्य पानी की हानि को रोकने के लिए उचित उपाय किए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहले, रिसाव का पता लगाने के लिए बेहतर तकनीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए ताकि पाइपों में दोषों की पहचान की जा सके और रिसाव शुरू होने से पहले उन्हें ठीक किया जा सके।
दिल्ली में इतने संयत्र
दिल्ली आर्थिक सर्वेक्षण (वित्त वर्ष 2023-24 ) के अनुसार दिल्ली में कुल 20 अपशिष्ट जल उपचार संयंत्र (एसटीपी) हैं। इनकी कुल क्षमता 632 एमजीडी है, परंतु 550.07 एमजीडी का उपयोग हो रहा है। इस तरह से 87 प्रतिशत क्षमता का उपयोग हो रहा है। वर्तमान में लगभग 792 एमजीडी अपशिष्ट जल का उत्सर्जन होता है इसमें से सिर्फ 550 एमजीडी का उपचार होता है। ओखला में एशिया का सबसे बड़ा एसटीपी का काम अंतिम चरण में है।
………………………
दिल्ली के ट्रांस यमुना इलाके में सबसे ज्यादा हुआ शहरीकरण, बारिश का ज्यादातर पानी हो रहा बर्बाद
तेजी से बढ़ते शहरीकरण और कंक्रीट की बढ़ती सतह का असर सीधे तौर पर ग्राउंड वाटर रिचार्ज पर पड़ा है। 2005 से 2016 के बीच सबसे ज्यादा शहरीकरण दिल्ली के ट्रांस यमुना इलाके में हुआ है। इसके चलते हर साल 65.69 फीसदी बारिश का पानी नालों में चला जाता है। ट्रांस यमुना के बाद सबसे ज्यादा शहरीकरण महरौली इलाके में हुआ है।
नई दिल्ली, विवेक तिवारी। केंद्रीय भूजल आयोग (सीजीडब्ल्यूबी) की हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली हर साल औसतन 0.2 मीटर भूजल खो रही है। इस लिहाज से हर दिन दिल्ली की जमीन के नीचे का पानी 0.05 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि यहां के करीब 80 फीसदी स्रोत क्रिटिकल या सेमी क्रिटिकल स्थिति में आ चुके हैं। वहीं वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि दिल्ली-एनसीआर में बढ़ती कंक्रीट की सतह के चलते बारिश का ज्यादातर पानी बह जाता है, जिससे जमीन में पानी रिचार्ज नहीं हो पाता है। TERI (The Energy and Resources Institute) के एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में 2031 तक बारिश का 70 फीसदी से ज्यादा ज्यादा पानी बह कर नालों के जरिए नदियों में चला जाएगा।
ये अध्ययन यमुना रिवर बेसिन के तहत दिल्ली को चार हिस्सों अलीपुर, नजफगढ़, मेहरौली और ट्रांस यमुना में बांटकर किया गया है। अलीपुर के तहत 519.11 वर्ग किलोमीटर, नजफगढ़ के तहत 482.69 वर्ग किलोमीटर, मेहरौली के 373.12 वर्ग किलोमीटर और ट्रांस यमुना के 127.39 वर्ग किलोमीटर एरिया को शामिल किया गया है। इस अध्ययन के लिए कैलिब्रेटेड मॉडल का इस्तेमाल किया गया है। यह अध्ययन मुख्य रूप से बढ़ती कंक्रीट की सतह और ग्राउंड वाटर रिचार्ज पर है।
अध्ययन में शामिल टेरी के वैज्ञानिक चंदर कुमार सिंह कहते हैं कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण और कंक्रीट की बढ़ती सतह का असर सीधे तौर पर ग्राउंड वाटर रिचार्ज पर पड़ा है। अध्ययन में पाया गया कि 2005 से 2016 के बीच सबसे ज्यादा शहरीकरण ट्रांस यमुना में हुआ है। इसके चलते हर साल 65.69 फीसदी बारिश का पानी जमीन में जाने की बजाय नालों के जरिए नदी में बह जाता है। इसी तरह महरौली इलाके में लगभग 49.39 फीसदी बारिश का पानी नालों में बह जाता है।
ग्राउंड वाटर रिचार्ज न होने से आने वाले समय में दिल्ली को पानी के गंभीर संकट से जूझना पड़ सकता है। अध्ययन के मुताबिक 2016 से 2031 के दौरान ट्रांस-यमुना इलाके में कंक्रीट की बढ़ती सतह के चलते भूगर्भ जल के स्तर में और गिरावट आएगी। इस इलाके में वर्तमान स्थिति की तुलना में 36.25 फीसदी ज्यादा बारिश का पानी नालों में जाने का अनुमान है। इसी तरह अलीपुर इलाके में 19.41 फीसदी और नजफगढ़ इलाके में 7.93 फीसदी तक ज्यादा बारिश का पानी नालों में बह जाएगा।
भूजल घटने से जमीन धंसने का खतरा
जिस तरह दिल्ली और आसपास के इलाकों में भूजल निकाला जा रहा है उससे 100 किलोमीटर के दायरे में जमीन धंसने का खतरा बढ़ गया है। अनुसंधानकर्ताओं ने सैटेलाइट डेटा से पता लगाया कि राष्ट्रीय राजधानी के करीब 100 वर्ग किलोमीटर इलाके में जमीन धंसने का खतरा ज्यादा है। इनमें 12.5 वर्ग किलोमीटर का इलाका कापसहेड़ा में है, जो आईजीआई एयरपोर्ट से महज 800 मीटर के फासले पर है।
आईआईटी बॉम्बे, जर्मन रिसर्च सेंटर ऑफ जियोसाइंसेस और अमेरिका की कैंब्रिज और साउदर्न मेथडिस्ट यूनिवर्सिटी के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि एयरपोर्ट के आसपास जिस तेजी से जमीन धंसने का दायरा बढ़ रहा है, उससे लगता है कि जल्द ही एयरपोर्ट भी इसकी जद में आ जाएगा। वर्ष 2014-2016 के दौरान धंसने की दर लगभग 11 सेमी प्रति वर्ष थी जो अगले दो वर्षों में लगभग 50 फीसद बढ़कर लगभग 17 सेमी प्रति वर्ष हो गई। 2018-2019 के दौरान यह दर तकरीबन समान रही। वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन के लिए उपग्रह सेंटिनल से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली थी। इसमें फेज-1 में 2014 से 2016, फेज-2 में 2016 से 2018 और फेज-3 में 2018 से 2019 के बीच का विश्लेषण किया गया था।
बढ़ती कंक्रीट की सतह से बाढ़ का खतरा बढ़ा
वीरमाता जीजाबाई टेक्नोलॉजिकल इंस्टीट्यूट (वीजेटीआई), माटुंगा ने अपने एक अध्ययन में पाया कि कंक्रीट की सतह में 70% से ज्यादा की बढ़ोतरी के चलते मुंबई में मानसून के दौरान बाढ़ की स्थिति बदतर हो जाती है, इससे बारिश के पानी को अवशोषित करने की मिट्टी की क्षमता कम हो गई है। शोधकर्ताओं ने कहा कि पिछले 45 वर्षों में, कंक्रीटीकरण और बाढ़ अवशोषक के रूप में काम करने वाली वेटलैंड को भरने से नालों में जाने वाले बारिश के पानी में 40% की वृद्धि हुई है। पानी के इस बढ़े हुए प्रवाह की तुलना में नालों को चौड़ा और गहरा नहीं किया गया है। जिससे शहर में बाढ़ का खतरा बढ़ा है।
पेड़ों के किनारे बढ़ता कंक्रीट खतरा
एनजीटी ने 23 अप्रैल 2013 को अपने आदेश में सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों को यह सुनिश्चित करने को कहा कि दिल्ली में किसी भी पेड़ के एक मीटर के दायरे में कोई कंक्रीट या सख्त सतह नहीं बनाई जानी चाहिए। आदेश में सार्वजनिक निकायों को सभी पेड़ों की देखभाल करने और भविष्य में उचित सावधानी बरतने का आदेश दिया गया है। दिल्ली यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के प्रभारी और पर्यावरणविद फैयाज खुदसर कहते हैं कि पेड़ों के आसपास कंक्रीट की सतह बनाना पेड़ों के लिए बेहद घातक है। बारिश के मौसम में जमीन के अंदर मौजूद पेड़ों की जड़ें पानी में भीगी रहती हैं। ऐसे में पेड़ों को पोषण ऊपरी जड़ों से मिलता है। लेकिन कंक्रीट की सतह से ढंक जाने पर पेड़ों की जड़ें धीरे धीरे सूख जाती हैं और पेड़ कमजोर हो जाते हैं। ऐसे में तेज हवा या ज्यादा बारिश में पेड़ उखड़ जाता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि विकास कितना और किस कीमत पर करना है। ये पेड़ पौधे हमें सिर्फ साफ हवा ही नहीं देते बल्कि जमीन को बांध कर रखने और पानी के स्तर को बनाए रखने में भी मदद करते हैं।
क्या है समाधान
टेरी के अध्ययन में साफ कहा गया है कि दिल्ली में बढ़ती शहरी आबादी के चलते हरित क्षेत्र में कमी आई है। शहरों में हो रहे तेज विकास के चलते कंक्रीट सतह में बढ़ोतरी हुई है। इसमें कमी किए जाने की आवश्यकता है। शहर में ज्यादा पेड़ पौधे लगाए जाने और कंक्रीट की सतह कम किए जाने से भूजल स्तर में बढ़ोतरी होगी। रिपोर्ट में गंगा बेसिन के लिए भी यही सुझाव दिए गए हैं। जहां जमीन खाली पड़ी है वहां घास या छोटे पौधे लगाए जा सकते हैं।
………………………
देश में कुल सीवेज का केवल 28 फीसदी ही शोधित हो रहा है, भारत में शोधित पानी की मात्रा 3,517 करोड़ क्यूबिक मीटर से ज्यादा रहने का अनुमान
भारत के बड़े शहरों जैसे दिल्ली मुंबई में नगर निगम द्वारा निर्धारण 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा पानी दिया जाता है। दिल्ली प्रति व्यक्ति पानी के खपत के लिहाज से दुनिया में पहले स्थान पर है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के घरेलू दूषित पानी से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि जो पानी साफ किया जाता है उसमें से सिर्फ 5 प्रतिशत पानी का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है
नई दिल्ली, पानी के मामले में भारत, दुनिया में सबसे अधिक दबाव झेल रहे देशों में एक है। देश के 40% से अधिक क्षेत्रों में सूखे का संकट है। 2030 तक बढ़ती आबादी के कारण देश में पानी की मांग अभी हो रही आपूर्ति के मुकाबले दोगुनी हो जाएगी। अपशिष्ट जल के शोधन और पुन: उपयोग की प्रभावी रणनीति नहीं होने की वजह से एक अरब से अधिक की आबादी, अपनी घरेलू, कृषि और औद्योगिक जरूरतों के लिए भूजल आपूर्ति पर निर्भर होती जा रही है। भारत में जितना सीवेज या अपशिष्ट जल निकलता है उसमें से सिर्फ 16.8 प्रतिशत की सफाई करके उसका दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, भूजल तेजी से घटता जा रहा है।
विश्व स्वाथ्य संगठन के मुताबिक़ एक व्यक्ति को अपने ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हर दिन करीब 25 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। भारत के बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई में नगर निगम द्वारा निर्धारण 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से भी ज्यादा पानी दिया जाता है। दिल्ली प्रति व्यक्ति पानी के खपत के लिहाज से दुनिया में पहले स्थान पर है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के घरेलू दूषित पानी से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि जो पानी साफ किया जाता है उसमें से सिर्फ 5 प्रतिशत पानी का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है। जल संरक्षण के लिए कदम उठाए जाने के साथ ही ग्रे वाटर या घर में इस्तेमाल हो चुके पानी को साफ कर उसके फिर से इस्तेमाल किए जाने से जल संकट की स्थिति से निपटने में राहत मिल सकती है। रिसर्च गेट में छपे एक रिसर्च जर्नल के मुताबिक आवासीय भवनों में हल्के भूरे जल गैर-पेय घरेलू रंग के इस्तेमाल हो चुके पानी को फिर से साफ कर शौचालय में फ्लशिंग, घर की सफाई और बगीचे की सिंचाई को कुल घरेलू मांग की 35% जरूरत को पूरा किया जा सकता है।
दिल्ली में हालात नहीं सुधर रहे, बीमारियों का जोखिम भी
आंकड़ों के अनुसार 2014 और 2020 के बीच चालू सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की संख्या दोगुनी हो गई, लेकिन जल उपचार की क्षमता अभी भी गंभीर रूप से कम है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार , भारत में सभी प्रांतों में प्रतिदिन 72.4 बिलियन लीटर अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, जिसमें महाराष्ट्र (9.1 बिलियन), उत्तर प्रदेश (8.3 बिलियन), तमिलनाडु (6.4 बिलियन) और गुजरात (5.0 बिलियन) लगभग 40 प्रतिशत अपशिष्ट जल के लिए जिम्मेदार हैं। 1,093 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता प्रतिदिन केवल 26.9 बिलियन लीटर अपशिष्ट जल की थी, जबकि 2020/2021 के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लगभग 400 प्लांट या तो चालू नहीं हैं या निर्माणाधीन हैं। इसका मतलब है कि केवल 37 प्रतिशत सीवेज का ही उपचार किया जा रहा है, जिससे संक्रामक बीमारियों और दूषित भोजन और पीने के पानी का जोखिम बढ़ रहा है।
ग्रे वाटर या वेस्ट वाटर
घरों में नहाने, सिंक में बर्तन धोने, रसोई, वाशिंग मशीन में या कपड़े धोने से उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट जल को ग्रे वाटर कहा जाता है। इस ग्रे वॉटर को भौतिक, रासायनिक, जैविक और प्राकृतिक तरीकों से साफ कर फिर से इस्तेमाल में लाया जा सकता है। ग्रे वाटर को उपयुक्त उपचार के बाद शौचालय फ्लशिंग, बगीचे और पौधों की सिंचाई, कृषि सिंचाई, फर्श धोने, कार धोने, जमीन को रिचार्ज करने आदि के लिए फिर से उयोग किया जा सकता है। रिसर्च गेट में छपे एक रिसर्च जर्नल के मुताबिक आवासीय भवनों में हल्के भूरे जल गैर-पेय घरेलू रंग के इस्तेमाल हो चुके पानी को फिर से साफ कर शौचालय में फ्लशिंग, घर की सफाई और बगीचे की सिंचाई को कुल घरेलू मांग की 35% जरूरत को पूरा किया जा सकता है। मिश्रित ग्रे वाटर के मामले में, उपचारित पानी का 20-25% अतिरिक्त हिस्सा ग्राउंड वाटर रीचार्ज, सिंचाई या कुछ अन्य गैर-पेय प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। अध्ययन से पता चलता है कि उपचारित ग्रे वाटर को पुनर्चक्रित करके और उसका पुनः उपयोग करके हर दिन बहुत सारा ताजा पानी बचाना संभव है।
दुनिया भर में वेस्ट वाटर के 56% का ही ट्रीटमेंट किया जा सका
विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार , 2020 में दुनिया के घरेलू अपशिष्ट जल प्रवाह का केवल 56 प्रतिशत ही सुरक्षित रूप से उपचारित किया गया था। इसका मतलब है कि दुनिया 2030 तक सभी के लिए पानी और स्वच्छता सुनिश्चित करने के संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य को पूरा करने के लिए काफी हद तक पटरी से उतर गई है। अपशिष्ट जल उपचार अपशिष्ट जल (सीवेज) से प्रदूषकों को हटाने की प्रक्रिया है, ताकि इसे पर्यावरणीय क्षति के बिना प्रकृति में वापस लौटाया जा सके।
उत्तरी अमेरिका और यूरोप में 80 प्रतिशत घरेलू अपशिष्ट जल प्रवाह को सुरक्षित रूप से उपचारित किया गया है और उप-सहारा अफ्रीका और मध्य और दक्षिणी एशिया में 30 प्रतिशत से भी कम सुरक्षित रूप से उपचारित किया गया है। यह प्रवृत्ति उन क्षेत्रों के बीच असमानताओं को दर्शाती है, जहां साइट पर सेप्टिक टैंक की तुलना में सीवर कनेक्शन की अधिक पहुंच है।
राजधानी में नाले
राजधानी में कुल 22 ऐसे नाले हैं, जिनका गंदा पानी सीधे यमुना नदी में गिरता है। इनमें कुछ ऐसे भी नाले हैं, जिनसे सबसे ज्यादा गंदा पानी यमुना में पहुंचता है। इनमें आईएसबीटी नाले से 35 एमएलडी, दिल्ली गेट नाले से 90 एमएलडी, सेन नर्सिंग होम नाले से 66 एमएलडी, बारापुला नाले से 140 एमएलडी और शाहदरा नाले से करीब 500 एमएलडी सीवेज वॉटर यमुना में जा रहा है जिससे यमुना काफी प्रदूषित हो रही है।
भारत में शोधित पानी की मात्रा 3,517 करोड़ क्यूबिक मीटर से ज्यादा रहने का अनुमान
भारत में पैदा हो रहे सीवेज और उसकी शोधन क्षमता के आधार पर देखें तो 2050 तक देश में शोधित पानी की कुल मात्रा 3,517 करोड़ क्यूबिक मीटर से ज्यादा रहने का अनुमान है। काउंसिल आन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा जारी नई रिपोर्ट ‘रियूज आफ ट्रीटेड वेस्टवाटर इन इंडिया’ में सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक इस सीवेज के उपचार से जितना पानी मिलेगा, उससे दिल्ली से भी 26 गुना बड़े क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है। यह न केवल सिंचाई के लिए भूजल पर बढ़ते दबाव को कम करेगी साथ ही इससे कृषि पैदावार में भी वृद्धि होगी।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रल बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा 2021 में जारी आंकड़ों को देखें तो देश में शहरी क्षेत्रों से हर दिन करीब 7,236.8 करोड़ लीटर सीवेज पैदा हो रहा है। उसमें से केवल 2,023.6 करोड़ लीटर को ही ट्रीट किया जा रहा है।
देश में सीवेज ट्रीटमेंट की कुल क्षमता 44 फीसदी है, लेकिन विडंबना देखिए की देश में कुल सीवेज का केवल 28 फीसदी ही ट्रीट हो रहा है, जबकि बाकी गंदे पानी को ऐसे ही नदियों, झीलों और जल स्रोतों में डाला जा रहा है, जो उनके भी प्रदूषण का कारण बन रहा है। यदि देश के अधिकांश राज्यों को देखें तो उनकी सीवेज उपचार क्षमता, पैदा हो रहे सीवेज के 50 फीसदी से भी कम है।
गंभीर समस्या बन चुका है बढ़ता जलसंकट
रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक देश में 15 प्रमुख नदी घाटियों में से 11 को जल संकट का सामना करना होगा। ऐसे में पानी की मांग और पूर्ति में मौजूद अंतर को भरने के लिए वैकल्पिक जल स्रोतों को खोजना जरूरी है। आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में सीवेज की बड़ी मात्रा को ऐसे ही जल स्रोतों में डाला जा रहा है जो गंभीर समस्याएं पैदा कर रहा है। ऐसे में सीईईडब्ल्यू द्वारा जारी इस रिपोर्ट का सुझाव है कि अपशिष्ट जल को भारत के जल संसाधनों का अभिन्न हिस्सा बनाना चाहिए। साथ ही रिपोर्ट में इस उपचारित अपशिष्ट जल को जल प्रबंधन से जुड़ी सभी नीतियों, योजनाओं और नियमों में शामिल करने की सिफारिश की गई है। इतना ही नहीं दूषित जल के सुरक्षित निर्वहन और पुनः उपयोग दोनों के लिए जल गुणवत्ता मानकों को बेहतर तरीके से परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा शोधित दूषित जल के पुनः उपयोग के लिए शहरी स्थानीय निकायों की भूमिका और जिम्मेदारी भी तय करने की जरूरत है।
अब तक, चेन्नई, एकमात्र प्रमुख भारतीय शहर है, जहां इस दिशा में कदम आगे बढ़े हैं। चेन्नई ने 2019 की गर्मियों में बड़े जल संकट का सामना किया था। इसके बाद, इस तरह के संकट से निपटने के लिए, चेन्नई के शहरी जल प्राधिकरण ने पानी के ट्रीटमेंट यानी शोधन और पुन: उपयोग के लिए एक प्रभावी बिजनेस मॉडल विकसित किया है। बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत के हर दूसरे बड़े शहर को इस बहुमूल्य संसाधन के पुन: उपयोग को सीखने से पहले चेन्नई की तरह के संकट को झेलना होगा?
………………………
60 करोड़ भारतीय कर रहे जल संकट का सामना, आगे और बढ़ सकती है मुसीबत
आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्ष 2031 में और घटकर 1367 क्यूबिक मीटर हो जाएगी। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार पानी की बर्बादी का एक अन्य अनुमान बताता है कि हर दिन 48420000 करोड़ क्यूबिक मीटर यानी 48.42 अरब एक लीटर पानी की बोतलें बर्बाद हो जाती हैं।
नई दिल्ली …
दिल्ली जल संकट से बदहाल है। नौबत यहां तक आ पहुंची कि दिल्ली के कई इलाकों कुसुमपुर पहाड़ी, ओखला, संगम विहार, विवेकानंद कैंप आदि में टैंकर के लिए लंबी-लंबी कतारें लग रही है तो वहीं एनडीएमसी ने वीआईपी इलाकों में पानी की आपूर्ति एक बार कर दी है। भारत का आईटी हब कहा जाना वाला बेंगलुरू शहर इन दिनों हर रोज बीस करोड़ लीटर पानी की कमी झेल रहा है। मुंबई और चेन्नई जैसे शहर भी पानी के संकट से जूझ रहे हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त करीब 60 करोड़ भारतीय जल संकट का सामना कर रहे हैं। हर साल करीब 2 लाख लोगों की मौत पानी की कमी की वजह से हो रही है। अभी हालात और बिगड़ने की आशंका है क्योंकि 2050 तक पानी की मांग इसकी आपूर्ति से ज्यादा हो जाएगा। डब्ल्यूएमओ की एक रिपोर्ट ‘2021 स्टेट ऑफ क्लाइमेट सर्विसेज के अनुसार भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगातार घट रही है। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्ष 2031 में और घटकर 1,367 क्यूबिक मीटर हो जाएगी। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार पानी की बर्बादी का एक अन्य अनुमान बताता है कि हर दिन 4,84,20,000 करोड़ क्यूबिक मीटर यानी 48.42 अरब एक लीटर पानी की बोतलें बर्बाद हो जाती हैं।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार , पिछली शताब्दी में पानी का उपयोग जनसंख्या वृद्धि की दर से दोगुने से भी अधिक बढ़ गया है। 2025 तक, अनुमान है कि 1.8 बिलियन लोग पानी की कमी से ग्रस्त क्षेत्रों में रहेंगे, दुनिया की दो-तिहाई आबादी उपयोग, विकास और जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पानी की कमी वाले क्षेत्रों में रहती है।
अत्यधिक दोहन, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। भारत की स्थिति इस मामले में चिंताजनक है। भारत में पूरी दुनिया की 17 प्रतिशत आबादी रहती है लेकिन उस अनुपात में जब पानी की बात की जाए तो वह सिर्फ चार प्रतिशत के करीब बैठता है। हैरानी की बात है कि भारत में पूरी दुनिया का सिर्फ चार प्रतिशत शुद्ध जल का स्रोत है।
सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की निदेशक और पर्यावरणविद् सुनीता नारायण कहती है कि इस साल बेंगलुरु में पैदा हुआ जल संकट पूरे देश के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। हमारे शहर रहने लायक तभी बने रहेंगे जब शहर में रहने वाले गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए भी साफ पेय जल की उपलब्धता हो। बेंगलुरु में पर्याप्त बारिश होती है, यहां झीलें हैं जो इस बारिश को इकट्ठा कर सकती हैं और भूजल को रिचार्ज कर सकती हैं। इन झीलों के चलते ज्यादा बारिश के समय भी शहर में बाढ़ जैसी स्थिति नहीं बनती है। शहरों में पानी की हर बूंद का इस्तेमाल आने वाले अभाव के दौर के लिए किया जा सकता है। पानी की बचत के लिए शहरों के सीवर में बह जाने वाले पानी के प्रबंधन पर भी विचार करना होगा। इसके लिए जल इंजीनियरों को जमीन पर उतरना होगा, फिर से काम करना होगा और फिर से सोचना होगा। यह आज बेंगलुरु की कहानी है और कल ये किसी भी शहर की कहानी हो सकती है।
सिंगापुर और इजराइल से सीखें भारत के महानगर
भूजल, झीलों और तालाबों को रिचॉर्ज करने के लिए बारिश के पानी का संचय आवश्यक है। इससे शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की समस्या कम होगी। सिंगापुर जैसे सबसे आधुनिक शहर वर्षा जल संचयन की प्रैक्टिस करते हैं। सिंगापुर की लगभग आधी भूमि का उपयोग बारिश के पानी को कैप्चर करने के लिए किया जाता है। इस तरह की पहल से बेंगलुरू जैसे शहर पानी की कमी की समस्या को काफी हद तक हल कर सकते हैं। सिंगापुर, इजरायल जैसे देश व विश्व के कई बड़े शहर पानी की बर्बादी रोककर और अपशिष्ट जल को शोधित कर पेयजल संकट को दूर कर रहे हैं। दिल्ली में आधा से अधिक पेयजल चोरी व रिसाव में बर्बाद हो जाता है।
सिंगापुर, टोक्यो सहित अन्य स्थानों पर यह पांच प्रतिशत के आसपास है। दिल्ली जल बोर्ड के पूर्व सदस्य आरएस त्यागी का कहना है कि तकनीक के सहयोग से सिंगापुर की तरह दिल्ली में भी पानी वितरण के दौरान व घर में जल की बर्बादी रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। शोधित अपशिष्ट जल का उपयोग कर जल संकट को दूर किया जा सकता है।
दिल्ली के खस्ताहाल
टेरी के वैज्ञानिक चंदर कुमार सिंह कहते हैं कि केंद्रीय भूजल आयोग (सीजीडब्ल्यूबी) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली हर साल औसतन 0.2 मीटर भूजल खो रही है। इस लिहाज से हर दिन दिल्ली की जमीन के नीचे का पानी 0.05 सेंटीमीटर नीचे जा रहा है। यहां के करीब 80 फीसदी स्त्रोत क्रिटिकल या सेमी क्रिटिकल स्थिति में आ चुके हैं। वहीं टेरी की ओर से किए गए एक अध्ययन में सामने आया कि दिल्ली -एनसीआर में बढ़ती कंकरीट की सतह के चलते ज्यादातर बारिश का पानी बह जाता है जिससे जमीन में पानी रीचार्ज नहीं हो पाता है। तेजी से बढ़ते शहरीकरण और बढ़ती कंक्रीट की सतह का असर सीधे तौर पर ग्राउंड वाटर रीचार्ज पर पड़ा है। अनुमान है कि 2031 तक बारिश का 70 फीसदी से ज्यादा ज्यादा पानी बह कर नालों के जरिए नदियों में चला जाएगा।
दिल्ली में गिर रहा जलस्तर
जल शक्ति मंत्रालय द्वारा पिछले वर्ष नवंबर में जारी भूजल रिपोर्ट के अनुसार, राजधानी भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। सबसे अधिक खराब स्थिति नई दिल्ली जिले की है अन्य जिलों की स्थिति भी सही नहीं है। दिल्ली की 34 में से सिर्फ तीन में ही भूजल सुरक्षित स्तर पर है, 22 को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है।
कई स्थानों पर यह 20 से 30 मीटर नीचे चला गया है। इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो इन शहरों का भूजल खत्म हो जाएगा। इससे पेयजल संकट और बढ़ेगा। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व के 200 शहर डे जीरो की स्थिति में पहुंच सकते हैं, जिसमें शीर्ष के 10 में भारत के चार शहर दिल्ली, जयपुर, चेन्नई और हैदराबाद शामिल है। डे जीरो का अर्थ है कि शहर में उपलब्ध पानी के सभी स्त्रोत समाप्त हो जाना। इस स्थिति से बचने के लिए भूजल दोहन में कमी लाकर जल संचयऩ को बढ़ावा देना होगा। पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं कि आज वायु प्रदूषण और बढ़ता जल संसाधन सबसे बड़ी चुनौतियां बन कर हमारे सामने खड़े हैं। शहरों में बढ़ता वायु प्रदूषण अब जानलेवा होने लगा है। ये प्रदूषण कई बीमारियों का भी जनक है। अंधाधुंध दोहन के चलते हमारे जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। पहाड़ों में बड़ी संख्या में बरसाती नदियां लगभग समाप्ती की कगार पर हैं। भूजल का स्तर भी लगातार नीचे जा रहा है। वहीं जमीन को रीचार्ज करने की कोई व्यवस्था की नहीं जा रही है। ऐसे में समय रहने कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में देश के एक बड़े हिस्से के सामने जल संकट खड़ा होने की स्थिति है। हमें अपने शहरों में घरों या इमारतों के निर्माण के साथ ही अनिवार्य तौर पर वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने के लिए प्रेरित करना होगा। वहीं जल के प्रबंधन के लिए भी कदम उठाने होंगे। जलाशयों की संख्या बढ़ाने के लिए भी कदम उठाने होंगे।
पानी की बर्बादी
औसत भारतीय अपनी दैनिक पानी की ज़रूरत का 30 प्रतिशत बर्बाद कर देते हैं। यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे के मुताबिक, प्रति मिनट 10 बूंदें टपकने वाला टपकने वाला नल प्रतिदिन 3.6 लीटर पानी बर्बाद करता है साथ ही, शौचालय के हर फ्लश में लगभग छह लीटर पानी खर्च होता है। सीएसई की एक रिपोर्ट बताती है कि हर दिन 4,84,20,000 करोड़ क्यूबिक मीटर यानी एक लीटर की 48.42 अरब बोतल पानी बर्बाद हो जाता है, जबकि इस देश में करीब 16 करोड़ लोगों को साफ और ताजा पानी नहीं मिल पाता है।
भारत में पानी की कितनी कमी
वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता लगभग 1,100 क्यूबिक मीटर है, भारी किल्लत को दर्शाता है। जब प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,700 क्यूबिक मीटर यानी 17 लाख लीटर से कम होती है, तब माना जाता है कि देश में पानी की कमी हो रही है। लेकिन जब ये उपलब्धता 1,000 क्यूबिक मीटर यानी 10 लाख लीटर से कम हो जाएगी तो माना जाएगा कि भारत में पानी की भयानक किल्लत है। इसकी तुलना में, वैश्विक प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5,500 क्यूबिक मीटर है।
केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में अधिकतम जल निकाय बहुत छोटे हैं। भारत के अधिकांश जल निकाय एक हेक्टेयर से भी छोटे हैं। इसके अलावा इस रिपोर्ट में ये भी सामने आया है कि कई जल निकायों का पानी इतना पुराना और इतना मैला है कि उसे इस्तेमाल उसे इस्तेमाल करने से कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं इसलिए इन जल निकायों के पानी को इस्तेमाल करने योग्य भी नहीं बताया गया है।
पानी को लेकर सरकार की योजनाएं
राष्ट्रीय जल नीति– इस नीति के तहत नदी के एक भाग को इस्तेमाल के लिए संरक्षित किए जाने का प्रावधान है तो वहीं नदी के दूसरे भाग को बहते देने का प्रावधान है. जिससे लोगों को पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध हो सके।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना- प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) को 2015-16 में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य खेत पर पानी की भौतिक पहुंच को बढ़ाना और सुनिश्चित सिंचाई के तहत खेती योग्य क्षेत्र का विस्तार करना था।
जल शक्ति अभियान, ‘कैच द रेन’ अभियान-सभी स्थितियों के आधार पर जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बारिश के पानी को संग्रहित करने के लिये वर्षा जल संचयन संरचना का निर्माण करना।
अटल भूजल योजना-अटल भूजल योजना 6,000 करोड़ रुपये की लागत वाली एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है जिसका उद्देश्य सामुदायिक भागीदारी के साथ भूजल के सतत प्रबंधन को बढ़ावा देना है। इसमें जल बजट के निर्माण, ग्राम-पंचायत-वार जल सुरक्षा योजनाओं की तैयारी और कार्यान्वयन आदि के माध्यम से लोगों की भागीदारी की परिकल्पना की गई है।
कृषि पर असर
कृषि में भारत के 80 फीसदी पानी का उपयोग होता है। नीति आयोग की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं की खेती का लगभग 74 फीसदी क्षेत्र और चावल की खेती का 65 फीसदी क्षेत्र 2030 तक पानी की भयंकर कमी का सामना करेगा।
कुशल सिंचाई के द्वारा जल बचाने की जरूरत
डीसीएम श्रीराम और सत्व नॉलेज की एक रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर सिंचाई जल का दक्षता से उपयोग किया जाए, तो 20% पानी को बचा सकते हैं।
भारत में जल संकट के परिणाम
भारत में जल संकट के कारण कृषि उत्पादकता में कमी, जलजनित बीमारियां और आर्थिक चुनौतियां पैदा होती हैं। इससे विकास में भी बाधा आती है और समुदायों की समग्र खुशहाली पर भी असर पड़ता है।
वेस्ट वाटर का सही इस्तेमाल
काउंसिल ऑन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वॉटर की ‘रीयूज ऑफ ट्रीटेड वेस्टवॉटर इन इंडिया’रिपोर्ट के अनुसार भारत में अगर चुनिंदा क्षेत्रों में ट्रीटेड वेस्टवॉटर (उपचारित अपशिष्ट जल) को बेचने की व्यवस्था हो तो 2025 में इसका बाजार मूल्य 83 करोड़ रुपये होगा, जो 2050 में बढ़कर 1.9 अरब रुपये पहुंच जाएगा। अध्ययन बताता है कि भारत में पैदा हो रहे वेस्टवॉटर की मात्रा इतनी है कि 2050 तक निकलने वाले वेस्टवॉटर के ट्रीटमेंट से जितना साफ पानी मिलेगा, उससे दिल्ली से 26 गुना बड़े क्षेत्रफल की सिंचाई की जा सकती है।
हर साल कम हो रहा तीन सेंटीमीटर पानी
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की एक रिपोर्ट ‘2021 स्टेट ऑफ क्लाइमेट सर्विसेज’ में बताया गया है कि भारत में पिछले 20 वर्षों (2002-2021) में स्थलीय जल संग्रहण में 1 सेमी. प्रति वर्ष की दर से गिरावट दर्ज की गई है। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वार्षिक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगातार घट रही है। यह वर्ष 2001 के 1,816 क्यूबिक मीटर की तुलना में वर्ष 2011 में घटकर 1,545 क्यूबिक मीटर हो गई। आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता वर्ष 2031 में और घटकर 1,367 क्यूबिक मीटर हो जाएगी।
पानी का लगातार बढ़ रहा उपभोग
विश्व संसाधन संस्थान (डब्ल्यूआरआई) के अनुमानों पर आधारित आंकड़ों से पता चलता है कि विश्लेषण किए गए 164 देशों और क्षेत्रों में से 51 में 2050 तक उच्च से लेकर अत्यधिक उच्च जल तनाव की स्थिति होने की संभावना है, जो कि 31 प्रतिशत आबादी के बराबर है। पूरे अरब प्रायद्वीप, ईरान और भारत के अलावा, अल्जीरिया, मिस्र और लीबिया जैसे अधिकांश उत्तरी अफ्रीकी देश उन देशों में शामिल हैं, जिनके 2050 तक उपलब्ध पानी का कम से कम 80 प्रतिशत उपभोग करने की उम्मीद है।
दूषित होती नदियां
स्टेट ऑफ एनवायरमेंट (एसओई) रिपोर्ट 2023 में यह खुलासा किया गया है कि रिपोर्ट के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 279 (46 फीसदी) नदियां प्रदूषित हैं, हालांकि, 2018 के मुकाबले मामूली सुधार 2022 में देखा गया है. 2018 में 31 राज्यों में 323 नदियां प्रदूषित थीं।
जबलपुर की ओमती नदी देखते ही देखते नाले में हुई तब्दील
एक जमाने में कलकल करती बहने वाली ओमती नदी देखते ही देखते नाले में तब्दील हो गई।
खंदारी की किस्मत भी वैसी- जिस तरह ओमती नदी शहरी प्रदूषण का शिकार हुई, ठीक वैसी ही किस्मत खंदारी की भी रही। जानकारों का कहना है कि एक जमाने में बिलहरी, तिलहरी से होते हुए खंदारी नदी ग्वारीघाट से ठीक पहले आकर नर्मदा में मिला करती थी, लेकिन यह भी जल्द नाले में तब्दील हो गई।
उत्तराखंड : देहरादून की रिस्पना को कभी जीवन दायिनी नदी कहा जाता था, जिसका पानी कभी पीने योग्य था, आज उसके अस्तिव पर खतरा मंडरा रहा है।
झारखंड : जमशेदपुर की लाइफ लाइन कही जाने वाली स्वर्णरेखा नदी की नाले से भी बदतर हालत हो गई है