विपक्षी सांसदों को सदन में और समय दिया जाना चाहिए !

विपक्षी सांसदों को सदन में और समय दिया जाना चाहिए

प्रश्न : जब संसद नहीं चलती, तो इससे सबसे ज्यादा लाभ किसे होता है? उत्तर : सत्ता में बैठी सरकार को। तर्क सीधा-सरल है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है और संसद लोगों के प्रति। इसलिए जब संसद काम नहीं करती, तो सरकार किसी भी के प्रति जवाबदेह नहीं होती!

संसद के आगामी सत्र के लिए निर्धारित समय 190 घंटे का है। इसे सरकार और विपक्ष के बीच बांटा गया है। प्रश्नकाल के लिए लगभग आधे प्रश्न और शून्यकाल के लिए आधे नोटिस विपक्षी सांसदों द्वारा दाखिल किए जाते हैं।

इस प्रकार विपक्ष के सदस्यों के पास सवाल पूछने और सार्वजनिक महत्व के मामले उठाने के लिए 31 घंटे होते हैं। इसकी तुलना में, केंद्र सरकार को सरकारी कामकाज और अन्य मुद्दों के लिए 135 घंटे मिलते हैं- जो कि कुल समय का 70% है।

सरकार को उपलब्ध घंटों में कटौती करने की वैधानिक आवश्यकता है। विपक्ष को कुछ और समय दिया जाना चाहिए। तात्कालिक सार्वजनिक महत्व के मामलों पर चर्चा की अनुमति देने के लिए प्रत्येक सदन में हर सप्ताह चार घंटे आरक्षित किए जाने चाहिए।

इसके अलावा, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए भी दो घंटे दिए जाने चाहिए (इसमें सांसद संबंधित मंत्री के ध्यान में तात्कालिक सार्वजनिक महत्व का कोई मामला लाता है, जिसका जवाब देने के लिए मंत्री बाध्य होते हैं)।

इससे विपक्ष को राष्ट्रीय सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को उठाने के लिए लोकसभा और राज्यसभा दोनों में हर सप्ताह छह अतिरिक्त घंटे मिलेंगे। यानी सरकारी कारोबार के लिए लगभग 117 घंटे और विपक्ष के लिए 49 घंटे। यह एक बेहतर और निष्पक्ष प्रणाली होगी।

हाल के वर्षों में, विपक्ष की पर्याप्त सुनवाई बिना ही कई महत्वपूर्ण विधायी निर्णय ले लिए गए हैं। उदाहरण के लिए, कृषि कानूनों के पारित होने के दौरान, लोकसभा में केवल एक विपक्षी सदस्य को बोलने की अनुमति थी। अंततः इन कानूनों को निरस्त करना पड़ा।

उल्लेखनीय है कि 17वीं लोकसभा में कुल 221 विधेयक पारित हुए थे। इनमें से एक तिहाई से ज्यादा 60 मिनट से भी कम समय की चर्चा में जल्दबाजी में पारित कर दिए गए। 6 में से केवल 1 विधेयक की समितियों द्वारा जांच की गई।

यहां तक कि जो विधेयक समितियों के पास पहुंचे, उन्हें भी तुरत-फुरत में निपटा दिया गया। भारतीय न्याय संहिता, 2023- जिसमें 356 संशोधनों के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक बदलाव का प्रस्ताव है- के साथ ही भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता, भारतीय साक्ष्य विधेयक पर सिर्फ 13 बैठकों में चर्चा हुई। इसकी तुलना में आपराधिक प्रक्रिया संहिता संशोधन विधेयक, 2006- जिसमें 41 संशोधन हैं- की गृह मामलों की समिति द्वारा 11 बैठकों में जांच की गई।

एक और हालिया मुद्दा जिसमें विपक्ष की न्यूनतम भागीदारी देखी गई, संसद सुरक्षा उल्लंघन पर ‘चर्चा’ का था। 2001 में जब संसद पर हमला हुआ, तो संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की भागीदारी में व्यापक चर्चा हुई।

इस समावेशी संवाद ने सुरक्षा चिंताओं को सहयोगात्मक और पारदर्शी तरीके से हल करने की प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया। लेकिन इसके विपरीत 2023 में जब संसद की सुरक्षा का उल्लंघन हुआ, तो इस विषय पर चर्चा की मांग करने पर 146 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया।

करों के अनंतिम संग्रह विधेयक पर केवल छह सदस्यों ने बहस की और इसे केवल 30 मिनट में पारित कर दिया गया। इसी तरह, दूरसंचार विधेयक में केवल आठ सदस्यों की भागीदारी देखी गई और इसे एक घंटे के भीतर पारित कर दिया गया। कई अन्य विधेयकों का भी यही हश्र हुआ, जैसे कि जन विश्वास विधेयक, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, दिल्ली एनसीटी सरकार (संशोधन) विधेयक आदि।

सितंबर 2020 से अगस्त 2021 के बीच लोकसभा में सांसदों द्वारा अल्पकालिक चर्चा के लिए 113 नोटिस दाखिल किए गए। इनमें से केवल दो को स्वीकार किया गया। सार्वजनिक महत्व के अत्यावश्यक मामलों पर बहस के लिए नोटिस न देना संसद में विपक्ष की आवाज को दबाने का सबसे बुरा तरीका है।

पीठासीन अधिकारियों को अपने विवेक से इस पर ध्यान देना चाहिए। संसद में सरकार और विपक्ष के बीच समय के बंटवारे पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह केवल प्रक्रियागत मामला नहीं, बल्कि जवाबदेही और प्रतिनिधि-लोकतंत्र के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए एक बुनियादी जरूरत है।

17वीं लोकसभा में कुल 221 विधेयक पारित हुए थे। इनमें से एक तिहाई से भी ज्यादा 60 मिनट से भी कम समय की चर्चा में जल्दबाजी में पारित कर दिए गए। 6 में से केवल 1 विधेयक की समितियों द्वारा जांच की गई थी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहायक शोधकर्ता चाहत मंगतानी और धीमंत जैन हैं)

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