जल संकट से निपटने के लिए नैसर्गिक जल सरिताओं को सहेजना बेहद जरूरी !

पर्यावरण: अब झरने भी गिने जाएंगे… जल संकट से निपटने के लिए नैसर्गिक जल सरिताओं को सहेजना बेहद जरूरी
देश की 20 फीसदी आबादी झरनों पर निर्भर है। हिमालय क्षेत्र में 50 फीसदी झरने सूख रहे हैं, तो दक्षिण के बारहमासी झरने मौसमी होते जा रहे हैं।
Environment Issue waterfalls count to deal with water crisis protecting natural water streams vital
देश की सैकड़ों गैर हिमालयी नदियां, खासकर दक्षिण राज्यों की नदियों का तो उद्गम ही झरनों से है। नर्मदा, सोन जैसी विशाल नदियां मध्य प्रदेश में अमरकंटक के झरने से ही फूटती हैं। जब दो साल बाद इस गणना के नतीजे सामने आएंगे, तो देश के पास एक व्यापक परिदृश्य होगा कि नदियों की धार का भविष्य क्या है? जल विद्युत परियोजनाओं की संभावना क्या है? झरने का अस्तित्व पहाड़ से है, उसे ताकत मिलती है परिवेश के घने जंगलों से और संरक्षण मिलता है अविरल प्रवाह से।

2020 में, अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका ‘वाटर पॉलिसी’ ने भारतीय हिमालय  क्षेत्र (आईएचआर) में स्थित 13 शहरों में 10 अध्ययनों की एक शृंखला आयोजित की थी। इस अध्ययन से खुलासा हुआ कि इन शहरों में से कई, जिनमें मसूरी, दार्जिलिंग और काठमांडू जैसे प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल शामिल हैं, पानी की मांग-आपूर्ति के गहरे अंतर का सामना कर रहे हैं, जो कई जगह 70 फीसदी तक है और इसका मूल कारण इन इलाकों में जल सरिताओं-झरनों का तेजी से सूखना है। ठीक यही बात अगस्त 2018 में नीति आयोग की रिपोर्ट में कही गई थी। इसमें स्वीकार किया गया था कि आईएचआर में करीब 50 फीसदी झरने सूख रहे हैं।

झरना एक ऐसी प्राकृतिक संरचना है, जहां से जल एक्वीफर्स (चट्टान की परत, जिसमें भूजल होता है) से पृथ्वी की सतह तक बहता है। पूरे भारत में लगभग पचास लाख झरने हैं, जिनमें से करीब तीस लाख अकेले आईएचआर में हैं। देश की बीस करोड़ से अधिक आबादी पानी के लिए झरनों पर निर्भर है। भारतीय हिमालय क्षेत्र के 12 राज्यों के 60,000 गांव हैं, जिनकी आबादी पांच करोड़ है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में हैं। असम और पश्चिम बंगाल भी आंशिक रूप से इसके तहत आते हैं। यहां की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल संबंधी जरूरतों के लिए धाराओं पर निर्भर है।

उधर दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाटों में, कभी बारहमासी रहने वाले झरने मौसमी होते जा रहे हैं और इसका सीधा असर कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों पर पड़ रहा है। यहां झरनों के जलग्रहण क्षेत्र में बेपरवाही से लगाए जा रहे नलकूपों ने भी झरनों का रास्ता रोका है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा क्षेत्र में झरनों की संख्या पिछले 150 वर्षों में 360 से घटकर 60 रह गई। उत्तराखंड में नब्बे प्रतिशत पेयजल आपूर्ति झरनों पर निर्भर है, जबकि मेघालय में राज्य के सभी गांव पीने और सिंचाई के लिए झरनों का उपयोग करते हैं। ये झरने जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक भी हैं।

झरनों के लगातार लुप्त होने या उनमें जल की मात्रा कम होने का सारा दोष जलवायु परिवर्तन पर नहीं मढ़ा जा सकता। अंधाधुंध पेड़ कटाई और निर्माण के कारण पहाड़ों को हो रहे नुकसान ने झरनों के नैसर्गिक मार्गों में व्यवधान पैदा किया है। नीति आयोग ने वर्ष 2018 में झरना संरक्षण कार्यक्रम की कार्य योजना तैयार की और यह उसकी चार साल पुरानी एक रिपोर्ट पर आधारित थी, लेकिन बीते छह वर्षों में झरनों को बचाने के लिए कोई योजना बनी नहीं। उम्मीद है कि नए सर्वेक्षण की रिपोर्ट से झरनों को सहेजने की योजनाएं बनेंगी।

हालांकि यह जान कर सुखद लगेगा कि सिक्किम ने इस संकट को सन 2009 में ही भांप लिया था। इससे पहले सिक्किम में प्रति परिवार पानी का खर्च 3200 रुपये महीना था। 2013-14 में झरनों के आसपास 120 हेक्टेयर पहाड़ी क्षेत्र में गड्ढे बनाकर बारिश के पानी को संरक्षित करने पर काम शुरू किया और इसके 100 फीसदी परिणाम आने शुरू हो गए।

 झरनों को लेकर सबसे अधिक बेपरवाही उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में है, जो बीते पांच वर्षों में भूस्खलन के कारण तेजी से बिखर भी रहे हैं। इन राज्यों में झरनों के आसपास भूमि क्षरण कम करने, हरियाली बढ़ाने और मिट्टी के नैसर्गिक गुणों को बनाए रखने की कोई नीति बनाई नहीं गई। यह किसी से छिपा नहीं है कि मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है। कहीं बारिश कम हो रही है, तो कहीं अचानक जरूरत से ज्यादा, फिर धरती का तापमान तो बढ़ ही रहा है। जरूरत इस बात की है कि नैसर्गिक जल सरिताओं और झरनों के कुछ दायरे में निर्माण कार्य पर पूरी तरह रोक हो, ऐसे स्थानों पर कोई बड़ी परियोजनाएं न लाई जाएं, जहां का पर्यावरणीय संतुलन झरनों से हो।

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