JPC में वक्फ संशोधन बिल भेजने से क्या बदल जाएगा, कौन होगा इसका मुखिया !
JPC में वक्फ संशोधन बिल भेजने से क्या बदल जाएगा, कौन होगा इसका मुखिया, कब आएगी रिपोर्ट?
Joint Parliamentary Committee: विपक्ष के भारी विरोध के बाद लोकसभा में केंद्र सरकार ने वक्फ अधिनियम संशोधन विधेयक-2024 को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने का प्रस्ताव रखा है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर संयुक्त संसदीय समिति है क्या? इसका गठन कब होता है? यह क्या काम करती है, किसी बिल के जेपीसी में जाने पर क्या होता है और अब तक कितने मामलों में इसका गठन हुआ है? आइए जानने की कोशिश करते हैं.
लोकसभा में केंद्र सरकार ने वक्फ अधिनियम संशोधन विधेयक-2024 को पेश कर दिया है. इसके बाद विपक्ष ने भारी विरोध किया तो इसे संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने का प्रस्ताव केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री किरेन रिजिजू ने रखा. इस पर लोकसभा स्पीकर अध्यक्ष ओम बिरला ने सभी दलों के नेताओं से बात कर जेपीसी के गठन की बात कही है.
कैसे होता है जेपीसी का गठन, कौन करता है सिफारिश?
संसद में विधायी के साथ-साथ अन्य बहुत सारे कामकाज होते हैं. ऐसे में सभी मामलों पर सदन में गहराई से विचार नहीं किया जा सकता है. इसलिए कई कार्यों पर विमर्श के लिए विशेष समितियों का गठन किया जाता है. संविधान में दो तरह की संसदीय समितियों का उल्लेख मिलता है. इनमें से एक है स्थायी समिति और दूसरी अस्थायी समिति.
किस मुद्दे पर जेपीसी का गठन होगा, इसकी सिफारिश केंद्र सरकार की ओर से की जाती है. इसके लिए संसद के एक सदन में एक प्रस्ताव रखकर पास कराया जाता है और फिर दूसरे सदन से भी इस पर सहमति ली जाती है. इसके बाद दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों को मिलाकर जेपीसी का गठन होता है.
जेपीसी के गठन में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों का अनुपात 2:1 का होता है. यानी लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्यसभा के सदस्यों की दोगुनी होती है. चूंकि इसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं, इसीलिए इसे संयुक्त संसदीय समिति कहा जाता है.
पक्ष या विपक्ष, कौन बनता है जेपीसी अध्यक्ष, बिल का क्या होगा?
लोकसभा के स्पीकर जेपीसी का एक अध्यक्ष नियुक्त करते हैं, जिसका फैसला सर्वमान्य होता है. आमतौर पर सत्ताधारी पार्टी के सांसद ही जेपीसी के अध्यक्ष होते हैं. बाकी इसमें सभी दलों के सांसद शामिल किए जाते हैं, जिससे निष्पक्ष रिपोर्ट सामने आए. समिति के अधिकतर सदस्य किसी मामले को दबाने की भी कोशिश करते हैं, तो दूसरे सदस्य आपत्ति दर्ज करा सकते हैं. बोफोर्स केस में ऐसा ही हुआ था, जब एआईडीएमके के सांसद ने जांच के खिलाफ अपना आपत्ति नोट दर्ज कराया था. बिल के यहां पहुंचने के बाद उस पर चर्चा होती है. इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों के होने पर रिपोर्ट निष्पक्ष आती है. चर्चा सिर्फ सदस्यों तक सीमित नहीं रखी जाती. इसमें कई पॉइंट्स बताए जाते हैं, जिनकी जांच की जाती है और चर्चा होती है. सम्बंधित क्षेत्र विशेषज्ञों और समूहों को आमंत्रित किया जाता है. इसके अलावा कुछ मामलों में जनता से भी सलाह ली जा सकती है.
शक्तिशाली जांच निकाय के रूप में करती है काम
संयुक्त संसदीय समिति का उद्देश्य किसी मुद्दे, विधेयक के प्रावधानों या घोटाले आदि की जांच करना होता है. भारत की संसदीय प्रणाली में जेपीसी एक शक्तिशाली जांच निकाय के रूप में काम करती है. जेपीसी में सभी दलों के लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों को शामिल किया जाता है. इसके लिए सदस्यों की संख्या तो निश्चित नहीं है, लेकिन ध्यान रखा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा दलों के सदस्यों की इसमें शामिल किया जाए. इस समिति में आमतौर पर बहुमत वाले या फिर सबसे बड़ी पार्टी के सबसे अधिक सदस्य होते हैं.
कितने समय के अंदर जेपीसी को पेश करनी होगी रिपोर्ट?
जेपीसी को जिस काम के लिए बनाया जाता है, उससे जुड़े सबूत और तथ्य जुटाने के लिए किसी भी व्यक्ति, संस्था या पक्ष को बुलाने और उससे पूछताछ करने का अधिकार होता है. अगर कोई मामला जनहित का न हो तो आमतौर पर समिति की कार्यवाही और इसके निष्कर्ष को गोपनीय ही रखा जाता है. अमूमन जेपीसी के पास जांच के लिए अधिकतम तीन महीने का समय होता है. इसके बाद यह अपनी रिपोर्ट पेश करते है और इसका अस्तित्व खत्म हो जाता है.
इतनी बार हुआ गठन और सरकार चली गई
समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए वैसे तो सरकार बाध्य नहीं होती है पर अगर इसकी सिफारिशों पर कार्रवाई करती है तो इसकी रिपोर्ट सदन को देनी होती है. समितियों की कार्रवाई रिपोर्ट पर संसद में चर्चा हो सकती है और इससे जुड़े सवाल भी उठाए जा सकते हैं. देश के इतिहास में अब तक कई बार जेपीसी का गठन किया जा चुका है. यह जानना भी दिलचस्प है कि पांच बार जेपीसी का गठन करने के बाद सत्तारूढ़ दल अगला चुनाव हार गया.
इन मामलों में हो चुकी जेपीसी जांच
- साल 1987 में स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी बोफोर्स के साथ भारत सरकार ने 1437 करोड़ रुपए का एक रक्षा सौदा किया था. तभी वहां की मीडिया में खबर आई थी कि बोफोर्स ने रक्षा सौदों के लिए कई देशों की सरकारों को रिश्वत दी है. इस पर भारत में भी खूब हंगामा हुआ. खुद राजीव गांधी के करीबी मंत्री रहे वीपी सिंह ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बोफोर्स सौदे की जांच के लिए जेपीसी बनानी बड़ी थी, जिसके अध्यक्ष कांग्रेस सांसद बी. शंकरानंद थे. इस समिति ने रिपोर्ट पेश की तो राजीव गांधी को क्लीन चिट दे दी गई थी. इस पर विपक्ष ने काफी हंगामा किया था. इसके बाद साल 1989 में हुए चुनाव में राजीव गांधी को हार का सामना करना पड़ा था, जबकि 1984 में उन्होंने लोकसभा की 414 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. वहीं, बोफोर्स घोटाले को उठाने वाले वीपी सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए थे.
- शेयर बाजार में बिग बुल के नाम से मशहूर रहे ब्रोकर हर्षद मेहता साल 1992 में सुर्खियों में आ गए थे. तब आरोप लगा था कि शेयर बाजार में 4000 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था. मेहता पर आरोप थे कि वह बैंक से कर्ज लेकर शेयर बाजार में पैसा लगाता है और फिर फायदा कमाने के बाद पैसा बैंक को वापस कर देता है. इसके लिए हर्षद और बैंक अधिकारियों के बीच सांठगांठ की खबरें आईं तो शेयर बाजार गिरता चला गया. तब हर्षद मेहता पर 72 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे. इस पर मेहता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया था कि उसने प्रधानमंत्री को भी एक करोड़ रुपए की रिश्वत दी है. इसको लेकर विपक्ष ने संसद में काफी हंगामा किया. इसके बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस मामले में जेपीसी बनाई थी, जिसके मुखिया कांग्रेस सांसद राम निवास मिर्धा थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को इस मामले में क्लीन चिट मिल गई थी पर 1996 के चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था.
- साल 2001 में एक और शेयर ब्रोकर केतन पारेख का नाम उछलने लगा. उस पर 2 लाख करोड़ रुपए की धोखाधड़ी का आरोप लगा था. इससे अहमदाबाद की माधवपुरा मर्केंटाइल सहकारिता बैंक पूरी तरह से डूब गया था. इसका दाग तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर भी लगा तो भाजपा सांसद प्रकाश मणि त्रिपाठी की अध्यक्षता में जेपीसी बनाई गई थी. इस समिति ने सरकार को तो क्लीन चिट दे दी थी पर शेयर बाजार के नियमों में फेरबदल के लिए सिफारिश की थी.
- साल 2004 में कोका कोला और पेप्सी जैसी सॉफ्ट ड्रिंक में पेस्टीसाइड की मात्रा अधिक होने का मामला उठा. संसद में भी यह मुद्दा खूब उछला. इस पर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जेपीसी बना दी, जिसका अध्यक्ष विपक्ष के शरद पवार को बनाया गया था. इस जेपीसी ने माना था कि सॉफ्ट ड्रिंक और फ्रूट जूस में पेस्टीसाइड मिलाया जा रहा है. इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था और कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनी थी.
- साल 2009-10 में 2जी स्पैक्ट्रम आवंटन में रिश्वत लेने का मुद्दा उठा तो तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा को जेल तक जाना पड़ा. इसी मुद्दे पर कई दिन संसद ठप रही. इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने साल 2011 में जेपीसी बना दी, जिसकी अध्यक्षता कांग्रेस सांसद पीसी चाको को दी गई थी. समिति ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को क्लीन चिट दी थी पर इस रिपोर्ट का 15 सांसदों ने विरोध कर दिया. इसके बाद साल 2013 में समिति की फाइनल रिपोर्ट आई, जिसमें 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले का सारा दोष तत्कालीन दूरसंचार मंत्री पर मढ़ा गया था.
ये विधेयक भी जेपीसी के पास भेजे जा चुके
इनके अलावा नागरिकता संशोधन विधेयक-1955 में संशोधन के लिए साल 2016 में लाए गए विधेयक की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था. इस पर समिति ने देश में अवैध रूप से रहने वाले विदेशियों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार दिया था. साथ ही उन्हें वापस भेजने की गति बेहद धीमी होने पर चिंता जताई थी. वहीं, साल 2019 में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था. तभी इस विधेयक को जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था.
सरकार के प्रस्ताव के बावजूद नहीं हो पाया था गठन
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य वीवीआईपी के लिए भारत सरकार ने हेलिकॉप्टर खरीदने के लिए अगस्ता वेस्टलैंड कंपनी के साथ 3,700 करोड़ रुपए से ज्यादा का सौदा किया था. इस पर आरोप लगा था कि कंपनी ने इस सौदे के लिए नेताओं और अधिकारियों को रिश्वत दी थी. इस पर मनमोहन सिंह की सरकार ने पूरे मामले की जांच के लिए साल 2013 में जेपीसी के गठन का प्रस्ताव रखा था, जो राज्यसभा से पास हो गया था पर मुख्य विपक्षी दल भाजपा, जेडीयू और तृणमूल कांग्रेस के बहिष्कार के कारण इसका गठन नहीं हो पाया था.