अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं !

अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं

आज आप छुट्टी मना रहे होंगे,लेकिन मै नहीं। मै काम पर हूँ और मेरा काम है लगातार लिखकर देशवासियों की सेवा करना। स्वतंत्रता दिवस के दिन भी मै लिख रहा हूँ ,हालांकि देश के अधिकाँश अखबारों में आज अवकाश है। टेलीविजन चैनलों में अवकाश नहीं होता लेकिन वे केवल बकवास के लिए उपस्थित होंगे । किसी को नेहरू को गरियाना होगा तो किसी को नरेंद्र के कसीदे पढ़ने होंगे। लेकिन मै लगातार शकील बदायूनी को याद कर रहा हूँ।


शकील बदायूनी हमारी लेखक बिरादरी के थे । वे आज होते तो उन्हें भी मंगलसूत्रों की कथित लुटेरा बिरादरी का कहा जाता। अच्छा हुआ कि शकील साहब आज नहीं हैं। वे नहीं हैं, लेकिन उनके लिखे कौमी तराने आज भी हमारे पास है। हमारे कानों में गूँज रहे है। शकीलसाहब के कौमी तरानों में लालकिले से दिए जाने वाले भाषणों से कहीं ज्यादा ओज है ,संकल्प है । राष्ट्रभक्ति है। उन्होंने अंधभक्ति की ही नही। न नेहरू की और न किसी और की। वे देशभक्त थे ,पक्के देशभक्त।
बात साल 1964 की है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का युग समाप्त हो रहा था और उसी साल ‘ लीडर ‘ फिल्म बनी थी । ‘ लीडर ‘ फिल्म के लिए शकील बदायूनी ने जो गीत लिखा था ,जिसे नौशाद ने संगीत दिया था और मोहम्मद रफी ने गया था ,वो गीत आज तक मरा नहीं है । फिजाओं में गूँज रहा है। लगातार गूँज रहा है ,क्योंकि वो गीत कौमी तराना है। कोई जुमला नहीं था । जुमला होता तो कभी का मर चुका होता। शकील साहब ने लिखा था –
अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं
सिर कटा सकते हैं लेकिन ,सिर झुका सकते नहीं
शकील बदायूनी ने ये बात केवल मुसलमान सिरों के लिए नहीं कही थी । केवल हिन्दू सिरों के लिए नहीं कही थी । उन्होंने ये बात हर राष्ट्रभक्त हिन्दुस्तानी के लिए कही थी । उन्होंने विभाजन की विभीषका को अपनी आँखों से देखा था। भुगता था। वे चाहते तो विभाजन के वक्त ही नव-सृजित भारत छोड़कर पाकिस्तान चले जाते लेकिन नहीं गए । न शकील साहब गए और न नौशाद साहब गये । मोहम्मद रफी का तो जाने का वाल ही नहीं उठता । क्योंकि उनका मन तो हरि दर्शन को तड़पता रहता था। शकील बदायूनी ही नहीं हमारे शकील ग्वालियरी भी देश छोड़कर नहीं गए। करोड़ों मुसलमान नहीं गए। उन्हें यदि केवल मजह्ब की बिना पर बने पाकिस्तान में जाना होता तो वे चले जाते ,लेकिन वे रह गए ताकि वे आजादी के 78 वे साल में आकर भाजपाइयों और संघियों की गालियां ,गोलियां और लाठियां खा सकें। बुलडोजर से बुलडोज किये जा सकें ,
बहरहाल मै बात कर रहा था उस जज्बे की जो शकील बदायूनी के तराने में है। वे लिखते हैं कि-
हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है
सैकड़ों क़ुरबानियाँ देकर ये दौलत पाई है
मुस्कराकर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियाँ
कितने वीरानों से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है
ख़ाक में हम अपनी इज़्ज़त को मिला सकते नहीं
मुश्किल है कि जो जन्नत हमें विरासत में मिली थी ,उसके आज तीन टुकड़े किये जा चुके हैं। उसी जन्नत का एक हिस्सा मणिपुर लगातार दो साल से जल रहा है। आज भी इस जन्नत की हिफाजत के लिए देश के जवानों को अपने सीने पर दुश्मन की गोलियां खाना पड़ रहीं है। जिस दिन भाजपाई और संघी मित्र देश के विभाजन कि विभीषका का स्मरण दिवस मना रहे थे तभी कश्मीर में हमारी सेना का एक कैप्टन शहीद हो रहा था। उसे विभीषका कि नहीं आजादी की फ़िक्र थी । विभीषका तो आयी और चली गयी । वे लोग अनाड़ी हैं जो विभीषिका के बहाने उस नफरत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं जो कभी कि समाप्त हो चुकी थी।
शकील साहब ने लिखा –
क्या चलेगी ज़ुल्म की अहले वफ़ा के सामने
जा नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने
लाख फ़ौजें ले के आई अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं
हमारा दुर्भाग्य ये है कि आज भी हम आजादी के पहले के हालात का सामना कर रहे है। हमें जुल्म के खिलाफ खड़ा होना पड़ रहा है । लड़ना पड़ रहा है लेकिन नफरत का कोई शोला एकता कि हवा के सामने आखिर कैसे टिक सकता है ? क्योंकि एकता का पत्थर न कोई लठैत हिला सकता है और न कोई अंधभक्त।
शकील साहब ने जो लिखा ,वो आज भी मौजू है । वे साफ़-साफ़ कहते हैं कि मुल्क ने एक बार धोखा खाया है। बार-बार धोखा नहीं खाया जा सकता। दुर्भाग्य ये है कि आज भी मुल्क को धोखा देने की कोशिश की जा रही है । धर्म के नाम पर ,भाषा के नाम पर। हिन्दू-मुसलमान के नाम पर। लेकिन आप तो शकील बायूनि साहब को पढ़ते रहिये,मोहम्मद रफी को सुनते रहिये –
वक़्त की आज़ादी के हम साथ चलते जाएंगे
हर क़दम पर ज़िंदगी का रुख़ बदलते जाएंगे
गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दार-ए-वतन
अपनी ताक़त से हम उसका सर कुचलते जाएंगे
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं
आप सभी समझदार है। नफरत और मोहब्बत का महत्व समझते है। पहचानते हैं कि कौन नफरत फैला रहा है ? कौन मोहब्बत की बात कर रहा है ? देश को किस जज्बे की जरूरत है ? आप जानते हैं कि नफरत के जहर से आपका क्या-क्या नुक्सान हुआ है ? मुल्क़ कि एकता कितनी जर्जर हुई है ? तो आइये सिर कटाने के जज्बे के साथ देश को मिली आजादी का जश्न मनाएं और पुराने जख्मों को कुरेदने वाले नाखून लगातार काटते रहें, कुतरते रहें। जय हिंद ,जय भारत।

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