1857 से लेकर 1947 तक … अंग्रेजी हुकुमत से भारत को यू हीं आजादी नहीं मिली !

1857 से लेकर 1947 तक… भारत की आजादी के लिए कब-कब हुआ बलिदान
अंग्रेजी हुकुमत से भारत को यू हीं आजादी नहीं मिली. ये आजादी कई वीर स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों के कारण मिली, जिन्होंने देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया.

भारत की आजादी कई वीर सपूतों के बलिदान से मिली. कुछ ने शांतिपूर्ण तरीके से विरोध किया तो कुछ ने हथियार उठाए. इन वीरों की कहानियां आज भी हमें प्रेरित करती हैं. इस स्पेशल स्टोरी में आजादी से पहले वीर सपूतों के बलिदान के बारे में जानेंगे.

1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम
1857 का विद्रोह भारत में आजादी की पहली बड़ी लड़ाई थी. हालांकि इसमें अंग्रेजों को हराया नहीं जा सका, लेकिन इसने देशभक्तों को देश के लिए लड़ने की प्रेरणा दी. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में एक सिपाही मंगल पांडे इस विद्रोह में शामिल थे. उनका विद्रोह बड़े विद्रोह को जन्म देने वाली चिंगारियों में से एक था. मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की और उन्हें फांसी दे दी गई.

यह विद्रोह 10 मई 1857 को मेरठ से शुरू हुआ जब अंग्रेजी सेना के सिपाहियों ने नए एनफील्ड कारतूसों का इस्माल करने से इनकार कर दिया.  क्योंकि अंग्रेजी बंदूकों की कारतूसों में जानवरों की चर्बी लगी होती थी जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची. इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इससे बड़े पैमाने पर विद्रोह हुआ. यह विद्रोह जल्द ही दिल्ली, कानपुर, झांसी और दूसरे जगहों पर फैल गया.

इस विद्रोह में एक और बड़ी नेता रानी लक्ष्मीबाई थीं जिन्हें झांसी की रानी के नाम से जाना जाता है. उन्होंने बहुत हिम्मत से अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और अपनी जान दे दी. उनकी बहादुरी ने बहुत से लोगों को प्रेरित किया. इनके अलावा तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर, कुंवर सिंह और बेगम हजरत महल जैसे नेता भी थे. ये सभी अलग-अलग जगहों से थे लेकिन उनका एक ही मकसद था- भारत को अंग्रेजों से आजाद कराना.

हालांकि इस विद्रोह को दबा दिया गया, तब भारत को आजादी नहीं मिल सकी लेकिन इसने ब्रिटिश शासन के प्रति व्यापक असंतोष को दिखाया. इस विद्रोह ने भविष्य की क्रांतिकारी गतिविधियों की नींव रखी और लोगों को अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी.

अनुशीलन समिति की स्थापना
इसके बाद साल 1876 में बंगाल में एक गुप्त संगठन बनाया गया जिसका नाम था अनुशीलन समिति. इस गुप्त समूह का मकसद अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना था. इसके लिए उन्होंने युवाओं को शारीरिक प्रशिक्षण दिया और उन्हें देशभक्ति की शिक्षा दी. धीरे-धीरे यह समूह एक ऐसी ताकत बन गया जो अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए हथियारों का भी इस्तेमाल करने लगा. इस तरह अनुशीलन समिति ने आजादी की लड़ाई के लिए एक नई शुरुआत की.

अनुशीलन समिति ने अंग्रेजों के खिलाफ कई बड़े हमले किए. इनमें बम धमाके, हत्याएं और अन्य हिंसक काम शामिल थे. ये लोग दूसरे देशों में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों से भी मदद लेते थे. उनका मानना था कि इटली और जापान जैसे देशों की तरह भारत को भी आजाद होना चाहिए. अनुशीलन समिति ने कई बड़े अंग्रेज अधिकारियों को मारने की कोशिश की. इनमें भारत के वाइसराय को मारने की कोशिश भी शामिल है. इस संगठन ने पहले विश्व युद्ध के दौरान भी अंग्रेजों के खिलाफ काम किया.

1920 के दशक में महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का असर अनुशीलन समिति पर भी पड़ा. इस वजह से संगठन ने हिंसा का रास्ता छोड़ना शुरू कर दिया. लेकिन, कुछ लोग ऐसे भी थे जो हिंसा करना नहीं छोड़े. इनमें से कुछ ने एक नया संगठन बनाया जिसका नाम था हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन. हालांकि, कुछ समय बाद1930 के दशक में अनुशीलन समिति फिर से हिंसक हो गई. इस दौरान उन्होंने काकोरी कांड और चिटगांग आर्मरी छापा जैसे बड़े हमले किए.

चाफेकर बंधुओं का बलिदान
साल 1897 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी जब पुणे में प्लेग नाम की भयंकर बीमारी फैल गई थी. यहां पुणे में एक बड़ी सैनिक छावनी थी जिसमें बहुत सारे अंग्रेज सिपाही, अधिकारी और उनके परिवार रहते थे. प्लेग की बीमारी को रोकने के लिए अंग्रेजों एक कमेटी बनाई गई जिसके मुखिया ब्रिटिश कमिश्नर डब्ल्यूसी रैंड थे. साथ ही कुछ अंग्रेज सिपाही भी शामिल थे.

रैंड ने आम जनता के साथ बहुत सख्ती. वह रात के समय भी लोगों के घरों में घुस जाता था और अगर किसी को प्लेग हुआ होता तो उसे जबरदस्ती ले जाता था. अगर किसी घर में कोई बीमार पड़ता या मर जाता तो घर के मालिक को इसकी जानकारी देनी पड़ती थी. बिना रजिस्टर कराए किसी की भी मौत नहीं हो सकती थी. मरे हुए लोगों को दफनाने के लिए खास जगहें बनाई गईं और दूसरी जगहों पर दफनाने पर पाबंदी लगा दी गई. अगर कोई इन नियमों को नहीं मानता था तो उस पर केस दर्ज किया जाता था.

रैंड के इन कदमों से लोग बहुत नाराज थे. आखिरकार दामोदर और बालकृष्ण नाम के चाफेकर बंधुओं ने 22 जून 1897 को रैंड की हत्या कर दी. इस घटना के बाद अंग्रेजों ने भी अपने तरीके बदलना शुरू कर दिए. इसके बाद चाफेकर बंधुओं और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया.

बंगाल का बंटवारा
साल 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया. उन्होंने कहा कि ऐसा करने से उनको राज चलाना आसान हो जाएगा. लेकिन असल में वे भारतीयों को कमजोर करना चाहते थे और उन्हें आपस में लड़वाना चाहते थे. इस फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध हुआ और क्रांतिकारी गतिविधियां बढ़ीं.

भारतीय लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा विरोध किया. इसी दौरान कुछ लोगों ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए गुप्त संगठन बनाए. इस दौरान अरबिंदो घोष और बारिंद्र कुमार घोष जैसे नेता उभरे. उन्होंने लोगों को अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार किया. इस तरह बंगाल का बंटवारा एक ऐसी घटना थी जिसने भारतीयों को एकजुट कर दिया और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की ताकत दी.

खुदीराम बोस का बलिदान
खुदीराम बोस एक भारतीय राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन का विरोध किया. मुजफ्फरपुर साजिश मामले में प्रफुल्ल चाकी के साथ उनकी भूमिका के कारण उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी. उन्होंने एक ब्रिटिश जज, मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड की हत्या की कोशिश की थी जिसके लिए उन्होंने जिस गाड़ी में उनका होने का संदेह था, उस पर बम फेंका था. हालांकि, किंग्सफोर्ड दूसरी गाड़ी में बैठे थे और बम फेंकने से दो अंग्रेजी महिलाओं की मौत हो गई.

प्रफुल्ल ने गिरफ्तारी से पहले खुद को गोली मार ली. उधर खुदीराम को गिरफ्तार किया गया और दो महिलाओं की हत्या के आरोप में उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसके बाद उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. वे बंगाल में ब्रिटिश द्वारा फांसी दिए जाने वाले पहले भारतीय क्रांतिकारियों में से एक थे. फांसी के समय खुदीराम की उम्र केवल 18 साल, 8 महीने, 8 दिन और 10 घंटे थी, जिससे वे भारत के दूसरे सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी बन गए.

दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र
दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाने वाला एक घटनाक्रम साल 1912 में हुआ था. उस समय भारत के सबसे बड़े अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड हार्डिंग को मारने की कोशिश की गई थी. यह योजना बंगाल और पंजाब में देश की आजादी के लिए लड़ने वाले गुप्त संगठनों ने बनाई थी. इनका नेतृत्व राश बिहारी बोस कर रहे थे.

साल 1912 में जब दिल्ली को भारत की राजधानी बनाया जा रहा था, तब एक बड़ा जुलूस निकाला गया. इसी दौरान बसंती कुमार बिस्वास नाम के एक युवक ने लॉर्ड हार्डिंग की गाड़ी पर बम फेंका. हालांकि लॉर्ड हार्डिंग बच गए.  लेकिन उनके पीछे जो आदमी छतरी पकड़ा हुआ था, उसकी मौत हो गई.

जब लॉर्ड हार्डिंग पर हमला हुआ तो सरकार ने बम फेंकने वाले को पकड़ने के लिए 10 हजार रुपये का इनाम रखा. उस वक्त किसी को नहीं पता था कि ये काम किसने किया है. इस घटना की जांच के बाद बहुत सारे लोगों को पकड़ा गया. इनमें लाला हनुमान साह, बसंती कुमार बिस्वास, भाई बाल मुकुंद, आमिर चंद और अवध बेरी शामिल थे. इन सब पर मुकदमा चलाया गया. लाला हनुमान साह को उम्रकैद की सजा हुई और बाकी चारों को फांसी की सजा सुनाई गई. बसंती कुमार बिस्वास को सबसे कम उम्र में फांसी दी गई. वो उस वक्त सिर्फ बीस साल के थे. 

गदर पार्टी और गदर विद्रोह
गदर पार्टी एक ऐसा संगठन था जिसकी शुरुआत अमेरिका और कनाडा में रहने वाले भारतीयों ने की थी. इन लोगों का मकसद भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराना था. जब पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ, तब गदर पार्टी के लोगों ने भारत में रहने वाले भारतीय सैनिकों को बगावत करने के लिए उकसाया. 

यह एक बहुत बड़ी योजना थी जिसमें कई देशों के भारतीय शामिल थे. ये लोग चाहते थे कि पूरे भारत में एक साथ बगावत हो जाए और अंग्रेज़ों का राज खत्म हो जाए. गदर पार्टी की योजना थी कि सबसे पहले पंजाब में बगावत शुरू की जाए, फिर बंगाल और बाकी भारत में भी विद्रोह कराया जाएगा। यहां तक कि सिंगापुर में रहने वाले भारतीय सैनिकों को भी इस बगावत में शामिल करने की योजना थी. 

लेकिन अंग्रेज़ों की खुफिया एजेंसी को इस योजना के बारे में पता चल गया. उन्होंने गदर पार्टी के लोगों को पकड़ने को कोशिश शुरू कर दी. आखिरकार, पंजाब में बगावत शुरू होने से पहले ही अंग्रेजों ने नाकाम कर दिया. कई लोगों को गिरफ्तार किया गया और कुछ को मौत की सजा भी दी गई. इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने भारत में कई नए कानून बनाए ताकि वो देश पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकें. फिर भी अंग्रेजों को डर था कि गदर पार्टी फिर से कोई बड़ी योजना बना सकती है. इसलिए उन्होंने रोलेट एक्ट बनाया, जिसके बाद जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ.

1857 से लेकर 1947 तक... भारत की आजादी के लिए कब-कब हुआ बलिदान

जालियांवाला बाग हत्याकांड
13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक भयानक घटना हुई. इस दिन बड़ी संख्या में लोग बड़ी शांतिपूर्वक बसाखी का त्योहार मनाने के लिए जलियांवाला बाग में इकट्ठा हुए थे. वे रोलेट एक्ट के विरोध में और आजादी की लड़ाई के नेता सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए भी एकत्र हुए थे.

इस भीड़ को देखकर ब्रिटिश सेना के एक अफसर जनरल रेजिनाल्ड डायर ने अपने सैनिकों को भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. जलियांवाला बाग का सिर्फ एक ही रास्ता था, जिससे लोग बाहर निकल सकते थे. बाकी तीन तरफ दीवारें थीं. जनरल डायर ने अपने सैनिकों से उस एक रास्ते को भी बंद कर दिया और फिर गोली चलाने का आदेश दिया. सैनिकों ने तब तक गोली चलाई जब तक उनके पास गोली खत्म नहीं हो गई. इस घटना में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हो गए.

इस हत्याकांड ने देश में व्यापक आक्रोश फैलाया और क्रांतिकारी आंदोलन को नई ताकत दी. कई नए क्रांतिकारी संगठन बने और पुराने संगठन फिर से एक्टिव हो गए. इस क्रूरता ने आजादी की मांग को और तेज कर दिया. ये घटना भारत के इतिहास में एक काला दिन है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता.

काकोरी कांड
काकोरी कांड एक डकैती की घटना थी, जो 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी गांव में हुई थी. इस कांड को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया था. डकैती की योजना को राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकल्ला खान ने बनाया था. बाद में यह संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन बन गया. इस संगठन का मकसद ब्रिटिश शासन को खत्म करना था.

हथियार खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी, इसलिए बिस्मिल और उनकी टीम ने ट्रेन लूटने की योजना बनाई. इस ट्रेन में सरकार के पैसे होते थे. कई लोगों ने मिलकर ट्रेन रोक दी और उसमें से पैसे लूट लिए. इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने बहुत सारे लोगों को पकड़ा और उनमें से कई को फांसी की सजा दी. 

Indian independence movement Freedom Fighters of India from 1857 To 1947 ABPP 1857 से लेकर 1947 तक... भारत की आजादी के लिए कब-कब हुआ बलिदान
काकोरी कांड एक डकैती की घटना थी, जो लखनऊ के पास काकोरी गांव में हुई थी

चंद्रशेखर आजाद: एक क्रांतिकारी
चंद्रशेखर आजाद, जिनका असली नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी था, एक बहुत ही बहादुर भारतीय क्रांतिकारी थे. जब राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथी क्रांतिकारी शहीद हो गए, तो आजाद ने उनके संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ को फिर से बनाया और इसका नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ कर दिया. आजाद ने अपनी पूरी जिंदगी देश की सेवा में लगा दी और अंत तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे.

आजाद ने 1925 में काकोरी ट्रेन डकैती, 1928 में लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए जॉन पी सॉन्डर्स की हत्या और 1929 में भारत के वायसराय की ट्रेन को उड़ाने की कोशिश जैसी बड़ी घटनाओं में हिस्सा लिया. अपने साथी शिव वर्मा से आजाद ने कार्ल मार्क्स की किताब ‘द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ पढ़ी. 

27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के पुलिस के सीआईडी प्रमुख को सूचना मिली कि आजाद अल्फ्रेड पार्क में हैं. यह खबर मिलते ही बॉवर इलाहाबाद पुलिस आजाद को गिरफ्तार करने पार्क पहुंच गए. पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया. कुछ कांस्टेबल डीएसपी ठाकुर विश्वेश्वर सिंह के साथ राइफल लेकर पार्क में घुस गए और गोलीबारी शुरू हो गई.

आजाद ने तीन पुलिसवालों को मार दिया लेकिन खुद भी बहुत जख्मी हो गए. उन्होंने सुखदेव राज को भागने के लिए कहा और उन्हें कवर फायर दिया. आजाद एक पेड़ के पीछे छिप गए और वहां से गोली चलाने लगे. पुलिस ने भी उन पर गोली चलाई. इस तरह, चंद्रशेखर आजाद ने अपनी जान की बाजी लगाकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ी.

भगत सिंह का बलिदान
साल 1928 में भगत सिंह और उनके साथी शिवराम राजगुरु ने एक बहुत बड़ी घटना को अंजाम दिया था. ये दोनों एक गुप्त संगठन से जुड़े थे जिसका नाम था हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन. उन्होंने लाहौर में एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की हत्या कर दी. लेकिन असल में उनका मकसद एक दूसरे अंग्रेज अधिकारी जेम्स स्कॉट को मारना था, लेकिन गलती से सांडर्स की हत्या हो गई.

असल में ये बदला लेने की कार्रवाई थी क्योंकि कुछ समय पहले एक भारतीय नेता लाला लाजपत राय पर अंग्रेजों ने लाठी चार्ज किया था जिससे उनकी मौत हो गई थी. भगत सिंह और उनके साथी इसी का बदला लेना चाहते थे. जब सांडर्स पुलिस स्टेशन से निकल रहे थे, तब राजगुरु ने उन पर गोली चलाई. इसके बाद भगत सिंह ने भी उन पर कई गोलियां चलाईं. 

भगत सिंह और उनके साथी हत्या करने के बाद भाग गए. उन्होंने अपने नाम बदल लिए और अखबारों में लिखवाया कि उन्होंने लाला लाजपत राय का बदला ले लिया है. उन्होंने ये भी बताया कि उनका मकसद जेम्स स्कॉट को मारना था, न कि जॉन सांडर्स को. भगत सिंह कई महीनों तक छिपे रहे. इस दौरान उन्हें पकड़ा नहीं जा सका. फिर अप्रैल 1929 में वो फिर से सामने आए. इस बार उन्होंने अपने एक साथी के साथ दिल्ली की विधानसभा में बम फेंका. उन्होंने वहां से पर्चे भी बांटे और नारे लगाए. इसके बाद उन्होंने सरेंडर कर दिया.

जब उन्हें पकड़ा गया तो लोगों को पता चला कि वो वही लोग हैं जिन्होंने जॉन सांडर्स की हत्या की थी. जेल में उन्होंने और उनके एक साथी ने भूख हड़ताल की. उनकी मांग थी कि भारतीय कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाए. इस दौरान उनके साथी की मौत हो गई. वहीं भगत सिंह को जॉन सांडर्स और चन्ना सिंह की हत्या का दोषी ठहराया गया और उन्हें मार्च 1931 में फांसी दे दी गई. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 23 साल थी.

सुभाष चंद्र बोस और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA)
आजाद हिंद फौज ने दूसरे विश्व युद्ध में जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी. इसका मकसद भारत को ब्रिटिश शासन से आजाद कराना था. इस सेना की शुरुआत 1942 में मोहन सिंह ने मलय अभियान और सिंगापुर में जापानियों की ओर से पकड़े गए ब्रिटिश भारतीय सेना के युद्धबंदी भारतीय सैनिकों से की थी.

यह पहली आजाद हिंद फौज रश बिहारी बोस और मोहन सिंह को सौंप दी गई थी, लेकिन बाद में इसका नेतृत्व करने वाले जापानी सेना से मतभेद हो गए और इसे दिसंबर में भंग कर दिया गया. फिर 1943 में जब सुभाष चंद्र बोस दक्षिण-पूर्व एशिया पहुंचे, तो उन्होंने इस सेना को फिर से जीवित किया. इस सेना को बोस की आजाद हिंद सरकार की सेना घोषित किया गया.

भारत छोड़ो आंदोलन
अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन में ज्यादातर लोग शांतिपूर्ण तरीके से ही लड़ाई लड़े, लेकिन कुछ लोगों ने गुप्त तरीके से भी अंग्रेजों का विरोध किया. अंग्रेजों ने इस आंदोलन को बहुत गंभीरता से लिया. उन्होंने बहुत सारे नेताओं को जेल में डाल दिया, जिनमें महात्मा गांधी भी थे. 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा दिया. वायसराय लिनलिथगो ने इस आंदोलन को 1857 के बाद से सबसे बड़ा विद्रोह बताया था.

इस आंदोलन में लोगों ने ब्रिटिश सरकार का बहिष्कार किया और सरकारी कामकाज में शामिल नहीं हुए. ब्रिटिश सरकार ने हजारों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और 1945 तक जेल में रखा. आखिरकार, ब्रिटिश सरकार को समझ में आ गया कि भारत को लंबे समय तक शासित नहीं किया जा सकता है और अब सवाल यह था कि कैसे शांतिपूर्ण तरीके से भारत से हटा जाए. यह आंदोलन 1945 में जेल से रिहा हुए स्वतंत्रता सेनानियों के साथ खत्म हुआ. इस आंदोलन के शहीदों में मुकुंद काकाती, मातंगिनी हजरा, कनक लता बारुआ, कुशल कोंवर, भोगेश्वरी फुकानी आदि शामिल हैं.

भारतीय नौसेना विद्रोह
साल 1946 में भारतीय नौसेना के जवानों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी. इस घटना को बॉम्बे विद्रोह भी कहते हैं. उस समय भारत पर अंग्रेजों का राज था और भारतीय नौसेना के जवानों को बहुत बुरा व्यवहार मिलता था. उनका खाना-पीना और रहने की जगह बहुत खराब थी.

इसलिए उन्होंने बॉम्बे, कराची और दूसरे शहरों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. हालांकि, अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचल दिया. लेकिन इससे साबित हो गया कि भारतीय अब अंग्रेजों की गुलामी नहीं चाहते थे और वो आजादी के लिए कुछ भी कर सकते थे. इस विद्रोह ने अंग्रेजों को ये भी समझा दिया कि अब उन्हें भारत छोड़ना ही पड़ेगा.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *