बेलगाम होती स्तरहीन बयानबाजी ??
बेलगाम होती स्तरहीन बयानबाजी, राजनीतिक दलों को दिखानी होगी परिपक्वता
अब तो संसद तक में स्तरहीन बयानबाजी हो रही है। इंटरनेट मीडिया के दौर में यह सियासी बदजुबानी मर्यादा के पार भी चली जाती है जिससे हमारी छवि अपरिपक्व लोकतंत्र की ही बनती है। अपरिपक्वता विरोधियों का हौसला बढ़ाती है देश की अखंड छवि को चोट पहुंचाती है जिससे अराजक तत्वों को हमले और मौजूदा व्यवस्था को तार-तार करने की प्रेरणा मिलती है।
…… संवैधानिक गणतंत्र के रूप में स्वाधीन भारत 75वें साल में प्रवेश कर चुका है और गत दिवस देश ने अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। इस गौरवपूर्ण यात्रा के बीच सवाल उठ रहा है कि क्या हम एक परिपक्व राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ रहे हैं? समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के चलते यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि हमें सुचिंतित राष्ट्र के रूप में लगातार आगे बढ़ना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों का जैसा व्यवहार दिख रहा है, जिस तरह की भाषा का वे इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे लगता नहीं कि राष्ट्र के लिए हम अब तक सुचिंतित और परिपक्व भूमिका निभाने को तैयार हैं। चुनावी अभियान में तो भाषाई मर्यादाएं तार-तार होती ही रही हैं।
चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने वाला राजनीतिक तंत्र जिस तरह चिंतन और सोच के स्तर पर निचले पायदान पर उतरा है, उसकी वजह से मान लिया गया है कि सियासी संग्राम में भाषाई परिपक्वता की कमी को अनदेखा करना चाहिए, लेकिन क्या व्यापक राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी चलताऊ और स्तरहीन रवैया अपनाया जाना चाहिए?
इस सवाल का कारण बना है, बांग्लादेश में शेख हसीना का तख्तापलट। बांग्लादेश के घटनाक्रम के बाद विपक्षी खेमे में मोदी सरकार के खिलाफ बदजुबानी की जैसे प्रतियोगिता चल निकली। इसमें सबसे खतरनाक बयान कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का रहा।
सलमान खुर्शीद ने कहा कि ‘जो बांग्लादेश में हो रहा है, वह भारत में भी हो सकता है।’ सलमान खुर्शीद न सिर्फ खानदानी नेता हैं, बल्कि विदेश मंत्री भी रह चुके हैं। इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि उन्हें कूटनीति की समझ नहीं है। सलमान खुर्शीद के बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
खुर्शीद ने एक तरह से देश की मौजूदा सरकार को बदलने के लिए बांग्लादेश जैसी अराजक राह सुझा दी है। वह भारत के मौजूदा सरकार विरोधी मानस को संदेश दे रहे हैं कि इसे भी इसी तरह हटाया जा सकता है। याद कीजिए मणिशंकर अय्यर को।
वह पाकिस्तान जाकर वहां के लोगों से मोदी को सत्ता से हटाने में सहयोग की मांग कर चुके हैं। सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने जो बयान दिया, वह भी राष्ट्र की सामूहिक भावना पर चोट करता है। उन्होंने कहा कि अपने तानाशाह को भी याद रखना चाहिए कि जनता ऐसे फैसला लेती है।
आप नेता संजय सिंह ने कहा कि जो तानाशाही करेगा, उसे देश छोड़कर जाना होगा। मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने बयान दिया कि बांग्लादेश की तरह भारत की जनता भी पीएम आवास और गृहमंत्री के आवास में घुसेगी। उद्धव ठाकरे के प्रमुख सिपहसालार संजय राउत ने कहा कि बांग्लादेश में जो हुआ, उससे देश के सत्ताधारी सबक लें।
फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि जैसा हाल हसीना का हुआ, हर तानाशाह का यही हाल होगा। कांग्रेस की प्रवक्ता रागिनी नायक तो मीम बनाकर प्रधानमंत्री मोदी को व्यंग्य में समझाने लगीं कि दोस्त यानी हसीना गईं, अब आप बचकर रहो। वह भूल गईं कि शेख हसीना प्रधानमंत्री मोदी की नहीं, भारत की दोस्त रही हैं। उन्हें लंबे वक्त तक शरण उनकी पार्टी की नेता इंदिरा गांधी ने भी दी थी। यह भी न भूलें कि हाल तक शेख हसीना नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों से भी गर्मजोशी से मिलती रहीं।
विपक्षी दलों का एक बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी को तानाशाह बताने का मौका नहीं छोड़ता। साथ ही उनके खिलाफ बदजुबानी करने का भी अवसर हाथ से जाने नहीं देता। सवाल उठता है कि क्या तानाशाह इतना नरम भी हो सकता है कि मंचों से खुलेआम उसकी कटु आलोचना हो, कई बार वह गाली में तब्दील हो जाए और फिर भी तानाशाह चुप रह जाए? ऐसा दुनिया में अब तक तो नहीं देखा गया है कि तानाशाह की लानत-मलामत की जाए, उसे अशोभनीय भाषा से निशाना बनाया जाए, फिर भी खुले में घूमा जाए, लेकिन भारत में ऐसा हो रहा है।
राष्ट्र के प्रतिनिधित्व की बात करें या प्रतीक की, केंद्रीय सत्ता को ही प्रतिनिधि या प्रतीक माना जाता है। लिहाजा अंतरराष्ट्रीय मामलों पर केंद्र सरकार की राय को ही राष्ट्र की राय माना जाता है। कुछ समय पहले तक अंतरराष्ट्रीय और कूटनीतिक मामलों पर समूचा देश एक जैसी राय रखता था। तब वह परिपक्व राष्ट्र के रूप में अपना भविष्य देखता था।
ऐसा नहीं कि पहले विपक्ष की राय हूबहू सरकारी राय से मिलती थी, लेकिन कम से कम वह इसे सार्वजनिक रूप से जाहिर करने से बचता था। कुछ मतभेद हुए भी तो उन्हें सीमाओं के अंदर ही दूर कर लिया गया, लेकिन राष्ट्र एक सुर में बोलता रहा, लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं।
कहा जा सकता है कि इसके लिए किंचित दोषी सत्ता पक्ष भी हो। इसके बावजूद होना तो यह चाहिए कि देश और लोकहित में राष्ट्रीय स्तर पर एक राय रखी जाए। अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान किया जाए, लेकिन अब तो जिम्मेदार लोग गालियां तक देने में संकोच नहीं कर रहे हैं। बांग्लादेश का मामला कोई पहला मौका नहीं है, जब सियासत की ओर से स्तरहीन बयानबाजी की गई हो। याद करें कि विनेश फोगाट को अयोग्य ठहरा दिए जाने पर कैसे बचकाने बयान दिए गए।
अब तो संसद तक में स्तरहीन बयानबाजी हो रही है। इंटरनेट मीडिया के दौर में यह सियासी बदजुबानी मर्यादा के पार भी चली जाती है, जिससे हमारी छवि अपरिपक्व लोकतंत्र की ही बनती है। अपरिपक्वता विरोधियों का हौसला बढ़ाती है, देश की अखंड छवि को चोट पहुंचाती है, जिससे अराजक तत्वों को हमले और मौजूदा व्यवस्था को तार-तार करने की प्रेरणा मिलती है। काश, हमारे राजनीतिक दल इसे समझ पाते और संजीदा लोकतांत्रिक समाज के रूप में आगे बढ़ने के लिए न सिर्फ खुद प्रेरित होते, बल्कि जनता को भी प्रेरणा देते।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)