जनता की सुनो अदालत वालो !

जनता की सुनो अदालत वालो !

देश में आम चुनाव होने तीन माह बाद आज पहली बार ‘ भारत बंद ‘है । ये ‘ बंद ‘ किसी सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि इस देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा दिए गए उस फैसले के खिलाफ है जो आरक्षण से जुड़ा है। शीर्ष अदालत के फैसले से असहमत देश के खिलाफ शीर्ष अदालत अवमानना का मुकदमा नहीं चला सकती ,क्योंकि देश व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्तियों का एक पुंज है। अब या तो शीर्ष अदालत देश की बात मानकर अपना फैसला रद्द करे या फिर सरकार इस फैसले को शून्य करने के लिए अपने और से कोई कदम उठाये।
आपको याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर को लेकर फैसला सुनाते हुए कहा था, ”सभी एससी और एसटी जातियां और जनजातियां एक समान वर्ग नहीं हैं। कुछ जातियां अधिक पिछड़ी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए – सीवर की सफाई और बुनकर का काम करने वाले। ये दोनों जातियां एससी में आती हैं, लेकिन इस जाति के लोग बाकियों से अधिक पिछड़े रहते हैं। इन लोगों के उत्थान के लिए राज्‍य सरकारें एससी-एसटी आरक्षण का वर्गीकरण (सब-क्लासिफिकेशन) कर अलग से कोटा निर्धारित कर सकती है। ऐसा करना संविधान के आर्टिकल-341 के खिलाफ नहीं है।
देशभर के दलित संगठनों ने 21 अगस्त को भारत बंद का एलान किया है। इनको बहुजन समाजवादी पार्टी ,इंडिया गठबंधन के अधिकांश सहयोगी दलों के अलावा कांग्रेस और भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद भारत आदिवासी पार्टी मोहन लात रोत का भी समर्थन मिल रहा है। साथ ही कांग्रेस समेत कुछ पार्टियों के नेता भी समर्थन में हैं।एक अकेली सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दल है जो इस फैसले के पक्ष में है यानि उसे देश की नहीं फैसले की चिंता है। भाजपा की बेफिक्री का ही परिणाम है की प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी देश को बंद होता छोड़कर पोलेंड और यूक्रेन की यात्रा पर निकल गए हैं। कोई 45 साल से भारत का कोई प्रधानमंत्री पोलेंड नहीं गया था । मोदी जी भी अपने दो कार्यकाल में एक बार भी पोलेंड नहीं गए। वे एक din रुक कर भी जाते तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं था।
दलित और आदिवासी संगठनों ने हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए मजबूत प्रतिनिधित्व और सुरक्षा की मांग को लेकर आयोजित किये गए ‘भारत बंद’ से माननीय सुप्रीम कोर्ट और माननीय केंद्र सरकार कितनी प्रभावित होगी ये कहना सम्भव नहीं है लेकिन इन दोनों को जन भावनाओं को समझना तो पडेगा ,क्योंकि यही एक ऐसा मुद्दा है जो कभी भी ज्वालामुखी की तरह फटता है । विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय भी फटा और बाद में भी। आरक्षण का मुद्दा जहाँ-जहाँ भी है ज्वलंत है वहां ज्वालामुखी फटने के खतरे बने ही रहते हैं। देश के अलग-अलग राज्यों में ये ज्वालामुखी समय-समय पर फटते ही रहते हैं। राजस्थान,महाराष्ट्र में तो ये ज्वालामुखी अभी भी सुलग रहे हैं। । पड़ौस के बांग्लादेश में इसी आरक्षण के मुद्दे पर तख्ता पलट हो गया।
नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन्स (एनएसीडीएओआर) ने मांगों की एक सूची जारी की है जिसमें अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए न्याय और समानता की मांग शामिल हैं। संगठन ने हाल में सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ द्वारा सुनाए गए फैसले के प्रति विपरीत दृष्टिकोण अपनाया है, जो उनके अनुसार, ऐतिहासिक इंदिरा साहनी मामले में नौ न्यायाधीशों की पीठ के उस फैसले को कमजोर करता है, जिसने देश में आरक्षण की रूपरेखा स्थापित की थी। एनएसीडीएओआर ने सरकार से अनुरोध किया है कि इस फैसले को खारिज किया जाए क्योंकि यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के संवैधानिक अधिकारों के लिए खतरा है। संगठन एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण पर संसद द्वारा एक नये कानून को पारित करने की भी मांग कर रहा है जिसे संविधान की नौवीं सूची में समावेश के साथ संरक्षित किया जा सके।
भारत बंद को मै जन संसद का ‘ध्यानकर्षण प्रयास मानता हूँ। जैसे देश की संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाये जाते हैं वैसे ही जब संसद और सरकार नहीं सुनती तब देश अपने आपको बंद कर ध्यानाकर्षण का प्रयास करता है । अब ये सरकार के ऊपर निर्भर करता है कि वो इस विरोध को तवज्जो दे या उसकी अनदेखी कर दे। कभी-कभी ‘ बंद ‘ असरकारी भी होता है और कभी-कभी ये टकराव की शक्ल भी ले लेता है। इस बंद का सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्या असर पडेगा अभी कहना कठिन है लेकिन इससे सरकार के आरक्षण को लेकर उग रहे उत्साह पर असर जरूर पड़ेगा । मुमकिन है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बरक्स कोई ऐसा रास्ता निकाल ले कि आरक्षण का सांप भी मर जाये और सरकार की लाठी भी न टूटे। सरकार ने हाल में दो निर्णयों में दो कदम पीछे हटकर ये संकेत तो दिए हैं कि फिलहाल उसके पास विपक्ष से टकराने की कूबत नहीं है।
मेरा मानना है कि देश में ऐसी नौबत कभी न आये की देश को बंद कर सरकार की आँखें खुलवाना पड़ें। सरकार को अपनी आँखें खुद खोलकर रखना चाहिए ,देश की सरकार के सामने ये पहला मौक़ा है जब वो अपनी कमजोरी के बाद सभी को साथ लेकर देश की सेवा कर सकती है ,लेकिन केंद्र के गृहमंत्री अमितशाह जिस तरिके से सत्ता में 35 साल बने रहने का दम्भ भरते हैं उसे देखकर लगता है कि बात कभी बनेगी नहीं ,क्योंकि भाजपा की ढपली से अलग ही राग निकलता है। यहाँ मिले -‘ सुर मेरा तुम्हारा हो ही नहीं सकता ।’

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