चुनाव बाद जम्मू कश्मीर में भी आमने-सामने होंगे LG और सरकार?
चुनाव बाद जम्मू कश्मीर में भी आमने-सामने होंगे LG और सरकार? कहीं ‘दिल्ली’ न बन जाए!
10 बरस बाद जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव होने जा रहा है. मगर ध्यान रहे एक राज्य के तौर पर जम्मू कश्मीर में चुनाव नहीं हो रहा. यह चुनाव एक ऐसे केंद्र शासित प्रदेश में हो रहा है जिसके एलजी को असीमित शक्तियां दे दी गई हैं. सवाल है कि कहीं ये चुनाव जम्मू कश्मीर में एक नई मुसीबत तो नहीं खड़ी करने जा रहा?
जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है. पिछले साल, 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद चुनाव की दिशा में कुछ कदम बढ़ा था. तब कोर्ट ने 30 सितंबर, 2024 से पहले चुनाव कराने का आदेश दिया था.
मगर यहां एक बारीक बात थी. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जल्द से जल्द चुनाव कराने को तो कहा. लेकिन चुनाव ‘राज्य की विधानसभा’ का कराना है या फिर ‘केन्द्र शासित प्रदेश की विधानसभा’ का, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साफ तौर पर नहीं कहा.
ऐसी महीन बात केंद्र सरकार ही पकड़ सकती थी. सो, वह जम्मू कश्मीर को बिना पूर्ण राज्य का दर्जा दिए चुनाव की तरफ ले निकली. अदालत के फैसले के करीब 8 महीने बाद इसी 16 अगस्त को चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया गया.
पार्ट 1ः चुनाव क्या देर आए, दुरुस्त आए?
दरअसल, पक्ष से लेकर विपक्ष तक के राजनीतिक दल, कुछ एक किंतु-परंतु के साथ चुनाव कराए जाने का स्वागत कर रहे हैं और इसे दुरुस्त भी बता रहे हैं. पर दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर नवनीता सी. बेहेरा जम्मू कश्मीर में कराए जा रहे चुनाव को पूरी तरह दुरुस्त नहीं मानती.
कश्मीर संघर्ष पर लंबा रिसर्च कर चुकीं और Demystifying Kashmir जैसी प्रतिष्ठित किताब लिखने वाली प्रोफेसर नवनीता के मुताबिक “जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराया जाना इस मायने में तो जरूर दुरुस्त लगता है कि वहां एक सरकार चुन ली जाएगी, जम्मू कश्मीर केंद्र के शासन के बजाय अपनी सरकार देखेगा. मगर असल मायने में यह दुरुस्त उस दिन माना जाएगा जब एक राज्य के तौर पर जम्मू कश्मीर में चुनाव होगा, न कि केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर.”
साथ ही, वह यह भी जोड़ती हैं कि – जम्मू कश्मीर में ये चुनाव किस तरह कराया जाता है, लोग इसमें किस हद तक अपनी भागीदारी निभाते हैं, राजनीतिक दल अकेले लड़ते हैं या फिर गठबंधन में, सरकार किस तरह बनती है, ये चीजें भी बहुत हद तक जम्मू कश्मीर का भविष्य तय करेंगी. खासकर, इस लिहाज से कि वहां लोकतंत्र सही मायने में बहाल हुआ या नहीं.
प्रोफेसर नवनीता ऐसा यूं ही नहीं कह रही हैं. इसके पीछे कुछ वजहें हैं. जिसमें सबसे अहम है जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का सवाल. और इसको लेकर अब भी महज आश्वासन. कोई नियत तारीख का दूर-दूर तक न होना.
हां, चुनाव के नतीजे की तारीख जरुर तय है – 4 अक्टूबर.
जाहिर सी बात है, इस दिन नई विधानसभा चुन ली जाएगी. लेकिन नई सरकार का जो मुखिया (CM – मुख्यमंत्री) होगा, उसका जो भी मंत्रिमंडल अस्तित्त्व में आएगा, उसके पास किस तरह की शक्तियां होंगी? चुनाव से ऐन पहले केंद्र की ओर से लिए गए फैसले और चुनाव के बाद की परिस्थितियां कहीं एक नई मुसीबत तो नहीं खड़ी करने जा रही?
पार्ट 2ः जो कुछ भी हो, 12 जुलाई याद आएगा!
आप पूछेंगे ऐसी आशंका क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि इसकी एक हल्की सी झलक हमें 12 जुलाई को प्रकाशित भारत सरकार के एक नोटिफिकेशन में दिखती है.
इस दिन गृह मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल (एलजी) को मिली प्रशासनिक शक्तियों को यकायक बढ़ा दिया. जिसका एक मतलब यह था कि विधानसभा चुनाव के बाद निर्वाचित होने वाली सरकार की शक्तियां सीमित हो गईं. और ज्यादातर प्रशासनिक ताकत उपराज्यपाल के पास चले गएं.
बात आगे बढ़े, उस से पहले उन शक्तियों पर एक नज़र जो पहले तो राज्य सरकार या उसके किसी विभाग के पास थीं, मगर अब वे उपराज्यपाल के नियंत्रण में होंगी –
-पुलिस से लेकर सिविल सेवा अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले चुनाव बाद भी उपराज्यपाल के पास होंगे. यानी पुलिस जैसा अहम महकमा चुनी हुई सरकार के नियंत्रण से बाहर होगा.
-केवल पुलिस ही नहीं बल्कि पब्लिक ऑर्डर (सार्वजनिक व्यवस्था – जिसका दायरा बहुत बड़ा होता है) और समवर्ती सूची (वैसे विषय जिस पर केन्द्र और राज्य, दोनों को कानून बनाने का अधिकार है) के विषयों पर जम्मू कश्मीर विधानसभा कानून नहीं बना सकेगी.
-जम्मू कश्मीर सरकार में मंत्री बनने वालों के अधिकार इस बिंदु से भी समझे जा सकते हैं कि मंत्रियों के कार्यक्रम या फिर उनके बैठकों के एजेंडे कम से कम दो दिन पहले उपराज्यपाल के कार्यालय को सौंपने होंगे.
-भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए बनी प्रदेश की ताकतवर एसीबी (एंटी करप्शन ब्यूरो), जम्मू कश्मीर फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी और जेल जैसे अहम विभाग उपराज्यपाल के पास होंगे.
-यहां तक की न्यायलयों में राज्य सरकार का पक्ष रखने वाला एडवोकेट जनरल, प्रदेश की न्याय व्यवस्था के लिए नियुक्त होने वाले कानून अधिकारियों के नामों पर भी आखिरी फैसला उपराज्यपाल का ही होगा.
-किसी मामले में मुकदमा चलाने की मंजूरी देने, या फिर उसे खारिज करने तक का अधिकार उपराज्यपाल को दे दिया गया है.
– केवल इतना भर नहीं. नई सरकार के पास किस तरह की राजनीतिक हैसियत होगी, इसका अंदाजा आपको जम्मू कश्मीर पुनर्गठन कानून की धारा 55 पर गौर करने पर मालूम हो जाएगा. इसके मुताबिक उपराज्यपाल के फैसले की समीक्षा जम्मू कश्मीर की चुनी गई मंत्रिमंडल नहीं कर सकती.
मगर असली नकेल इसके आगे कसी गई है. एक ओर तो उपराज्यपाल के फैसले की समीक्षा विधानसभा नहीं कर सकती लेकिन एलजी का प्रतिनिधि प्रदेश सरकार की सभी कैबिनेट मीटिंग में शामिल होगा.
यहीं से जम्मू कश्मीर में एक दूसरी कहानी शुरू हो जाती है. क्या आजाद भारत में हमने राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के स्तर पर ऐसी कोई सरकार देखी है जिसके कैबिनेट की मीटिंग में केंद्र का प्रतिनिधि बैठता हो? पहली नजर में तो ऐसी कोई मिसाल ढूंढे नहीं मिलती.
प्रोफेसर नवनीता बेहेरा भी ऐसा ही कुछ कहती हैं – “ये चीज तो बिल्कुल साफ कही जा सकती है कि जम्मू कश्मीर की चुने जानी वाली सरकार की शक्ति एक सामान्य केंद्र शासित प्रदेश (मसलन – दिल्ली, पुड्डुचेरी) से भी कम होने वाली है. वहीं, 12 जुलाई के नोटिफिकेश के बाद उपराज्यपाल को जो शक्तियां दे दी गई हैं, वह अपने आप में अभूतपूर्व है. दिल्ली के उपराज्यपाल को भी इस तरह की शक्तियां हासिल नहीं हैं, जहां उसका प्रतिनिधि कैबिनेट की मीटिंग में बैठे.”
दिलचस्प है यह भी जानना कि उपराज्यपाल की शक्ति को लेकर तो बहुत सी मालूमात उपलब्ध है. लेकिन राज्य की सरकार, मुख्यमंत्री के पास किस तरह की ताकत होगी, इसको लेकर अब भी बहुत स्पष्टता नहीं है. जो चीज साफ है, वह ये कि जम्मू कश्मीर असेंबली के पास पुलिस, पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर राज्य सूची के बाकी बचे विषयों (मसलन स्वास्थ्य, खेती, स्थानीय निकाय वगैरा-वगैरा) पर कानून बनाने का अख्तियार होगा.
पार्ट 3ः LG-CM में तकरार की आशंका?
अब यहीं ये सवाल उठता है कि निर्वाचित सरकार क्या सेहत और खेती-किसानी जैसे महकमों से सब्र कर लेगी या फिर वह अपने हिस्से की जोरआजमाइश करेगी? वहीं, जिस तरह की शक्तियों के आदि जम्मू कश्मीर के एलजी हो गए हैं, या यूं कहें कि एलजी के जरिये केंद्र हो गई है, क्या वह नई सरकार बन जाने के बाद भी पहले ही की तरह आसानी से अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर पाएगी?
दरअसल, दिसंबर 2018 ही से जम्मू कश्मीर में केंद्र अपने प्रतिनिधि (पहले राज्यपाल और अब उपराज्यपाल) के जरिये शासन कर रहा. पीडीपी की मुखिया महबूबा मुफ्ती और नेशनल कांफ्रेंस के सद्र उमर अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर विधानसभा को नगरपालिका में तब्दील करने की कोशिश, और मुख्यमंत्री के पद को महज रबर स्टैंप बना देने की चाल कहते रहे हैं.
कश्मीर की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों की दलील रही है कि अव्वल तो 370 को बेअसर किया जाना, राज्य को दो हिस्सों में बांटना, जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने वाले सभी फैसले असंवैधानिक थे. और कहां तो चुनाव से पहले जम्मू कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए था. मगर यहां तो एक ऐसी सरकार की पटकथा लिख दी गई जो एलजी के रहम-ओ-करम या यूं कहें कि मर्जी पर हिलेगा-डुलेगा.
वहीं, केंद्र सरकार या भाजपा के नेता मानते हैं कि कुछ भी अचानक नहीं हुआ है. यह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है और जम्मू कश्मीर की संवेदनशीलता को देखते हुए जरुरी है.
पक्ष-विपक्ष कुछ भी कहें, 12 जुलाई को उपराज्यपाल की शक्तियों को जिस तरह बढ़ाया गया है. कुछ भी हो, यक़ीनन, LG और CM – दोनों के लिए आगे की राह आसान तो नहीं रहने वाली है.
दिल्ली में ऐसी व्यवस्था से उपजने वाली तकरार हम देख चुके हैं, देखते रहते भी हैं. ऐसे में, यह आशंका लाजिम है कि कहीं चुनाव बाद जम्मू कश्मीर भी दिल्ली न बन जाए? जहां कदम-कदम पर LG और CM शक्तियों के बंटवारे या फिर उस पर दावे को लेकर लड़ते दिखाई दें?
हालांकि, प्रोफेसर बेहेरा इस तनातनी की आशंका को थोड़ा अलग तरह से देखती हैं.
उनका कहना है कि – एलजी और सरकार के बीच तनातनी की स्थिति वहीं है जहां दोनों के बीच मतभेद राजनीतिक हैं. चूंकि दिल्ली में आप की सरकार है, इसलिए तनाव है. अगर भाजपा की सरकार होती तो शायद हमें इस तरह की टकराहट देखने को नहीं मिलती. पुड्डुचेरी में ये इसलिए नहीं देखने को मिल रहा क्योंकि वहां की राजनीतिक परिस्थितियां, प्रतिद्वंदिता अलग तरह की है. वहीं, जहां तक जम्मू कश्मीर की बात है, अगर यहां ‘जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी’ और बीजेपी साथ आकर सरकार बनाते हैं, तो हो सकता है कि उपराज्यपाल के साथ उस कदर तनाव न दिखे. लेकिन अगर नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस या फिर पीडीपी किसी भी तरह सरकार में आते हैं तो एलजी से टकराव की पूरी स्थिति बनेगी.
बहरहाल, एक चीज और गौर करने वाली होगी. अब तक हम जम्मू कश्मीर में तकरार की स्थिति घाटी ही के चश्मे से देखते रहे हैं. मगर चुनाव के बाद एलजी और सरकार के बीच सत्ता के नए तरह के बंटवारे वाला अनुभव जम्मू के लिए भी बेहद नया होगा. प्रोफेसर बेहेरा भी कहती हैं कि – 370 को बेअसर करने के बाद जम्मू के लोगों की जो उम्मीद थी, पिछले 5 बरसों में उनका अनुभव उससे अलग रहा है. ये तजुर्बा चुनावी नतीजों में और फिर उसके बाद किस तरह तब्दील होगा, इस पर सबकी नजरें होंगी.
ये इसलिए भी क्योंकि न सिर्फ कश्मीर बल्कि जम्मू के नेता या राजनीतिक दल अब तक बिना किसी रोक-टोक के, बहुत हद तक स्वायत्त तरीके से अपने-अपने इलाके में शासन करते रहे हैं, और सत्ता का सुख भोगते रहे हैं. बदली हुई सियासत में ये लीडरान किस तरह पेश आएंगे, ये देखना रोचक होगा.
दिल्ली को तो इस तरह के ‘रंज-ओ-ग़म’ के साथ जीने की आदत हो गई है पर जम्मू और कश्मीर के लिए ये बिल्कुल नया होगा!