संकीर्ण स्वार्थों के लिए जाति का सहारा !
संकीर्ण स्वार्थों के लिए जाति का सहारा, लेकिन इससे हर ओर फैलती है नकारात्मकता
संविधान निर्माताओं के प्रति इससे बड़ा अनादर क्या हो सकता था कि संविधान के आमुख को ही बदल दिया जाए और उसमें वे शब्द डाले जाएं जिन्हें संविधान सभा में बहस के बाद अस्वीकृत कर दिया गया था। इस बदलाव के समय सारा विपक्ष जेल में था। डा.आंबेडकर के अनुयायी होने का दावा करने वाले इस अपमान को कैसे सहन कर रहे हैं?
लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति के लिए हर नागरिक को प्रयास करने का अधिकार है। अपेक्षा यह है कि इसके लिए जो भी तरीके और रणनीतियां अपनाई जाएं, वे लोकतंत्र और संविधान के दायरे में हों। यह तो कक्षा छह-सात का विद्यार्थी भी जानता है कि भारत का संविधान जाति प्रथा को पूरी तरह अस्वीकार करता है।
सामान्य नागरिक की अपेक्षा यही रहती है कि कोई भी दल ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा, जिसमें उसे जाति या वर्ग विशेष का सहारा लेना पड़े। संविधान निर्माता जानते थे कि इस प्रथा की जड़ें कितनी गहरी हैं, फिर भी उन्होंने जाति प्रथा उन्मूलन को स्वीकार किया, क्योंकि एक सशक्त राष्ट्र के स्वरूप लेने के लिए इसके उन्मूलन की आवश्यकता को वे समझते थे।
इस समय देश में जाति को लेकर हर प्रकार की चर्चा चल पड़ी है, जिसमें इसके उन्मूलन के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस समय संविधान बना, तब लोगों ने किन परिस्थितियों में जाति प्रथा उन्मूलन को आवश्यक समझा, कैसे अपने को उसके लिए तैयार किया, इसकी सबकी अपनी-अपनी समझ हो सकती है, मगर इसका पक्षधर होना इस युग में असंभव है।
जब भारत को आजादी मिली, तब मैं केवल चार वर्ष का था। समय के साथ आजादी, स्वतंत्रता, प्रजातंत्र और लोकतंत्र जैसे शब्दों और उनके अर्थ से परिचय होता गया। बहुत कुछ स्कूल और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों से सीखा। आज यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उस कठिन समय में भी देश में हर ओर सकारात्मकता थी। सभी एक-दूसरे के निकट आना चाहते थे।
देश के विभाजन और उसके कारणों को सामान्य नागरिक की तरह परिचित होकर जब उस समय की ओर निगाह डालता हूं तो ग्रामीण समाज की प्रौढ़ता और वैचारिक परिपक्वता के प्रति नतमस्तक ही हो सकता हूं। तब पारस्परिकता हर ओर दिखाई देती थी। जाति प्रथा प्रचलित थी, लेकिन लोगों को यह बात करते सुनता था कि जैसे जमींदारी समाप्त हुई, वैसे ही अब जाति प्रथा भी समाप्त हो जाएगी।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हर प्रांत और जाति से विद्यार्थी आते थे। बड़े-बड़े नेता भी आते थे। पंडित नेहरू राष्ट्र के दुलारे थे। लोहिया जी उनकी आना-पाई तक की विवेचना और आलोचना करते थे। हम सब आनंद से सुनते थे, लेकिन यह भी देखते थे कि कभी किसी के मुंह से स्तरहीन भाषा का प्रयोग नहीं हुआ।
संसद में बहस के जो समाचार छपते थे, उनमें देश के प्रति चिंता, समस्याओं पर अध्ययन-पश्चात तैयार किए भाषण, पारस्परिक आदर के साथ राजनीतिक दुर्भावना की पूर्ण अनुपस्थिति युवाओं को प्रभावित करती थी। आज हर ओर फैली नकारात्मकता को देखकर निराशा होती है। जिन अनगिनत लोगों ने ग्रामीण वातावरण में जाति प्रथा को देखा-परखा या जिया होगा, वे सहमत होंगे कि तब भी आपसी सहयोग, पारस्परिकता और सामाजिक भागीदारी उपस्थित थी।
स्थिति उतनी भयावह नहीं थी, जितनी आज के अनेक नेता अपने कुतर्क को संबल प्रदान करने के लिए बताते हैं। उसे सही दिशा देना उस समय अधिक आसान था। सभी जाति के बच्चों को यही सिखाया जाता था कि आयु में बड़े सभी वर्गों के लोगों को सम्मानसूचक ढंग से ही संबोधित करना है। सभी चाचा, काका या ताऊ ही थे।
उस समय अधिकांश का विश्वास था कि गांधी जी ने जो कुछ सिखाया है, उसकी पूरी समझ विकसित होने के बाद और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात जाति भेद स्वतः ही समाप्त हो जाएगा। ऐसे विचार उन लोगों के भी थे, जो साक्षर नहीं थे, लेकिन मानवीय गुणों से ओतप्रोत थे।
स्वतंत्रता संग्राम लोगों को जातियों में बांटकर नहीं लड़ा गया। नेताजी ने जो आजाद हिंद फौज बनाई, वह उन सभी सिद्धांतों का व्यावहारिक स्वरूप थी, जिसमें जाति, पंथ, भाषा या क्षेत्र जैसे किसी सोच का कोई स्थान नहीं था।
जिस जाति प्रथा उन्मूलन के लिए कितनों ने संकल्प लिया और जिससे मुक्ति के लिए गांधी, मदन मोहन मालवीय आदि ने अनेकानेक प्रयास किए, उसे केवल राजनीतिक स्वार्थ के लिए बनाए रखने के कितने ही प्रयास नेता दशकों से करते आ रहे हैं।
सामाजिक नकारात्मकता के बीज पिछले कुछ दशकों से लगातार बोए जा रहे हैं। 1960 में संसद को पहली बार देखकर मैं नतमस्तक हुआ था कि देश के लिए नेतृत्व का प्रवाह यहां से होता है और यहां ऐसे मनीषी बैठते हैं, जो अपने त्याग, तपस्या और बलिदान के लिए जाने जाते हैं। आज वहां अधिकांश सदस्य इसलिए जाने जाते हैं कि वे कितने वैभव के धनी हैं।
जब राजनीति में सोच सत्ता तक पहुंचने की लालसा से आच्छादित हो जाता है, तब व्यक्ति अप्रत्याशित निर्णय ले लेता है, जो देश के लिए तो निराशाजनक होते ही हैं, उसके लिए भी आत्मघाती सिद्ध होते हैं। 1975 का आपातकाल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उस संसद को याद करें, जिसने संविधान के आत्मा से छेड़छाड़ करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
संविधान निर्माताओं के प्रति इससे बड़ा अनादर क्या हो सकता था कि संविधान के आमुख को ही बदल दिया जाए और उसमें वे शब्द डाले जाएं, जिन्हें संविधान सभा में बहस के बाद अस्वीकृत कर दिया गया था। इस बदलाव के समय सारा विपक्ष जेल में था। डा.आंबेडकर के अनुयायी होने का दावा करने वाले इस अपमान को कैसे सहन कर रहे हैं?
जो नीति या निर्णय देश के भविष्य, भाईचारे, सामाजिक और पंथक सद्भाव को ध्यान में रखकर नहीं लिए जाते, वे देश के प्रति द्रोह ही हैं। जो लोग निजी या दलगत स्वार्थों के लिए जाति को प्रासंगिक बनाए रखने की किसी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष कोशिश में संलग्न हैं, वे निश्चित ही भारत के भविष्य से खेल रहे हैं। आखिर ये लोग अपने को गांधी का उत्तराधिकारी कैसे कह सकते हैं?
(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)