अगले महीने होने वाले चुनावी समर की रेखाएं खींची जा रही हैं, लेकिन जो तस्वीर उभर रही है, वह अस्पष्ट एवं भ्रमित करने वाली है। वर्ष 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से जम्मू-कश्मीर में स्थापित राजनीतिक प्रतिमान बिखर गया। लेकिन केंद्र के पांच साल के शासन और भाजपा के वैचारिक प्रयोगों के बाद भी इस क्षेत्र में कोई नई व्यवस्था नहीं बन पाई है।
यदि हाल में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान देखे गए रुझानों पर गौर करें, तो कई कारक मुख्यधारा की क्षेत्रीय पार्टियों-नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए स्थिति को बिगाड़ सकते हैं, और देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में भाजपा की सरकार बनाने की योजना को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। उनमें से एक कारक है, जेल में बंद अलगाववादी नेता इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) का मैदान में उतरना। इंजीनियर रशीद की बारामुला में शानदार जीत, जहां उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को हराया, ने उनकी नई पार्टी को घाटी में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया है। एआईपी ने अभी यह तय नहीं किया है कि वह कितनी सीटों पर लड़ेगी, लेकिन शुरुआती संकेत हैं कि वह कश्मीर की 47 सीटों में से 30-35 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है।
इंजीनियर रशीद के भाई शेख खुर्शीद ने शिक्षक की सरकारी नौकरी छोड़ दी है और वह चुनाव लड़ने का इरादा रखते हैं, जबकि उनका बेटा अबरार रशीद चुनाव प्रचार का नेतृत्व करेगा, जैसा कि उसने लोकसभा चुनाव में अपने पिता के लिए किया था। इंजीनियर रशीद ने खुद पैरोल के लिए अर्जी दी है, ताकि वह चुनाव में हिस्सा ले सकें। यदि एआईपी कश्मीरी युवाओं में लोकसभा चुनाव की तरह ही उत्साह पैदा करने में सफल हो जाती है, तो इससे लगभग निश्चित रूप से विधानसभा में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा और अलगाववादियों को राजनीतिक वैधता मिल जाएगी, जिससे कश्मीर में हालात पूरी तरह से बदल सकते हैं।
यह एक ऐसा परिदृश्य है, जिससे भाजपा चिंतित है। जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की उम्मीदों को तोड़ने के अलावा, इंजीनियर राशिद भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान यह उम्मीद की गई थी कि वह उमर अब्दुल्ला के वोटों में सेंध लगाएंगे और भाजपा के सहयोगी पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन के लिए बारामुला सीट जीतने का रास्ता साफ करेंगे। लेकिन इंजीनियर राशिद ने दोनों को हराकर भारी बहुमत से जीत हासिल की, जिससे उमर अब्दुल्ला को खत्म करने और उनकी जगह एक ‘मित्रवत’ सांसद को लाने की भाजपा की सुविचारित रणनीति पर पानी फिर गया। सज्जाद लोन तीसरे स्थान पर रहे।
बहरहाल, यह देखना अभी बाकी है कि एआईपी विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही उत्साह पैदा कर पाती है या नहीं, लेकिन भाजपा को समझना चाहिए कि उसने लोकसभा चुनाव के समय कश्मीर में लोकप्रिय मूड को पूरी तरह से गलत समझा। उसे गलत धारणाओं के आधार पर भविष्य की रणनीति नहीं बनानी चाहिए। भाजपा के लिए दुखद है कि जम्मू में भी स्थिति अनिश्चित है। जम्मू को भाजपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे पर बारीकी से नजर डालें, तो चिंताजनक तस्वीर नजर आती है। हालांकि भाजपा जम्मू की दोनों संसदीय सीटें जीतने में कामयाब रही, लेकिन विधानसभा क्षेत्रों में उसका प्रदर्शन उत्साहजनक नहीं है।
जम्मू में भाजपा की मुश्किलें विधानसभा उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची को तुरंत वापस लेने से स्पष्ट हैं। भाजपा ने पहले 44 नामों की सूची जारी की, लेकिन कुछ ही घंटों में उसे वापस ले लिया। दूसरी सूची में सिर्फ 15 नाम थे। जाहिर है, पुराने चेहरों को हटाकर उनकी जगह नए लोगों को लाने के फैसले के कारण पार्टी में विद्रोह की स्थिति बन गई है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में एकतरफा प्रयोगों से लोकसभा चुनाव में नुकसान उठाने के बाद भाजपा नेतृत्व अब कोई जोखिम लेना नहीं चाहता। विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए भाजपा को जम्मू की सभी 43 सीटों पर जीत हासिल करनी होगी, जो कि एक कठिन काम है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन तय कर लिया है। दोनों पार्टियां 83 सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ेंगी, जबकि पांच सीटों पर अलग-अलग अपने उम्मीदवार उतारेंगी। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस में गठबंधन के बाद तय हो गया है कि महबूबा मुफ्ती की पीडीपी अकेले चुनाव लड़ने के लिए मजबूर है, उसने अपना घोषणा पत्र भी जारी कर दिया है। भाजपा भी अकेले चुनाव लड़ने का इरादा रखती है। लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीत पाने के बाद पीडीपी का फिलहाल कोई भविष्य नहीं दिख रहा है।
हाल के वर्षों में उभरी अन्य पार्टियों की बात करें, तो वे धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। लोकसभा चुनाव में लोन की पार्टी के साथ ही एक अन्य पार्टी ‘अपनी पार्टी’ का प्रदर्शन भी खराब रहा, जिससे भाजपा को काफी उम्मीदें थीं। कांग्रेस के पूर्व दिग्गज गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी भी एक और विफल पार्टी है। लोकसभा चुनाव में इसके तीनों उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। चर्चा है कि कुछ वरिष्ठ नेता कांग्रेस में वापसी के लिए प्रयासरत हैं। इसी बिखरी पृष्ठभूमि में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इसके अलावा जम्मू पर मंडरा रहे आतंकी खतरे को भी जोड़ लें, जहां जून से अब तक नौ हमले हो चुके हैं, तो आगे की चुनौतियां विकट हैं। हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि चुनाव लड़ने वाली पार्टियां परिपक्वता और बुद्धिमत्ता के साथ चुनाव लड़ेंगी और विभाजनकारी राजनीति के जरिये जम्मू-कश्मीर को बर्बादी के कगार पर नहीं धकेलेंगी।