म्यांमार की शांति वार्ता की पेशकश और जटिल हालात में भारत और चीन की भूमिका !
परिदृश्य: म्यांमार की शांति वार्ता की पेशकश और जटिल हालात में भारत और चीन की भूमिका
म्यांमार में जातीय सशस्त्र समूहों को जुंटा की ओर से की गई शांति वार्ता की पेशकश दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापक भू-राजनीतिक परिदृश्य के लिए भी महत्वपूर्ण निहितार्थ रखती है। इन नाजुक हालात में भारत और चीन को क्षेत्रीय स्थिरता को कायम रखने के लिए सावधानीपूर्वक अपनी भूमिका का निर्वहन करना होगा।
पिछले करीब साढ़े तीन वर्षों से चले आ रहे गृहयुद्ध से बेहाल म्यांमार की सेना जुंटा द्वारा जातीय सशस्त्र समूहों को दिया गया शांति वार्ता का प्रस्ताव क्षेत्रीय स्थिरता, खासकर भारत के संदर्भ में काफी मायने रखता है। म्यांमार के साथ लगती 1643 किलोमीटर की सीमा पर स्थित मणिपुर खुद को नाजुक मोड़ पर पाता है। इन प्रस्तावित वार्ताओं के नतीजे या तो अधिक सुरक्षित और शांतिपूर्ण भविष्य का मार्ग प्रशस्त करेंगे या फिर मौजूदा संघर्ष को और आगे बढ़ा सकते हैं, जिसने ऐतिहासिक रूप से इस क्षेत्र को अस्थिर कर रखा है। अगर जुंटा के प्रस्ताव का परिणाम सुखद निकलता है, तो यह सभी के लिए बेहतर होगा। लेकिन, अगर प्रमुख समूह खुद को इस प्रक्रिया में उपेक्षित महसूस करते हैं, तो मणिपुर में अशांति और हिंसा बढ़ने की भी आशंका है। फिलहाल मणिपुर जिन संघर्षों से जूझ रहा है, उनकी जड़ें इसके विविध समुदायों के बीच स्वायत्तता और जातीय पहचान की निरंतर खोज में गहराई तक निहित हैं।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) जैसे संगठनों ने साझा सांस्कृतिक संबंधों और क्षेत्र के चुनौतीपूर्ण भूगोल का लाभ उठाते हुए सीमा पार जातीय गुटों के साथ जटिल गठबंधन स्थापित किए। इसके अतिरिक्त, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) और यूएनएलएफ जैसे समूह भी म्यांमार में सशस्त्र गुटों के साथ संबंध बनाकर रखते हैं। खासकर नगा और कुकी-चिन समुदायों के बीच का परिदृश्य जातीय संबद्धता को जटिल बनाता है। शांतिवार्ता के नतीजे या तो इन संबंधों को बाधित करेंगे या फिर समाधान का कोई रास्ता निकालेंगे।
एनएससीएन, पीएलए और यूएनएलएफ जैसे विद्रोही समूहों के म्यांमार के सशस्त्र समूहों के साथ स्थापित संबंधों की वजह से मणिपुर में अशांति रहती है। यदि शांति वार्ता सफल रहती है, तो इससे भारत-म्यांमार सीमा पर माहौल में स्थिरता कायम होगी। युद्धविराम या समझौता विद्रोहियों और हथियारों की आवाजाही को कम कर सकता है, जिससे भारत में विद्रोही समूहों को म्यांमार से मिल रहा समर्थन कमजोर हो सकता है। सीमा प्रबंधन में भारत और म्यांमार के बीच सहयोग बढ़ने से पूर्वोत्तर क्षेत्र में सुरक्षा मजबूत होगी। लेकिन अगर, संघर्ष के दौरान शांति वार्ता अटकती है या फिर सभी जातीय समूहों को इसमें शामिल करने में विफलता हाथ लगती है, तो शरणार्थियों और विद्रोहियों का भारत में प्रवेश बढ़ने के साथ ही कुकी और नगा समुदायों के बीच तनाव भी बढ़ सकता है। दरअसल, भारत का उत्तर-पूर्व क्षेत्र, विशेषकर मणिपुर, म्यांमार के बाहरी प्रभावों की वजह से अतिसंवेदनशील है। शांति वार्ता का भविष्य भारत की सीमा सुरक्षा, विद्रोही गतिविधियों और उग्रवाद विरोधी प्रयासों पर खासा असर डालेगा। यदि सफलतापूर्ण समझौता होता है, तो सीमा पार उग्रवाद के प्रबंधन में मजबूत सहयोग संभव हो सकता है, जबकि निरंतर अस्थिरता इन प्रयासों में बाधा बन सकती है। म्यांमार की स्थिरता में भारत के कूटनीतिक हित हैं, इसलिए वह सीमा पर जुंटा और जातीय समूह, दोनों के संपर्क में है। राजनयिक चैनलों का लाभ उठाते हुए भारत म्यांमार की सेना और जातीय समूहों के बीच संतुलन बनाते हुए शांतिपूर्ण समाधान को प्रोत्साहित कर सकता है।
दूसरी तरफ, क्षेत्र में पेचीदा संबंधों और रणनीतिक हितों को देखते हुए जुंटा की शांति वार्ता के चीन के लिए भी खासे निहितार्थ हैं। ऐतिहासिक रूप से, चीन ने म्यांमार की सीमा और विभिन्न जातीय सशस्त्र समूहों के साथ चीन-म्यांमार सीमा पर संतुलन बनाने का प्रयास किया है। इन शांति वार्ताओं में गतिशीलता म्यांमार में चीन की भूमिका और प्रभाव को नया आकार दे सकती है। चीन म्यांमार में कई जातीय सशस्त्र समूहों, विशेषकर उत्तरी क्षेत्र में, जैसे काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआईए), यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी (यूडब्ल्यूएसए), और शान स्टेट आर्मी के साथ संबंधों में विशेष संतुलन बनाकर रखता है। ये समूह चीन के साथ जातीय, आर्थिक और राजनीतिक रूप से गहराई से जुड़े हुए हैं, जिसकी वजह से बीजिंग दोहरी रणनीति लेकर चलता है, एक ओर सैन्य शासन का समर्थन करता है, तो दूसरी ओर अपने रणनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जातीय गुटों को भी साधकर रखता है। उत्तरी जातीय सशस्त्र समूह विशेषकर काचिन, शान और वा में व्यापक क्षेत्र को नियंत्रित करते हैं, अवैध धंधे में शामिल रहते हैं और चीनी सीमा के साथ अर्ध स्वायत्त क्षेत्र का संचालन करते हैं। ये समूह हथियार आपूर्ति और राजनीतिक समर्थन हासिल करने के लिए चीन पर भरोसा करते हुए सीमावर्ती क्षेत्रों में स्थिरता और म्यांमार के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच प्रदान करते हैं।
जुंटा की शांति वार्ता की पेशकश को संघर्ष को कम करने, शक्ति बढ़ाने और वैधता हासिल करने के रूप में भी देखा जा सकता है। 2021 के तख्तापलट के बाद से कई सशस्त्र प्रतिरोधों के साथ जातीय सशस्त्र समूहों ने जुंटा के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश की हैं। अगर ये वार्ताएं सफल होती हैं, तो इससे सापेक्ष स्थिरता के माहौल को बढ़ावा मिलेगा, जिनसे म्यांमार में चीनी निवेश और दूसरी परियोजनाओं को लाभ होगा। हालांकि, नतीजा जुंटा की पेशकश की वास्तविकता, जातीय समूहों की प्रतिक्रिया और जुंटा जिन रियायतों या स्वायत्तता पर बातचीत करने के लिए तैयार है, उन पर भी निर्भर करता है।
चीन ने इससे पहले भी म्यांमार में मध्यस्थता निभाई है, विशेषकर 2015 में सरकार और यूडब्ल्यूएसए के बीच समझौता कराकर। चीन म्यांमार में जातीय समूहों के साथ मिलकर वहां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी करता है। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) जैसी परियोजनाओं की सफलता के लिए चीन अपने हितों के अनुरूप सेना और जातीय समूहों के बीच समझौते को प्राथमिकता देगा। इसके अलावा चीन क्षेत्र में अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों, जैसे-भारत, जापान और अमेरिका के प्रभाव को कम करने के लिए म्यांमार में अपने रणनीतिक हितों को सर्वोपरि रखना चाहेगा। शांति वार्ता के लड़खड़ाने पर चीन की कई परियोजनाएं अटक जाएंगी और हिंसा बढ़ने पर उसके यहां शरणार्थियों का संकट भी पैदा होगा। अंत में म्यांमार के नाजुक हालात को देखते हुए भारत और चीन को रणनीतिक हितों की रक्षा के साथ ही क्षेत्रीय स्थिरता को कायम रखने के लिए सावधानीपूर्वक अपनी भूमिका का निर्वहन करना होगा। क्योंकि म्यांमार की शांति वार्ता के नतीजे न केवल म्यांमार की आंतरिक गतिशीलता के लिए, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापक भू-राजनीतिक परिदृश्य के लिए भी महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं।