मजदूरी करने वाले उसके पिता ने एक साहूकार से कर्ज लेने की भी सोची, लेकिन ऐन वक्त पर वह बदल गया। पिता राजेंद्र कुमार के दो मित्रों ने दस हजार और पांच हजार रुपये दिए। बैंक खाते में जो पैसे थे वे भी निकाले गए, लेकिन तब तक फीस देने की तारीख निकल चुकी थी।
इसके लिए अतुल और उसके परिजनों ने मद्रास हाईकोर्ट में भी अपील की, आईआईटी के अधिकारियों से भी संपर्क किया, मगर निराशा ही हाथ लगी। मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि बच्चे ने आईआईटी के प्रवेश में जो राहत मांगी है, वह हमारे न्यायिक क्षेत्र में नहीं आती।
अंत में अतुल और उसके परिजन उच्चतम न्यायालय तक आए। वहां न्यायाधीशों ने उनकी बात सुनी। और अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए फैसला दिया कि आईआईटी, धनबाद इस बच्चे को दाखिला दे। यदि कोई सीट खाली नहीं है, तो विशेष सीट का इंतजाम किया जाए। इसके लिए जो छात्र पहले से दाखिला पा चुके हैं, उनके लिए व्यवधान उत्पन्न न किया जाए। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अतुल को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दीं ऑल द बेस्ट भी कहा। अदालत ने आईआईटी के वकील को डांटा भी कि वह इस बच्चे के दाखिले का इतना विरोध क्यों कर रहे हैं।
अतुल ने अदालत से बाहर निकलते हुए कहा कि उसकी जो गाड़ी पटरी से उतर गई थी, वह वापस आ गई। एक बार फिर से उच्चतम न्यायालय ने यह साबित किया कि वहां गरीबों की सुनी जाती है और न्याय मिलता है। हालांकि यह भी सच है कि कितने साधनहीन लोग उच्चतम न्यायालय तक पहुंच सकते हैं। आखिर उन्हें पैसा और साधनों के अभाव में सफलता से वंचित क्यों किया जाना चाहिए? वैसे ही ऐसी परीक्षाओं में लाखों में से कुछ हजार को ही सफलता मिलती है। जिन्हें मिल गई, मगर साधनों का अभाव हो तो वे कहां जाएं?
गौर करने लायक बात यह भी है कि हर साल आईआईटी में सफलता प्राप्त करने के लिए लाखों विद्यार्थी भाग्य आजमाते हैं। इनमें से ज्यादातर महंगे कोचिंग संस्थानों से कोचिंग लेते हैं, लाखों रुपये भी खर्च होते हैं, फिर भी बहुतों को सफलता नहीं मिलती, जबकि इस बच्चे ने सारी तैयारी खुद ही की। जब फीस के पैसे ही नहीं थे, तो महंगी कोचिंग की कौन कहे। फिर भी सफलता मिली। सोचें कि अगर उच्चतम न्यायालय इस बच्चे के पक्ष में फैसला न देता, तो जीवन भर इस बच्चे को यह दुख सालता। अपने देश में ऐसे अनेक बच्चे होंगे, जो पूरी मेहनत के बावजूद साधनों के अभाव के कारण पीछे रह जाते हैं। इनमें हर जाति, धर्म के बच्चे हो सकते हैं। उन्हें कस्बे-कस्बे, गांव-गांव देखा भी जा सकता है। आखिर इन बच्चों की मदद कैसे की जाए। क्यों नहीं सरकारें जनभागीदारी करके ऐसे प्रतिभावान छात्र-छात्राओं के लिए फंड बनातीं, ताकि ऐसे किसी भी गरीब बच्चे को लाभ मिल सके। गरीबी और साधनहीनता दूर करने का भी यह एक अच्छा तरीका हो सकता है।
अपने देश में ऐसे धनकुबेरों की भी कमी नहीं है, जिनके लिए इस तरह के फंड बनाना कोई मुश्किल काम हो। इस तरह गरीबों की मदद किसी फोर्ब्स पत्रिका की लिस्ट में आकर महत्व पाने के बराबर ही है। कंपनियां अपने-अपने सीएसआर के जरिये भी ऐसा कर सकती हैं, ताकि अतुल और उस जैसे बच्चे पीछे न रह जाएं।
हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। आवश्यकता उन्हें पहचानने और वक्त पर उनकी मदद करने की है। और यदि समय पर पता चल जाए, तो बहुत से लोग अपनी तरफ से मदद का हाथ भी बढ़ाते हैं, जैसा कि अतुल के मामले में हुआ। मीडिया ने भी उसकी खबर को खूब छापा। दूसरे बच्चों की खबरें भी सामने आएं, तो क्या पता, उनका भविष्य भी बन जाए। न्यायालय में एक वरिष्ठ वकील ने अतुल की फीस देने के लिए भी कहा। उसके पिता के अनुसार बहुत से लोगों ने उनसे संपर्क किया और मदद की पेशकश की। समाज को अपने आसपास के प्रतिभावन विद्यार्थियों की पहचान कर उनकी मदद करनी चाहिए।