‘एक देश एक चुनाव’ में केंद्र ही अपनी ओर से पहल करे !

एक देश एक चुनाव’ में केंद्र ही अपनी ओर से पहल करे

अगर चुनाव लोकतंत्र का त्योहार हैं तो ज्यादातर त्योहारों की तरह उन्हें भी निश्चित समय पर होना चाहिए। दिवाली, दुर्गा पूजा या क्रिसमस का उत्साह उनकी निश्चितता में निहित है। वे हर साल, एक ही तारीख पर या उसके आसपास होते हैं।

‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा को मंजूरी देने वाला कैबिनेट प्रस्ताव- यह कि पांच साल में एक बार केंद्र और सभी राज्य सरकारों के चुनाव एक साथ कराए जाएं- इसी विचार को सामने रखता है। जिस तरह कोई भी व्यक्ति हर कुछ महीनों में आने वाले त्योहारों को लेकर उत्साहित नहीं हो सकता, उसी तरह बार-बार होने वाले चुनाव भी मतदाताओं के लिए थकान पैदा करते हैं।

अकादमिक अध्ययनों से भी यह स्पष्ट होता है कि जब चुनाव एक साथ होते हैं, तो मतदान-प्रतिशत अधिक रहता है। 1971 से 2004 के बीच हुए 260 चुनावों का अध्ययन करने वाले एक शोध-पत्र ने दर्शाया है कि जब केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ हुए थे, तो मतदान-प्रतिशत औसतन 9.94% अधिक था।

एक साथ चुनावों के बारे में संदेह जताने के पीछे यह धारणा है कि इससे भाजपा को लाभ होगा, जो केंद्र में प्रमुख राजनीतिक ताकत है। लेकिन अध्ययनों से इसकी पुष्टि नहीं होती।

यूरोप में 2900 क्षेत्रीय चुनावों को कवर करने वाले शेकेल व जेफरी के शोध-पत्र में लेखक बताते हैं कि मतदाता एक साथ होने वाले चुनावों में राष्ट्रीय दलों के पक्ष में तभी मतदान करते हैं, जब मजबूत क्षेत्रीय दल नहीं होते। जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां इससे उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा का अवसर मिलता है। ऐसे में एक देश एक चुनाव की पद्धति क्षेत्रीय दलों के लिए अधिक राष्ट्रीय प्रासंगिकता हासिल करने का जरिया भी हो सकती है।

लोग चाहे जैसे वोट करें, यह सच है कि एक देश एक चुनाव भारत के चुनावी परिदृश्य में एक उल्लेखनीय बदलाव है। कई लोग यह डर जता रहे हैं कि इससे संघवाद की संरचना प्रभावित होगी। संविधान इस बारे में कुछ नहीं कहता कि चुनाव कब होने चाहिए।

ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान निर्माताओं का यह मौलिक और स्पष्ट विश्वास है कि सभी चुनाव एक साथ ही होंगे, जैसा कि 1967 तक होता था। बारी-बारी से चुनाव एक अपवाद थे। आज जब अपवाद ने नियम को निगल लिया है, तो यह दावा करना ठीक नहीं है कि संविधान अपवाद को मंजूरी देता है। संवैधानिक चुप्पी को लाइसेंस नहीं माना जा सकता।

कोविंद समिति द्वारा मध्यावधि चुनाव के बाद चुनी गई किसी भी सरकार के कार्यकाल को शेष पांच साल (नए पांच साल के बजाय) तक कम करने के प्रस्ताव के बारे में दो विचार हो सकते हैं। इससे कई और चुनाव हो सकते हैं और बहुत खर्च हो सकता है। चूंकि यही नियम केंद्र और राज्यों पर लागू होता है, इसलिए संघवाद पर इसका प्रभाव पड़ने का सवाल नहीं उठता।

हालांकि, इसके क्रियान्वयन में आने वाली लॉजिस्टि​क्स की चुनौतियों पर जताई चिंताएं जायज हैं। कोविंद प्रस्ताव में इतना ही कहा गया है कि अगली लोकसभा की पहली बैठक (वर्तमान में जून-जुलाई 2029 के लिए निर्धारित) से ठीक पांच साल बाद, सभी राज्य विधानसभाएं और संसद भंग हो जाएंगी।

वर्तमान अनुमानों के अनुसार, यह जून 2034 में निर्धारित है। उस तारीख तक, कर्नाटक और मध्य प्रदेश की विधानसभाएं लगभग 1 वर्ष, यूपी और पंजाब की 2 वर्ष, बंगाल और तमिलनाडु की 3 वर्ष पूरे कर चुकी होंगी। यह इन सरकारों के कार्यकाल में उल्लेखनीय कमी दर्शाता है। ऐसे में ये राज्य अगर इस प्रस्ताव की आलोचना करते हैं तो यह समझा जा सकता है। एक देश एक चुनाव को मंजूरी देना सैद्धांतिक रूप से कैबिनेट का सही निर्णय था।

लेकिन इसे लागू करने में भी केंद्र को भूमिका निभाने की जरूरत है। केवल राज्यों से ही नुकसान झेलने की उम्मीद करने के बजाय, केंद्र को अपनी बात पर अमल करना चाहिए और वर्तमान लोकसभा को 2028 में, समय से एक साल पहले भंग कर देना चाहिए। इसका मतलब यह होगा कि 10 राज्य-विधानसभाओं (जो 2028 में अलग-अलग समय पर समाप्त होने वाली हैं) का कार्यकाल बहुत नहीं घटाना पड़ेगा।

संसद द्वारा पहला बलिदान देने और अपने कार्यकाल को घटाकर 4 साल करने के बाद राज्य यह दावा करने का नैतिक आधार खो देंगे कि उनके साथ भेदभाव किया गया है। इससे आम सहमति बनने की भी संभावना है। सभी त्योहारों की तरह सरकार को इसका नेतृत्व करना चाहिए। तभी भारतीय लोकतंत्र का संयुक्त परिवार कलह बंद करेगा और सभी इस त्योहार के लिए पूरी सज-धज के साथ सामने आएंगे।

  • संसद द्वारा पहला बलिदान देने और अपने कार्यकाल को घटाकर 4 साल करने के बाद राज्य यह दावा करने का नैतिक आधार खो देंगे कि उनके साथ भेदभाव किया गया है। इससे आम सहमति बनने की भी संभावना है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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