फीस देने में खप रहे हैं माता-पिता, स्कूल-कॉलेजों की हो रही मोटी कमाई ?

फीस देने में खप रहे हैं माता-पिता, स्कूल-कॉलेजों की हो रही मोटी कमाई

भारत में बच्चों की पढ़ाई का खर्चा आसमान छू रहा है. स्कूल-कॉलेजों की फीस इतनी बढ़ गई है कि माता-पिता के पसीने छूट रहे हैं. एक तरफ महंगाई की मार, दूसरी तरफ बच्चों की पढ़ाई का खर्चा.

पहले के जमाने में पढ़ाई करना हर किसी के बस की बात नहीं थी. सिर्फ कुछ ही लोग पढ़ पाते थे, वो भी गुरुकुल में जाकर. वहां वेद, युद्ध कला, धर्म और आयुर्वेद जैसी चीजें सिखाई जाती थीं. नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय पूरी दुनिया में मशहूर थे.

फिर अंग्रेजों के आने से पढ़ाई का तरीका ही बदल गया. 21वीं सदी में तो पढ़ाई और भी महंगी हो गई है. लेकिन माता-पिता बच्चों की पढ़ाई के लिए किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करना चाहते. वो चाहते हैं कि उनके बच्चों को अच्छी पढ़ाई मिले, लेकिन महंगी फीस उनके लिए एक बड़ी समस्या बन गई है.

CRISIL की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल के अंत तक स्कूल-कॉलेजों को फीस के नाम पर मोटा मुनाफा होने वाला है. उनकी कमाई 12-14% बढ़ने का अनुमान है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि स्कूल-कॉलेजों में बच्चों की संख्या बढ़ रही है और फीस भी बढ़ाई जा रही है. नए-नए कोर्स भी शुरू हो रहे हैं, जिनमें एडमिशन लेने के लिए बच्चे टूट पड़ रहे हैं. पिछले तीन सालों से तो स्कूल-कॉलेज जमकर पैसा कमा ही रहे थे, लेकिन इस साल तो और भी मालामाल हो जाएंगे.

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स्कूल-कॉलेज ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए फीस बढ़ा रहे 

भले ही टीचरों की सैलरी और नए कोर्स का खर्चा बढ़ रहा है, लेकिन ज्यादा बच्चों के एडमिशन लेने से स्कूल-कॉलेजों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा. उनका मुनाफा तो 28% के आसपास ही रहेगा. CRISIL ने 96 स्कूल-कॉलेजों का एनालिसिस किया है, जो कुल मिलाकर 20,000 करोड़ रुपये की फीस वसूलते हैं. इससे पता चलता है कि स्कूल-कॉलेज अच्छी आर्थिक स्थिति में हैं.

स्कूल-कॉलेजों को कर्ज लेने की जरूरत नहीं
भले ही स्कूल-कॉलेज फीस बढ़ा रहे हैं लेकिन उन्हें ज्यादा पैसे की जरूरत नहीं है. क्योंकि पिछले कुछ सालों से उन्हें फीस का पैसा 45-50 दिनों के अंदर ही मिल जाता है. इस साल तो उनकी आर्थिक स्थिति और भी मजबूत होने वाली है.

CRISIL के एसोसिएट डायरेक्टर नागार्जुन अलापर्थी का कहना है कि स्कूल-कॉलेज इतना पैसा कमा रहे हैं कि पिछले साल उन्होंने अपने इंफ्रास्ट्रक्चर पर जमकर खर्च किया था. इस साल भी वो अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए जमीन और इंफ्रास्ट्रक्चर पर काफी पैसा खर्च करेंगे और नए-नए कोर्स भी शुरू करेंगे. लेकिन चिंता की कोई बात नहीं, क्योंकि उनके पास पहले से ही काफी पैसा है और उन्हें कर्ज लेने की जरूरत नहीं है.”

फीस देने में खप रहे हैं माता-पिता, स्कूल-कॉलेजों की हो रही मोटी कमाई

स्कूलों में एडमिशन क्यों बढ़ रहे हैं?
स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ने के कई कारण हैं. सबसे पहला और साफ कारण है देश की बढ़ती जनसंख्या. ज्यादा बच्चे मतलब स्कूलों में ज्यादा एडमिशन. दूसरा आजकल माता-पिता पढ़ाई को लेकर काफी जागरूक हो गए हैं. उन्हें पता है कि अच्छी पढ़ाई से ही बच्चों का भविष्य बन सकता है. सभी पेरेंट्स अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी पढ़ाई कराना चाहते हैं. इसलिए अच्छे स्कूलों में एडमिशन के लिए रेस लगी रहती है. लोगों की आमदनी बढ़ रही है, तो वो बच्चों की पढ़ाई पर भी ज्यादा खर्च कर पा रहे हैं.

CRISIL रेटिंग्स के डायरेक्टर हिमांक शर्मा का कहना है कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में कंप्यूटर साइंस कोर्स में अभी भी काफी बच्चे एडमिशन ले रहे हैं, हालांकि नौकरी मिलने में थोड़ी दिक्कत हो रही है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा साइंस और मशीन लर्निंग जैसे नए कोर्स भी काफी पॉपुलर हो रहे हैं. 2025 में इन फील्ड में नौकरियां ज्यादा मिलने की उम्मीद है जिससे इन कोर्स में एडमिशन और भी बढ़ेंगे. मेडिकल कॉलेज और स्कूलों में भी एडमिशन बढ़ रहे हैं. इसलिए स्कूल-कॉलेज हर साल फीस बढ़ा रहे हैं और इस साल उनकी कमाई 12-14% तक बढ़ सकती है.

आखिर पढ़ाई इतनी महंगी क्यों हो रही है?
सबसे बड़ा कारण तो महंगाई ही है. जब हर चीज के दाम बढ़ रहे हैं, तो पढ़ाई का खर्चा भी बढ़ रहा है. बैंक बाजार की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ सालों में चीजों के दाम 5-5.6% बढ़े हैं, लेकिन पढ़ाई का खर्चा 8-10% की रफ्तार से बढ़ रहा है. मतलब, हर 6-7 साल में पढ़ाई का खर्चा दोगुना हो जाता है.

आजकल शिक्षा को भी एक बिजनेस की तरह देखा जाने लगा है. स्कूल-कॉलेज ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए फीस बढ़ा रहे हैं. इससे पढ़ाई का खर्चा आसमान छू रहा है. स्कूल-कॉलेजों में पहले से ज्यादा सुविधाएं दी जा रही हैं, जैसे अच्छी बिल्डिंग, कंप्यूटर लैब, लाइब्रेरी, खेल का मैदान, एक्टिविटीज आदि. इन सब चीजों के लिए पैसा फीस के जरिए ही आता है. 

अच्छे टीचरों को अच्छी सैलरी देनी पड़ती है. इससे भी स्कूल-कॉलेजों का खर्चा बढ़ता है और उन्हें फीस बढ़ानी पड़ती है. नए-नए कोर्स शुरू हो रहे हैं और पढ़ाई में टेक्नोलॉजी का भी इस्तेमाल बढ़ रहा है. इन सब चीजों के लिए भी पैसा चाहिए होता है.

फीस बढ़ी, लेकिन कीमत किसकी?
स्कूल-कॉलेजों की कमाई बढ़ रही है, लेकिन इसका खामियाजा माता-पिता को भुगतना पड़ता है. फीस बढ़ने से सबसे ज्यादा असर माता-पिता की जेब पर पड़ता है. उन्हें अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करना पड़ता है. कई बार तो उन्हें कर्ज भी लेना पड़ जाता है. फीस बढ़ने से बच्चों पर भी दबाव बढ़ता है. उन्हें लगता है कि उनके पेरेंट्स उनकी पढ़ाई के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं, तो उन्हें भी अच्छे नंबर लाने ही होंगे. इससे उनके मन पर एक अलग ही बोझ आ जाता है.

फीस बढ़ने का सामाजिक असर भी होता है. फीस बढ़ने से शिक्षा में असमानता बढ़ती है. जिनके पास पैसा है, वो अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेज सकते हैं, लेकिन कम आय वाले लोगों के बच्चों को सस्ते और कम सुविधाओं वाले स्कूलों में ही पढ़ना पड़ता है. 

फीस देने में खप रहे हैं माता-पिता, स्कूल-कॉलेजों की हो रही मोटी कमाई

कितने प्रतिशत बच्चे जाते हैं कॉलेज?
सरकार चाहती है कि साल 2035 तक 50% बच्चे कॉलेज जाएं, जबकि अभी यह आंकड़ा 30% से भी कम है. इसके लिए सरकार नए कॉलेज खोलने के साथ-साथ पुराने कॉलेजों को भी बड़ा और बेहतर बनाने पर काम कर रही है. वहीं इस साल स्कूल-कॉलेजों में सीटें भरने का रेट 86-87% तक पहुंच सकता है, जो पिछले साल 85% था. मतलब, पहले से ज्यादा बच्चे एडमिशन लेंगे.

2021 में नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च से पता चला है कि ज्यादातर माता-पिता तो यह मानते हैं कि अच्छी पढ़ाई से ही बच्चों का भविष्य बन सकता है, लेकिन उन्हें पढ़ाई का खर्चा उठाना मुश्किल हो रहा है. करीब 60% माता-पिता ने कहा कि प्राइवेट स्कूल फीस के नाम पर बहुत ज्यादा पैसे ले रहे हैं, जबकि पढ़ाई उतनी अच्छी नहीं है.

पढ़ाई का खर्चा: कहीं ज्यादा, कहीं कम!
पढ़ाई का खर्चा हर जगह एक जैसा नहीं है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे अमीर राज्यों में तो फीस बहुत तेजी से बढ़ रही है. बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा जैसे गरीब राज्यों में फीस उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही. 

महाराष्ट्र में खासकर मुंबई और पुणे जैसे शहरों में इंजीनियरिंग कोर्स की फीस पिछले 10 सालों में 70% तक बढ़ गई है. ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य सरकार प्राइवेट कॉलेजों को बढ़ावा दे रही है. कर्नाटक में भी फीस काफी बढ़ी है. 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्राइवेट कॉलेजों में प्रोफेशनल कोर्स की फीस पिछले 10 सालों में 60% तक बढ़ गई है.

KG से लेकर कॉलेज तक कितना आता है खर्चा?
प्ले स्कूल के लिए प्राइवेट स्कूल भी हैं और सरकारी आंगनवाड़ी भी. जो लोग ज्यादा फीस नहीं दे सकते, वो अपने बच्चों को आंगनवाड़ी भेज सकते हैं. प्ले स्कूल की फीस 5000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये साल तक हो सकती है.

पहली से आठवीं तक की पढ़ाई प्राइमरी स्कूल में होती है. इसकी फीस 20,000 रुपये से लेकर 1 लाख रुपये साल तक हो सकती है. नौवीं से तो पढ़ाई का खर्चा और भी बढ़ जाता है. नौवीं और दसवीं की फीस 80,000 रुपये से लेकर 1.5 लाख रुपये साल तक हो सकती है. 11वीं और 12वीं में तो फीस और भी ज्यादा हो जाती है. यह 20,000 रुपये से लेकर 3 लाख रुपये साल तक हो सकती है, जो कि सब्जेक्ट पर भी निर्भर करता है. 

वहीं कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा इस बात पर निर्भर करती है कि आप कौन सा कॉलेज चुनते हैं और वो कहां है. सरकारी कॉलेज तो सस्ते होते हैं, लेकिन प्राइवेट कॉलेजों की फीस बहुत ज्यादा होती है. चार साल के डिग्री कोर्स के लिए 16 लाख रुपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं. अगर 6% की रफ्तार से महंगाई बढ़ती रही, तो अगले 15 सालों में यही कोर्स 40 लाख रुपये हो सकती है.

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बच्चा स्कूल न जाए इसलिए दे रहे एक्स्ट्रा रुपए …
 बिना क्लास छात्र होता पास, इंजीनियरिंग-मेडिकल की कोचिंग के लिए पनपे डमी स्कूल
नई दिल्ली1 वर्ष पहले
 

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हाल ही में कहा था कि सरकार इस दिशा में काम कर रही है कि छात्रों को कोचिंग लेने की जरूरत ही न पड़े। इसी सिलसिले में शिक्षा मंत्री ने ये भी कहा कि डमी स्कूलों की भी अनदेखी नहीं जा सकती।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो डमी स्कूलों को फर्जी स्कूल करार दे दिया। उन्होंने कहा, जैसे ही ये बच्चे कोचिंग सेंटरों में आते हैं उन्हें फर्जी स्कूल (डमी स्कूल) में डाल दिया जाता है। इसमें केवल कोचिंग सेंटरों की गलती नहीं हैं, इसके लिए पेरेंट्स भी उतने ही जिम्मेदार हैं।

वहीं दिल्ली हाई कोर्ट में डमी स्कूलों के खिलाफ दाखिल याचिका भी चर्चा में रही। इस याचिका में कहा गया है कि सीबीएसई मान्यता प्राप्त स्कूल 11वीं और 12वीं के स्टूडेंट्स को ‘डमी स्कूलिंग’ करा रहे हैं।

यह न केवल शिक्षा के नियमों के खिलाफ है बल्कि सीबीएसई के 75% अटेंडेंस के नियम का भी सीधे-सीधे उल्लंघन है। सीबीएसई मान्यता प्राप्त स्कूल कोचिंग सेंटरों से मोटी रकम लेकर ऐसा कर रहे हैं। ऐसे डमी स्कूलों की पहचान की जाए और सीबीएसई की ओर से भी सख्त एक्शन लिया जाए।

दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले में दिल्ली सरकार, सीबीएसई, आईसीएसई और कई अन्य को नोटिस जारी किया है। हाईकोर्ट ने याचिका की सुनवाई के दौरान कहा, ‘दिल्ली में डमी स्कूल जिस तरह से बे-बेरोकटोक चल रहे हैं उससे उन स्टूडेंट्स को नुकसान उठाना पड़ रहा है जो रेगुलर स्कूल में पढ़ाई करते हैं। वो राज्य कोटा के जरिए इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे बड़े संस्थानों में एडमिशन लेने से वंचित रह जाते हैं।

ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि बाहर के स्टूडेंट्स दिल्ली के डमी स्कूलों में एडमिशन लेकर कोचिंग सेंटरों में एंट्रेंस एग्जामिनेशन की तैयारी करते हैं और राज्य कोटा के जरिए सीट भी पा लेते हैं।

दिल्ली राज्य कोटा में उन्हीं स्टूडेंट्स को सीट मिल सकती है जिन्होंने 11वीं और 12वीं की पढ़ाई दिल्ली के मान्यता प्राप्त स्कूल से की हो।

आखिर डमी स्कूल क्या है?

डमी स्कूल का मतलब ऐसे स्कूलों से है जहां स्टूडेंट एडमिशन तो लेता है पर उसे रोज स्कूल जाना नहीं पड़ता। इससे छात्र जेईई मेन, जेईई एडवांस और नीट जैसी परीक्षाओं की तैयारी पर ज्यादा फोकस कर पाता है।

वहीं रेगलुर स्कूल में स्टूडेंट रोज स्कूल जाता है और उसकी अटेंडेंस लगती है। चूंकि रेगुलर स्कूल जाने वाले बच्चों को रोज कोचिंग सेंटर जाने के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता है इसलिए डमी स्कूल तेजी से पनपे हैं। बोर्ड की परीक्षा से कुछ दिन पहले स्टूडेंट डमी स्कूल जाने की फॉर्मेलिटी पूरी करता है।

डमी स्कूल कैसे काम करता है?

रेगुलर स्कूल भी किसी स्टूडेंट के लिए डमी स्कूल की शक्ल ले सकता है। रेगुलर स्कूल में भी बिना स्कूल अटेंड किए स्टूडेंट का अटेंडेंस मार्क होती है। क्योंकि स्कूल अथॉरिटी एक्स्ट्रा फीस लेकर स्टूडेंट को क्लास न अटेंड करने की परमिशन देती है।

यह सभी कुछ स्कूल, कोचिंग सेंटर और स्टूंडेंट के पेरेंट के बीच आपसी सांठगांठ का मामला है।कुछ डमी स्कूल सिर्फ कागजों पर चलने वाले बिना बिल्डिंग, कैंपस या फैकल्टी के होते हैं।

सीबीएसई के नियमानुसार स्टूडेंट की 75% अटेंडेंस होने पर ही वह बोर्ड एग्जाम दे सकता है। फिर ऐसे में डमी स्कूल की क्या भूमिका होती है?

यह सवाल सही है, लेकिन डमी स्कूल इसलिए ही खोले गए हैं ताकि 75% अटेंडेंस बन जाए और स्टूडेंट बोर्ड एग्जाम दे सकें। सांठगांठ के जरिए कोचिंग सेंटर अपने यहां आने वाले छात्रों को डमी स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं।

इससे स्कूल और कोचिंग सेंटर दोनों को फायदा होता है। स्कूल में बच्चे का अटेंडेंस बनता रहता है और कोचिंग में बच्चे की पढ़ाई चलती रहती है।

डमी स्कूल ओपन स्कूल से कैसे अलग है?

डमी स्कूल ओपन स्कूल नहीं है। ओपन स्कूल डिस्टेंस लर्निंग सर्टिफिकेट देते हैं जिस पर लिखा होता है कि स्टूडेंट को स्टडी मैटेरियल दिया जाएगा और उसने घर से पढ़ाई की है।

बोर्ड एग्जाम का प्रेशर नहीं, मेडिकल-इंजीनियरिंग एंट्रेंस एग्जाम सबसे बड़ा चैलेंज

डमी स्कूल रेगुलर स्कूल को निगल रहे हैं? इस पर गुरुग्राम के एक स्कूल के प्रिंसिपल ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बोर्ड एग्जाम का अब प्रेशर ही नहीं रहा है।

अगर आप अच्छे कॉलेज में एडमिशन चाहते हैं तो बोर्ड एग्जाम यह नहीं तय कर रहा, बल्कि IIT-JEE, NEET, CUET तय कर रहा। इसलिए कोचिंग सेंटर फैल गए हैं। उनके जरिए डमी स्कूल रेगुलर स्कूलों को निगल रहे हैं। बोर्ड एग्जाम का महत्व घट रहा है जबकि एंट्रेस एग्जाम का महत्व बढ़ गया है।

दिल्ली के एक स्कूल के प्रिंसिपल ने भी स्कूल और अपने नाम की गोपनीयता की शर्त पर कहा-उनके स्कूल में 12वीं में 18 स्टूडेंट्स ऐसे हैं जो स्कूल नहीं आते। लेकिन उनका अटेंडेंस रेगुलर लगता है।

वर्ष 2000 के बाद से ही डमी स्कूल तेजी से फैले हैं। इस पर IIMT (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी) यूनिवर्सिटी के IIMT कॉलेज ऑफ एजुकेशन की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शेली और डॉ. सुधा शर्मा ने रिसर्च की है। यह रिपोर्ट अप्रैल 2023 में Dizhen Dizhi जर्नल में पब्लिश हुई।

कोचिंग सेंटर IIT और मेडिकल संस्थानों में दाखिले के सपने बेच रहे

वर्ष 1990 तक अधिकतर स्टूडेंट्स ने सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल या इंटरमीडिएट कॉलेज में पढ़ाई की। बड़े शहरों में ऊंचे वर्ग के लोग अपने बच्चों को सीबीएसई एफिलिएटेड स्कूलों में भेजते। सरकारी स्कूलों की तुलना में सीबीएसई के बच्चों को ज्यादा महत्व मिलता।

1995 के बाद मिडिल क्लास के लोग अच्छे स्कूल और बेहतर सुविधाओं के चलते गांवों से शहरों की ओर जाने लगे। वर्ष 2000 के बाद इसकी रफ्तार बढ़ी।

अब स्थिति यह है कि निम्न आय वाली मिडिल क्लास फैमिली भी अपनी इनकम का 25-30% बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करती है। वर्ष 2000 और 2005 के बीच कोचिंग संस्थान धड़ाधड़ खुलते गए जो स्टूडेंट्स और पेरेंट्स को सपने बेचने लगे। मुश्किल तब खड़ी हुई जब स्टूडेंट कोचिंग सेंटर और स्कूल के बीच बैलेंस नहीं बना पाया।

ऐसे समय में ही ‘डमी एडमिशन’ या ‘फ्लाइंग एडमिशन’ का कॉन्सेप्ट आया और आज यह पूरे देश में फैल चुका है।

डमी एडमिशन क्यों लेते हैं स्कूल

डॉ. शैली बताती हैं कि सीबीएसई मान्यता प्राप्त स्कूल कई कारणों से डमी एडमिशन लेते हैं-

  • स्पेरेंट्स खुद चाहते हैं कि उनका बेटा स्कूल में क्लासेज अटेंड न करे बल्कि कोचिंग जाए ताकि NEET और IIT में जा सके। इसलिए पेरेंट्स खुद स्कूलों पर प्रेशर डालते हैं।
  • अहमदाबाद और गांधीनगर में कई ऐसे स्कूल हैं जो हर महीने इस काम के लिए एक्स्ट्रा 50% चार्ज करते हैं। जिन स्कूलों में 60,000 एनुअल फीस है वहां पेरेंट्स बच्चे को स्कूल न जाना पड़े इसके लिए 90,000 रुपए तक भरते हैं।
  • प्राइवेट स्कूल अपने स्कूल का नाम बनाए रखने या मशहूर करने के लिए भी ऐसे बच्चों को छूट देते हैं।
  • स्कूलों की की कमाई होती है। कोचिंग सेंटरों से टाइअप के बदले भी उन्हें मोटी रकम मिलती है।

कोलकाता में सोसाइटी एगेंस्ट वॉयलेंस इन एजुकेशन (SAVE) के फाउंडर और डायरेक्टर डॉ. कुशल बनर्जी बताते हैं कि पेरेंट्स को लगता है कि उनका बच्चा बहुत ब्रिलिएंट है।

प्राइमरी से अब तक टॉपर रहा है। लेकिन IIT, NEET में एडमिशन के लिए बहुत कॉम्पिटिशन है। लाखों बच्चे परीक्षा में बैठते हैं लेकिन सीट कुछ हजार ही होती है। ऐसे में डमी स्कूल में नहीं देंगे तो बच्चे इंट्रेंस की तैयारी कैसे करेंगे।

साइंस के 20-25% स्टूडेंट्स डमी स्कूल में, ह्यमिनिटीज का महज 1%

भुवनेश्वर के ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट सीताकांत त्रिपाठी बताते हैं कि साइंस के 20 से 25% स्टूडेंट्स डमी स्कूल में दाखिल लेकर कोचिंग सेंटरों में पढ़ाई करते हैं जबकि ह्यूमनिटीज के महज 1% हैं।

कोचिंग सेंटरों के टीचरों को 40-50 लाख का सालाना पैकेज

डॉ. सुधा शर्मा बताती हैं कि रेगुलर स्कूलों को डमी स्कूल निगलते जा रहे हैं। डमी स्कूलों की वजह से रेगुलर स्कूलों में अच्छे टीचर्स नहीं हैं। सारे अच्छे टीचर्स कोचिंग सेंटरों में 40-50 लाख के एनुअल पैकेज पर हैं। हर महीने उन्हें 4 से 5 लाख की सैलेरी मिल रही है। जबकि प्राइवेट स्कूलों में टीचरों को अच्छी सैलेरी नहीं मिलती।

बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य खराब करने में डमी स्कूल परदे के पीछे

साइकोलॉजिस्ट डॉ. शिशिर पलसापुरे बताते हैं कि डमी स्कूल को सीधे-सीधे दोषी नहीं ठहराया जा सकता लेकिन यह परदे के पीछे काम कर रहे हैं।

नागपुर में 16 साल की एक लड़की 11वीं की स्टूडेंट है। डमी स्कूल में एडमिशन लेकर इंजीनियरिंग के लिए कोचिंग ले रही है। रोज 10 घंटे की पढ़ाई, हर हफ्ते का प्रैक्टिस टेस्ट, नंबर कम आने पर खुद को दोषी मानती हैं। मां-बाप का खर्चा और खुद नाकामयाब को लेकर एंग्जाइटी और डिप्रेशन का शिकार हो गई।

सीताकांत त्रिपाठी बताते हैं कि स्कूल किसी छात्र को गढ़ता है, उसके जीवन को दिशा देता है। लेकिन इसके उलट डमी स्कूल बच्चों को रेस में झोंक देता है। दिन-रात बस पढ़ाई में लगे रहते हैं। नतीजा उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य खराब हो जाता है।

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यूपी में आधे से ज्यादा स्कूल-कॉलेज नेताओं के 1,,,,,
रसूख से हर फाइल OK, किस पार्टी के नेता आगे…पूरी पड़ताल
लखनऊ3 महीने पहले
 

…. ने पूरे उत्तर प्रदेश के प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों की पड़ताल की तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए। आधे से ज्यादा यानी करीब 60% प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों के मालिक हमारे नेता हैं।

यूपी में 74 हजार से ज्यादा प्राइवेट स्कूल हैं। इसमें 50 हजार स्कूलों के मालिक नेता हैं। इनमें लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल हैं। 20 हजार प्राइवेट इंटर कॉलेज और 7 हजार से ज्यादा प्राइवेट डिग्री कॉलेज भी हैं। यहां भी 60% से ज्यादा नेताओं के ही हैं। ऐसे भी नेता हैं जिनके पास करीब 100 स्कूल-कॉलेज हैं। 31 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में 5 बीजेपी और 3 सपा नेताओं के हैं।

स्कूल-कॉलेज खोलने के लिए करीब 17 तरह के सर्टिफिकेट जरूरी हैं। इसे नेताओं की हनक कहें या ऊपर तक सेटिंग, उनके स्कूल-कॉलेजों की फाइल कहीं नहीं अटकती।

स्कूल-कॉलेज में भाजपा के नेता आगे

बसपा नेता शिव प्रसाद यादव के पास 100 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। बीजेपी नेता बृजभूषण शरण सिंह के पास 54 और संतकबीरनगर के बीजेपी नेता जय चौबे के पास 50 से अधिक स्कूल-कॉलेज हैं।

सपा के प्रदेश सचिव डॉक्टर जितेंद्र यादव के पास 20 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। उनके ज्यादातर स्कूल फर्रुखाबाद में हैं। फतेहपुर के जिला पंचायत अध्यक्ष और बीजेपी नेता अजय प्रताप सिंह के पास 18 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं।

प्रयागराज की बारा सीट से अपना दल के विधायक वाचस्पति के 15 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। प्रतापगढ़ के सपा सांसद एसपी सिंह पटेल के 13 से स्कूल-कॉलेज हैं। LPS ग्रुप इन्हीं का है।

अमेठी में बीजेपी नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री संजय सिंह के पास कुल 13 स्कूल-कॉलेज हैं। हरदोई के बीजेपी MLC अवनीश प्रताप सिंह के पास जिले में 10 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। गाजीपुर के बीजेपी नेता मनोज सिंह के पास 8 डिग्री कॉलेज, 2 इंटर कॉलेज और ITI कॉलेज हैं। बीजेपी विधायक अनुराग सिंह के पास मिर्जापुर में 5 डिग्री कॉलेज हैं।

डुमरियागंज से बीजेपी सांसद जगदंबिका पाल के पास सूर्य ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशन नाम से इंस्टीट्यूट है। इसमें डिग्री कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज शामिल है। मिर्जापुर में बीजेपी विधायक अनुराग सिंह के पास 5 कॉलेज हैं। कौशांबी में बीजेपी के पूर्व विधायक संजय गुप्ता के पास 4 इंटर कॉलेज और एक डिग्री कॉलेज है। बोर्डिंग स्कूल भी है। इन सबके आगरा के बीजेपी विधायक छोटे लाल वर्मा के पास 5 स्कूल-कॉलेज और संभल के बीजेपी नेता अजीत यादव के पास 4 स्कूल-कॉलेज हैं।

सपा सांसद के पास सबसे महंगे स्कूल की चेन प्रतापगढ़ से सपा सांसद एसपी सिंह पटेल लखनऊ पब्लिक स्कूल के मालिक हैं। फर्रुखाबाद के सपा नेता डॉ. जितेंद्र यादव के पास पूरा बाबू सिंह ग्रुप है। 20 से ज्यादा डिग्री कॉलेज और 4 मेडिकल कॉलेज हैं। सपा सरकार में मंत्री रहे सिद्धार्थनगर के माता प्रसाद पांडेय के पास भी 5 स्कूल-कॉलेज हैं। सपा के दिग्गज नेता आजम खान के पास 3 स्कूल हैं, एक यूनिवर्सिटी भी है।

अपना दल और कांग्रेस-बसपा नेताओं के पास भी स्कूल-कॉलेज अपना दल के टिकट पर प्रयागराज की बारा सीट से जीते वाचस्पति के पास 15 से अधिक स्कूल-कॉलेज हैं। बदायूं के डीपी यादव के पास 8 स्कूल-कॉलेज हैं। वह सपा-बसपा-भाजपा समेत कई पार्टियों में रह चुके हैं। अभी उन्होंने राष्ट्रीय परिवर्तन दल बना लिया है। कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी के पास प्रतापगढ़ में 6 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं।

इसी तरह वाराणसी के कांग्रेस नेता राजेश्वर पटेल के पास 5 से ज्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। कानपुर के कांग्रेस नेता आलोक मिश्रा DPS ग्रुप से जुड़े हैं। उनके पास इस वक्त कानपुर में ही 4 स्कूल हैं। बसपा के पूर्व विधायक लखीमपुर जिले के राजेश गौतम के पास 4 स्कूल-कॉलेज हैं।

यूपी के सबसे ज्यादा स्कूल चेन वाले नेता सबसे ज्यादा स्कूल-कॉलेज इटावा के शिव प्रसाद यादव के पास मिले। इनके पास 100 से अधिक स्कूल-कॉलेज हैं। शिव प्रसाद ने 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर मैनपुरी से चुनाव लड़ा था।

अब प्राइवेट यूनिवर्सिटी की बात करते हैं…

बीजेपी नेताओं के पास 5 प्राइवेट यूनिवर्सिटी यूपी में इस वक्त 31 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं। इनमें 5 यूनिवर्सिटी बीजेपी नेताओं की हैं, 3 तो मथुरा में ही हैं। इनमें नारायण दास अग्रवाल की GLA यूनिवर्सिटी, सचिन गुप्ता की संस्कृति यूनिवर्सिटी, जिला पंचायत अध्यक्ष किशन चौधरी की KM यूनिवर्सिटी शामिल है। इसके अलावा ठाकुर जयवीर सिंह की नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के महापौर उमेश गौतम की इन्वर्टिस यूनिवर्सिटी भी है। गोरखपुर की महायोगी गोरखनाथ यूनिवर्सिटी गोरक्षा पीठ ट्रस्ट के अधीन है।

3 सपा और 1 बसपा नेता के पास यूनिवर्सिटी सपा के दिग्गज नेता आजम खान के पास जौहर यूनिवर्सिटी है। इस यूनिवर्सिटी को बनाने के बाद आजम खान पर जमीन कब्जाने के गंभीर मामले दर्ज हुए। आज भी यह मामला कोर्ट में चल रहा है। फिरोजाबाद के शिकोहाबाद में जेएफ यूनिवर्सिटी है। इसके प्रमुख डॉ. सुकेश यादव हैं। इसके अलावा एफएफ यूनिवर्सिटी है, जिसके प्रमुख डॉ. दिलीप यादव हैं।

सहारनपुर में बसपा नेता हाजी इकबाल के पास द ग्लोकल यूनिवर्सिटी है। इन 9 यूनिवर्सिटियों के अतिरिक्त जो 22 यूनिवर्सिटीज हैं, उनके प्रमुख या तो व्यवसायी हैं या फिर शिक्षा क्षेत्र से ही जुड़े हैं। ये सभी नेताओं के संपर्क में भी हैं, लेकिन किसी पार्टी से सीधे तौर पर नहीं जुड़े हैं।

अब यह जानते हैं कि स्कूल खोलने के नियम क्या हैं? क्या नेता सारे नियम फॉलो कर रहे?

यूपी के आधे प्राइवेट स्कूल तय नियम के हिसाब से नहीं चल रहे अगर शहरी क्षेत्र में 5वीं तक का स्कूल खोलना है, तो उसके लिए 500 वर्ग गज (करीब 5000 वर्ग फीट) का खेल का मैदान होना ही चाहिए। गांव में स्कूल खोलना है तो 1000 वर्ग गज का खेल का मैदान होना चाहिए। इसके अलावा 270 वर्ग फीट के तीन क्लासरूम, 150-150 वर्ग फीट का एक स्टाफ रूम और एक प्रिंसिपल रूम होना चाहिए। 8वीं तक के स्कूल में 600 वर्ग फीट की एक विज्ञान प्रयोगशाला भी अनिवार्य है। इन दोनों प्रकार के स्कूलों में एक 400 वर्ग फीट का अलग कमरा होना चाहिए।

शहर में कॉलेज खोलने के लिए 3 हजार वर्ग मीटर और गांव में कॉलेज खोलने पर 6 हजार वर्ग मीटर जमीन होनी चाहिए। इसके अलावा जमीन की खरीद का एफिडेविट, बिल्डिंग का फिटनेस सर्टिफिकेट, कंप्लीशन सर्टिफिकेट, जल बोर्ड से जल परीक्षण रिपोर्ट, बिल्डिंग का साइट प्लान, बैंक का इश्यू किया गया FD के बदले में नो-लोन सर्टिफिकेट जैसे कुल 17 तरीके के सर्टिफिकेट देने होते हैं। लेकिन, यूपी में 80% से ज्यादा स्कूल इन मानकों पर खरे नहीं उतरते।

नेताओं की अधिकारियों से पहचान, इसलिए ज्यादा स्कूल इतने सारे परमिशन करवाना आम आदमी के बस में नहीं होता, क्योंकि कई मानक वह पूरा भी नहीं कर पाता। ऐसी दिक्कत नेताओं के साथ नहीं होती। उनके पास सोर्स और सिफारिश होती है। इसलिए उनकी फाइलें जल्दी पास हो जाती हैं।

एक पैटर्न और भी दिखता है, जिनके पास कई स्कूल-कॉलेज हैं, वह राजनीति में बहुत आक्रामक नहीं हैं। जैसे ही सरकार बदलती है, उनकी विचारधारा भी बदल जाती है। उदाहरण के रूप में संतकबीरनगर के जय चौबे को ले सकते हैं। जय चौबे पहले सपा में थे, लेकिन अब वह भाजपा में हैं।

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यूपी के स्कूल-कॉलेज से नेता कैसे कमा रहे करोड़ों  2

क्लास न आने के 5 हजार, एग्जाम न देने के 20 हजार वसूल रहे
लखनऊ3 महीने पहले

आशीष (बदला हुआ नाम) ने प्रतापगढ़ के एक कॉलेज से डीएलएड किया। 41 हजार फीस जमा की। कॉलेज प्रशासन के सामने मजबूरी जताई कि रेगुलर क्लास नहीं अटेंड कर सकता। कॉलेज ने कहा- 5 हजार और दे दीजिएगा, क्लास की जरूरत नहीं पड़ेगी। आशीष ने 5 हजार और दे दिए। तब से वह प्रैक्टिकल या फिर परीक्षा देने ही कॉलेज जाते थे। 92% अंकों के साथ वह पास भी हो गए।

यूपी के कई प्राइवेट कॉलेजों में आशीष जैसे हजारों छात्र हैं, जो ‘ऊपरी’ पैसा देकर पढ़ रहे हैं। इनसे फीस के अलावा सुविधा शुल्क के नाम पर पैसा, परीक्षा प्रवेश पत्र के नाम पर पैसा, प्रैक्टिकल के नाम पर पैसा लिया जा रहा। एक नॉन प्रॉफिटेबल काम हाई प्रॉफिटेबल में बदल गया। इसके जरिए यूपी के नेता मोटी कमाई कर रहे। यही वजह है कि आज प्रदेश के 60% कॉलेज नेताओं के पास हैं।

प्राइवेट कॉलेज किस तरह कमाई कर रहे, दैनिक भास्कर इसका खुलासा करेगा। इसे पहले तीन केस से समझिए…

केस- 1: प्रैक्टिकल और नकल करवाने के रेट तय अंकित प्रयागराज के एक फॉर्मेसी कॉलेज से डी-फॉर्मा कर रहे हैं। एडमिशन के वक्त उन्होंने 85 हजार रुपए फीस जमा की। कॉलेज ने प्रैक्टिकल के नाम पर सभी छात्रों से 5-5 हजार रुपए लिए। अंकित बताते हैं- कॉलेज अतिरिक्त पैसा लेने के लिए बीच में सेशनल एग्जाम रख देता है। जो लोग आते हैं, उन्हें तो 4-5 हजार ही देना होता है। लेकिन, जो इस परीक्षा में शामिल नहीं होना चाहते उनसे 15-20 हजार रुपए ले लिए जाते हैं।

अंकित कहते हैं- जो लड़के देरी से एडमिशन लेने का फैसला कर पाते हैं, उनका भी एडमिशन हो जाता है। लेकिन, फीस 85 हजार से बढ़कर 1 लाख हो जाती है। जबकि हम सबकी सरकारी फीस 45 हजार रुपए है। स्कॉलरशिप फॉर्म भरते वक्त कॉलेज हम लोगों से यही भरवाता है।

केस- 2ः कॉलेज नहीं आने पर 5 हजार अतिरिक्त देना है मुकेश ने प्रयागराज के सिकंदरा में स्थित भीमराव अम्बेडकर महाविद्यालय से डीएलएड किया। एडमिशन के वक्त 41 हजार रुपए फीस जमा की। 9 हजार रुपए अलग से लगे। इसमें परीक्षा शुल्क के 1500 रुपए, प्रवेश पत्र के लिए 500, प्रैक्टिकल के लिए 2 हजार और कॉलेज नहीं आने के लिए 5 हजार रुपए शामिल हैं। मतलब साल भर में 9 हजार रुपए अतिरिक्त दे रहे हैं।

मुकेश के भाई सुमित ने प्रतापगढ़ के कुंडा स्थित नंदन पीजी कॉलेज से डीएलएड किया है। यह कॉलेज अब रज्जू भैया यूनिवर्सिटी से संबद्ध है। सुमित कहते हैं- फीस के अलावा परीक्षा शुल्क के नाम पर 1500 रुपए प्रति सेमेस्टर लिए जाते हैं। शुरुआत में तो क्लास ठीक चलती है, लेकिन आखिर के दो सेमेस्टर में क्लास बहुत कम चलती है। बीच-बीच में पैसा दे देने से नंबर अच्छे मिल जाते हैं।

केस- 3ः पेपर नहीं देने के लिए अलग चार्ज राहुल सिंह ने प्रतापगढ़ जिले के एक लॉ कॉलेज से एलएलबी किया। यह कॉलेज रज्जू भैया यूनिवर्सिटी से अटैच है। राहुल ने पहले सेमेस्टर की फीस 7500 रुपए जमा की। 1500 रुपए प्रैक्टिकल के और 1500 रुपए अलग से सुविधा शुल्क के नाम पर दिए। राहुल कहते हैं- ये सुविधा शुल्क नकल करवाने के लिए लिया जाता है। जो लड़के पेपर नहीं देना चाहते, उनके लिए प्रति कॉपी रेट तय है। 1000-1500 रुपए में उनकी कॉपी भी लिख दी जाती है।

यहां तक हमने छात्रों की फीस और सुविधा शुल्क का मामला समझा। अब समझते हैं, कॉलेज मोटी कमाई कैसे करता है?

छात्र से 12 हजार लिए, यूनिवर्सिटी को 1 हजार दिए हमने बाराबंकी में लॉ कॉलेज के एक प्रिंसिपल से बात की। उनसे पूछा कि कॉलेज कमाई कैसे करता है? वह कहते हैं- हमारे यहां एलएलबी की प्रति सेमेस्टर 12,500 रुपए फीस है। हम जिस यूनिवर्सिटी से अटैच हैं, वहां हमें सिर्फ 1 हजार रुपए देना है। बाकी के 11,500 रुपए कॉलेज के हुए। इसके अलावा परीक्षा शुल्क, सुविधा शुल्क के नाम पर भी 2-3 हजार रुपए प्रति छात्र लिया जाता है। कोई छात्र आने में असमर्थता जताता है, तब हमें उसके लिए अलग इंतजाम करना होता है। उसका भी चार्ज लगता है। इस तरह से अगर 100 लड़के हैं, तो आप कमाई का अनुमान लगा लीजिए।

जिन टीचर्स का नाम, वह कभी कॉलेज नहीं आते कॉलेज छात्रों से तो ट्यूशन फीस और सुविधा शुल्क वसूलता है, लेकिन टीचर्स को नहीं देता। इसे लखनऊ के ही एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा रहे टीचर बताते हैं। वह कहते हैं- एक बीएड कॉलेज में कम से कम 14 टीचर्स का स्टाफ होना चाहिए। इसी बेस पर मान्यता मिलती है। हर टीचर की शुरुआती सैलरी 21 हजार 500 रुपए होनी चाहिए। अगर अनुभवी है, तो उसकी सैलरी ज्यादा होनी चाहिए। लखनऊ यूनिवर्सिटी से अटैच कॉलेज में तो शुरुआती सैलरी 27 हजार 660 रुपए होनी चाहिए।

वह कहते हैं- लेकिन किसी भी कॉलेज में न तो 14 टीचर्स होते हैं और न ही किसी को मानक के मुताबिक सैलरी मिलती है। हमने कहा कि फिर कॉलेज मैनेज कैसे करता है? वह जो बताते हैं वह हैरान करता है। कहते हैं- कॉलेज 14 ऐसे लोगों को चिह्नित करता है जिनके पास डिग्री है। उन्हें सलाना 20-25 हजार दे देता है और उनके नाम का इस्तेमाल करता है।

ऐसे करते हैं गड़बड़ी: साइन चेक रखवा लेते हैं प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा रहे टीचर बताते हैं- ऐसे टीचरों का अकाउंट खुलवा दिया जाता है। उनसे चेकबुक साइन कर रखवा ली जाती है। एक तरफ उनके खाते में पैसा डाला जाता है और दूसरी तरफ से निकाल लिया जाता है।

लखनऊ के एक कॉलेज में पढ़ा रहे ये टीचर कहते हैं- मेरा नाम कई और कॉलेज में भी जुड़ा है। वहां से मुझे पैसे मिलते हैं। ये पूछने पर कि क्या यूनिवर्सिटी को ऐतराज नहीं होता? वह कहते हैं- किसी एक यूनिवर्सिटी से जुड़े एक कॉलेज में ही नाम हो सकता है। फैजाबाद, कानपुर, लखनऊ, रज्जू भइया समेत कई यूनिवर्सिटी हैं, उनसे जुड़े कॉलेज में नाम चलते हैं।

एससी-एसटी एडमिशन और स्कॉलरशिप में भी धांधली कॉलेज, स्कॉलरशिप को लेकर भी धांधली करते हैं। इसे एक उदाहरण से समझिए। सचिन ने लखनऊ के सरदार भगत सिंह कॉलेज ऑफ हायर एजुकेशन से MBA किया। दलित वर्ग से आने के चलते उनसे एडमिशन फीस के रूप में सिर्फ 8 हजार रुपए लिए गए। इसके साथ सचिन के सारे डॉक्यूमेंट जमा करवा लिए गए। कॉलेज ने ही उनका स्कॉलरशिप फॉर्म भरा। जब करीब 82 हजार स्कॉलरशिप आई तो उसे अपने पास रख लिया। MBA के दौरान सचिन की दो बार स्कॉलरशिप आई, दोनों ही बार कॉलेज ने ले लिया।

मैनेजमेंट कॉलेज एससी-एसटी छात्रों के एडमिशन के लिए उन लोगों को भी पैसा देते हैं, जो कॉलेज में एडमिशन लेकर आते हैं। इसके लिए कॉलेज उन्हें 10 से 15 हजार रुपए तक देते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि एससी-एसटी छात्र-छात्राओं का स्कॉलरशिप आना 100% तय होता है।

सरकार की तरफ से अनुदान में मिलती है मोटी रकम कॉलेजों को सरकार की तरफ से अनुदान भी मिलता है। जैसे कोई महिला डिग्री कॉलेज है, तो उसे बनाने और चलाने में कुल खर्च का 40% तक अनुदान मिलता है। विधायक और सांसद निधि के जरिए भी कॉलेज को अनुदान दिया जा सकता है। कई बार सरकारी जमीन भी कॉलेज निर्माण के लिए मिल जाती है।

कुल मिलाकर यह सिर्फ कहने की बात है कि स्कूल-कॉलेज नॉन प्रॉफिटेबल हैं। हकीकत यह है कि इससे हर साल करोड़ों रुपए कमाए जा रहे। यही वजह है कि नेताओं ने बड़ा निवेश कॉलेजों पर कर रखा है।

अब जानिए क्या कहते हैं कॉलेज चलाने वाले

कॉलेज ने कहा, आरोप कोई भी लगा सकता है छात्रों के आरोप के बाद हमने प्रतापगढ़ के नंदन पीजी कॉलेज से संपर्क किया। यहां के एडमिशन सेल के हेड शरद शुक्ला ने आरोपों को सिरे से नकार दिया। उन्होंने कहा- हमारे यहां डीएलएड की सरकारी फीस के साथ 1000 रुपए प्रैक्टिकल के, 1000 परीक्षा फॉर्म और 600 रुपए इंटरनल फीस लगती है। इसके अलावा हमारे यहां कोई भी सुविधा शुल्क नहीं लिया जाता।

वहीं, भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के संतोष से बात हुई। वह सुविधा शुल्क लेने की बात को पूरी तरह से खारिज करते हैं। कहते हैं- हमारे यहां जो बाहर से परीक्षा लेने आते हैं और जो फीस तय होती है, वही देना होता है। अगर कोई छात्र एडमिशन लेता है, तो उसे रेगुलर क्लास करना ही होता है।

आमतौर पर माना जाता है कि शिक्षा का पेशा फायदा कमाने के उद्देश्य से नहीं किया जाना चाहिए। प्राइवेट कॉलेजों की महंगी फीस को लेकर एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी टिप्पणी की थी कि शिक्षा मुनाफा कमाने का पेशा नहीं है। पेशेवर पाठ्यक्रमों की फ‌ीस सस्ती होनी चाहिए। ऐसे में यूपी के प्राइवेट कॉलेजों में इस तरह की गड़बड़ी पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है।

(नोट: सभी केस में हमने स्टूडेंट्स के नाम बदल दिए हैं)

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