-एनईपी 2020 से पहले टेक्निकल एजुकेशन में क्या चुनौतियां थीं?जब मैं एआईसीटीई में आया, उस समय सीआईआई, नैसकॉम, फिक्की आदि के सर्वे बार-बार कह रहे थे कि हमारे इंजीनियरिंग कॉलेज से निकलने वाले छात्र रोजगार देने लायक (एम्पलॉयबल) नहीं हैं। मुश्किल से 25-30% छात्र अच्छा प्रदर्शन करते हैं और उन्हें अच्छी नौकरी भी मिलती है, बाकी 70% के पास काबिलियत नहीं होती है। उनमें भी कुछ लोगों को नौकरी मिल तो जाती है लेकिन कंपनियों को बाद में उन्हें काफी ट्रेनिंग देनी पड़ती है।

हमने गहराई से देखा तो पाया कि कॉलेज या यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम बहुत पुराने थे। इंडस्ट्री की जरूरत के हिसाब से पाठ्यक्रम वर्षों से बदले नहीं गए थे। शिक्षण संस्थान इंडस्ट्री से 10 से 15 साल पीछे चल रहे थे, इसलिए वहां पढ़ाई करने वालों से इंडस्ट्री को ज्यादा लाभ नहीं मिलता था। अगर हम पाठ्यक्रम को हर दो-तीन साल में संशोधित करें और इंडस्ट्री की जरूरत के मुताबिक बनाएं तो उसके बेहतर नतीजे होंगे। पाठ्यक्रम की समीक्षा के लिए हमने अकादमिक और इंडस्ट्री के लीडर्स को एक साथ बिठाया। हम हर इंडस्ट्री के लिए एक साथ बदलाव नहीं कर सकते, लेकिन कम्युनिकेशन स्किल, टीम वर्क, लैंग्वेज स्किल जैसी विधाएं सबके लिए जरूरी हैं।

दूसरा, कॉलेज से निकलने वाले छात्रों को मालूम नहीं होता था कि इंडस्ट्री कैसे काम करती है। वे कॉलेज से निकल कर सीधे इंडस्ट्री में जाते थे तो वहां बिल्कुल अलग माहौल दिखता था। तब हमने कम से कम 6 महीने की इंटर्नशिप को अनिवार्य किया। चाहे वह 6 महीने का पूरा सेमेस्टर हो या 3 साल तक गर्मियों की छुट्टी के दौरान दो-दो महीने का समय हो। इससे छात्रों की एम्प्लॉयबिलिटी बढ़ी।

तीसरा, कई बार युवा कोई कंपनी ज्वाइन करने के बाद मामूली सैलरी बढ़ने पर दूसरी कंपनी चले जाते हैं। इससे उन्हें उस कंपनी की ट्रेनिंग का लाभ नहीं मिलता है। मेरे विचार से ऐसा करके छात्र छोटे लाभ के लिए दीर्घकालिक विजन को नष्ट कर देते हैं। छात्रों में ईमानदारी, एकनिष्ठता, वैल्यू सिस्टम विकसित करने के लिए हमने यूनिवर्सल ह्यूमन वैल्यू प्रोग्राम लॉन्च किया जो काफी सफल रहा।

छात्र अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं। अगर कोई छात्र गांव से आया है, गरीब परिवार से है तो उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई बार मेधावी छात्र होने के बावजूद उसे लगता है कि कुछ नहीं आता, क्योंकि वह हिंदी या किसी क्षेत्रीय भाषा में पढ़कर आया है और नई जगह उसे अंग्रेजी में पढ़ाया जा रहा है। इससे उसका कॉन्फिडेंस कम हो जाता है। छात्रों में कोलैबोरेशन की भावना भी जरूरी है। गांव से आने वाले छात्र को बहुत सी ऐसे बातें भी पता होंगी जो शहर के छात्रों को नहीं होंगी। सबमें कमियां होंगी, लेकिन सबमें कुछ खूबियां भी होंगी। इसलिए एक-दूसरे की मदद की जरूरत है। आपसी सहयोग की यह भावना एक दिन में नहीं बनती, इसमें समय लगता है। इस दिशा में हमारे प्रोग्राम के अच्छे नतीजे मिले।

वर्ष 2015 में भारत ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में 81वें स्थान पर था। हमने स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन की शुरुआत की, हर साल छात्रों के इनोवेटिव विचारों को प्रमोट करने लगे तो आज हम इस इंडेक्स में 39वें पायदान (133 देशों में) पर पहुंच गए हैं।

-आपने जो समस्याएं बताईं, क्या एनईपी में उनका समाधान है?राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इन सभी बातों का समावेश है। बहुविषयी शिक्षा, इनोवेशन, मातृभाषा में पढ़ाई, मल्टीप्ल एंट्री और एग्जिट की सुविधा, विषय चुनने की छूट ये सब नई नीति में हैं। हमने फैकल्टी डेवलपमेंट के लिए अटल (एआईसीटीई ट्रेनिंग एंड लर्निंग) अकादमी की शुरुआत की थी। पहले यह ट्रेनिंग फिजिकल थी, लेकिन कोविड के समय इसकी ऑनलाइन शुरुआत की गई। वर्ष 2015-16 में हमने जो छोटी सी शुरुआत की थी और 2017-18 में उसके परिणाम देखने लगे थे, उन सब बातों को 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जगह दी गई है।

-अगर पढ़ाने के लिए इंडस्ट्री से विशेषज्ञ बुलाए जाएं, तो बेहतर नतीजे निकलेंगे?

यह पहले भी था, लेकिन तब इंडस्ट्री के विशेषज्ञ कुछ समय के लिए आते थे और पढ़ा कर चले जाते थे। नई शिक्षा नीति में आईआईटी समेत सभी इंजीनियरिंग कॉलेज तथा विभिन्न यूनिवर्सिटी में ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ लागू किया गया है। उनके पास पीएचडी की डिग्री नहीं होने पर भी वे प्रोफेसर के तौर पर जाने जाएंगे और क्लास ले सकेंगे। वे फुल टाइम या पार्ट टाइम रह सकते हैं।

-फंडिंग की समस्या कितनी बड़ी है?फंडिंग की समस्या हमेशा रहेगी, हमें नजरिया बदलना पड़ेगा। हम हमेशा यह देखते हैं कि हमसे ऊपर वालों को कितना पैसा मिलता है। राज्यों के कॉलेज केंद्रीय संस्थानों, आईआईटी, एनआईटी से तुलना करते हैं और कहते हैं कि राज्य सरकार हमें फंडिंग नहीं करती है। प्राइवेट संस्थान कहते हैं कि हमें न तो केंद्र सरकार से कुछ मिलता है न राज्य सरकार से, हमें सिर्फ फीस पर निर्भर रहना पड़ता है। आईआईटी जैसे संस्थान, जिन्हें सबसे ज्यादा फंडिंग मिलती है, वे डॉलर में फंडिंग वाले अमेरिकी संस्थानों से तुलना करते हैं। भारत में उससे तुलना ही नहीं की जानी चाहिए।

हमें जो भी फंड मिल रहा है, अगर हम उसका अच्छे तरीके से उपयोग करें, इनोवेटिव तरीके अपनाएं तो पैसे की कमी महसूस नहीं होगी। मैं ऐसे अनेक संस्थानों को जानता हूं जो बड़े नाम नहीं हैं, जहां हैं उन जगहों के नाम तक लोग नहीं जानते, लेकिन उनकी प्रयोगशालाओं में अनेक ऐसी चीजें मिल जाएंगी जो आईआईटी दिल्ली में नहीं हैं। उन्होंने प्रयास किए, इनोवेशन करके इंडस्ट्री को दिखाया तो उन्हें मुफ्त में या बहुत कम कीमत पर इक्विपमेंट मिल गए। जब आप इंडस्ट्री को जोड़ेंगे और इंडस्ट्री को लगेगा कि आपसे कुछ लाभ हो रहा है तो उनकी तरफ से फंड का प्रवाह भी बढ़ेगा। हमारे संस्थान पूर्व छात्रों (एलुमनाई) के साथ संबंध नहीं रखते हैं। एलुमनाई के साथ रिश्ते अच्छे होंगे तो वे दुनिया में जहां भी होंगे, अपने मातृ संस्थान की कुछ न कुछ जरूर मदद करेंगे। लेकिन इसके लिए उन्हें वाइस चांसलर, डायरेक्टर या प्रिंसिपल से प्रेरणा मिलनी चाहिए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का असर कब तक देखने को मिलेगा?

पॉलिसी में जितनी बातें बताई गई हैं उन्हें लागू करने के लिए 15 साल दिए गए हैं। यानी पूरा असर तो 15 साल के बाद ही दिखेगा, लेकिन कुछ प्रभाव दिखने लगे हैं। हमने अपार (ऑटोमेटेड पर्मानेंट एकेडमिक एकाउंट रजिस्ट्री) आईडी बनाई और उसके साथ एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट को जोड़ा, उससे अनेक छात्रों को लाभ मिल रहा है। इसी तरह स्वयं (SWAYAM) प्लेटफॉर्म पर अनेक तरह के कोर्स उपलब्ध हैं। अगर मेरे कॉलेज में किसी विषय का अच्छा टीचर नहीं है तो मैं दूसरे संस्थान के अच्छे टीचर का लेक्चर वहां सुन सकता हूं, सीख सकता हूं। पॉलिसी का ही परिणाम है कि अब हमारी यूनिवर्सिटी रैंकिंग में आने लगी हैं। क्यूएस एशिया रैंकिंग में चीन से ज्यादा भारत के संस्थान हैं। विश्व रैंकिंग में अभी हम शीर्ष 100 में स्थान नहीं बना पाए हैं, लेकिन एशिया के शीर्ष 100 में हमारे छह संस्थान हैं। अभी यह शुरुआत है। आगे जैसे-जैसे चीजें गति पकड़ेंगी, उनके प्रभाव भी अधिक तेजी से देखने को मिलेंगे।